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राहुल की ताजपोशी: कांग्रेस को 'राजा' नहीं बल्कि 'सेनापति' चाहिए

राहुल गांधी को यह दिखाना होगा कि वो एक ऐसे राजनेता हैं जो अपने राजनीतिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्ध हैं और नतीजों की परवाह किए बिना लड़ना जानते हैं

Rakesh Kayasth

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना देश की मुख्य विपक्षी पार्टी (कांग्रेस) को पूरी तरह से मिटाना है. बीजेपी के चाणक्य अमित शाह रणनीति बनाकर भारत को कांग्रेस मुक्त करने की दिशा में तेजी से काम कर रहे हैं. मेन स्ट्रीम मीडिया इसे लेकर हमेशा से सवाल खड़े करता आया है और सोशल मीडिया पर हिकारत भरी छींटाकशी जारी है. इन सबके बीच राहुल गांधी ने देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी का पर्चा भर दिया है.

दुनिया जानती है कि कांग्रेस के अध्यक्ष की ताजपोशी सिर्फ एक औपचारिकता होती है. फिर भी राहुल के अध्यक्ष बनने को लेकर जितनी सरगर्मी है, उतनी शायद ऐसे किसी और मौके पर पहले नहीं रही. राहुल के नामांकन भरते ही `इंडिया विद राहुल’ हैशटैग सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा. प्रधानमंत्री तक इस मामले पर तंज कसने से खुद को रोक नहीं पाए. वजह बहुत साफ है. कांग्रेस के लिए अब लड़ाई आर-पार की है, पार्टी या तो अपनी खोई हुई जमीन हासिल करेगी या फिर मिट जाएगी. ऐसा ही कुछ राहुल गांधी के भविष्य के साथ भी होने वाला है


कांग्रेस का आखिरी रास्ता

राहुल गांधी का औपचारिक राजनीतिक करियर 13 साल पुराना रहा है. 2004 से लेकर 2010 तक उनके सितारे बुलंदी पर थे. लेकिन यूपीए के दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सिंह की नाकामी के साथ राहुल की चमक भी फीकी पड़नी शुरू हो गई. उनकी इमेज एक ऐसे राजकुमार की बनी जो जीत का श्रेय तो लेना चाहता है, लेकिन नाकामी दूसरों पर मढ़कर छिप जाता है.

कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए राहुल गांधी ने 4 दिसंबर को अपना नामांकन भरा है (फोटो: पीटीआई)

यह तय था कि अगर 2014 के लोकसभा चुनाव में फिर से यूपीए की जीत हुई तो राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे. लेकिन कांग्रेस सिर्फ 43 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद राहुल गांधी ने लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करने से इनकार कर दिया और यह जिम्मेदारी मल्लिकार्जुन खड़गे को संभालनी पड़ी. कांग्रेस पिछले साढ़े 3 साल में प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने में नाकाम रही है.

लंबी छुट्टियों के लिए चर्चित रहे राहुल गांधी का नाम अखबारों की हेडलाइन में कम और सोशल मीडिया चुटकुलों में ज्यादा नजर आता रहा है. 70 वर्ष की हो चुकी और लगातार बीमार रहने वाली सोनिया गांधी पहले ही खुद को रोजमर्रा की राजनीति से अलग कर चुकी हैं. जाहिर सी बात है कि 2014 के बाद का पूरा दौर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए घनघोर निराशा और अनिश्चितता का रहा है.

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ऐसे में अध्यक्ष के रूप में राहुल की ताजपोशी को और टालना कांग्रेस के लिए भी संभव नहीं है. अब यह बहुत साफ हो चुका है कि राहुल गांधी अपनी ताजपोशी के लिए माकूल मौके का इंतजार नही कर सकते क्योंकि 2009 के बाद से उनके करियर में अब एक भी ऐसा मौका नहीं आया है, जब उनके खाते में कोई शानदार जीत दर्ज हो और अपनी लोकप्रियता को भुनाते हुए वो अध्यक्ष पद की कुर्सी पर जा बैठें.

राहुल गांधी पिछले 13 साल से कांग्रेस और देश की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं

जीत-हार से परे लड़ना जरूरी

तो क्या राहुल गांधी नाकामियों की जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं? अब तक जितने भी चुनाव राहुल की देख-रेख में लड़े गए हैं, उन सबमें हार के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष या फिर राज्य के प्रभारी ने आगे बढ़कर जिम्मेदारी खुद ली है और राहुल को बचाया है. यह कांग्रेस की पुरानी संस्कृति है. लेकिन मौजूदा हालात में यह साफ है कि 'मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’ नहीं चलेगा.

अपने करियर के स्वर्णिम काल में राहुल गांधी की पीठ पर मां सोनिया गांधी का हाथ था. सरकार की कमान मनमोहन सिंह के पास थी. यानी राहुल के पास श्रेय लेने के बेशुमार मौके थे और नाकामी को छिपाने के बहुत से तर्क. लेकिन अब यह सब कुछ भी नहीं होगा. राहुल को यह दिखाना होगा कि वो एक ऐसे राजनेता हैं जो अपने राजनीतिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्ध हैं और नतीजों की परवाह किए बिना लड़ना जानते हैं.

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चाटुकारों से भरी कांग्रेस पार्टी में जमीनी संघर्ष से उपर उठे नेता कभी शीर्ष तक नहीं पहुंच पाते. राजीव गांधी के बाद के कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व मनोवैज्ञानिक तौर पर इतना असुरक्षित रहा है कि उसने क्षत्रपों के पर लगातार कतरे हैं. इसका खामियाजा कांग्रेस को अपने सिकुड़ते जनाधार के रूप में भुगतना पड़ा है. क्या राहुल गांधी वैसे नेताओं के हाथ मे ताकत देंगे जिनके पास उनका अपना जनाधार हो? अगर नहीं तो फिर वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस पार्टी में जान फूंकना मुमकिन नहीं होगा.

राजनीति में राहुल गांधी को हमेशा अपनी मां सोनिया गांधी का मार्गदर्शन मिलता रहा है

कैसे बदलेगा कांग्रेस कल्चर

आजादी के बाद से देश की सत्ता ज्यादातर वक्त कांग्रेस के पास रही है. 90 के दशक में कांग्रेस पार्टी की ताकत तेजी से घटनी शुरू हुई. इसके बावजूद पिछले 25 साल में से 15 साल तक देश पर कांग्रेस ने शासन किया है. स्वाभाविक है कि कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भी सत्ता की आदत रही है. उन्हें बीजेपी या दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के कार्यकर्ताओं की तरह सड़क पर उतरकर संघर्ष करना नहीं आता. लेकिन बिना सड़क पर उतरे कोई राजनीतिक बदलाव संभव नहीं है.

ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक ना जाने कितने नेताओं ने यह दिखाया है कि राजपथ का रास्ता सड़क से होकर जाता है. क्या राहुल गांधी सुस्त पड़े कार्यकर्ताओं को सड़क पर उतरने के लिए प्रेरित कर पाएंगे?

इंटक और कांग्रेस सेवादल से लेकर यूथ कांग्रेस तक पार्टी से जुड़े तमाम संगठन बेजान पड़े हैं. क्या राहुल गांधी के केवल अध्यक्ष बन जाने से इन संगठनों में नई जान आ जाएगी? जवाब है- बिल्कुल नहीं. राहुल गांधी इस वक्त भी पार्टी के नेता हैं. मामला ओहदे से कहीं ज्यादा जुझारूपन का है, जो उन्हें दिखाना होगा. उन्हें अपने कार्यकर्ताओं को यह समझाना होगा कि अतीत की सुनहरी कहानियों और नेहरू-इंदिरा के नाम पर पार्टी नहीं चल सकती है. जनता के बीच में जाना होगा और जनता से जुड़े सवालों पर ईमानदारी से काम करना होगा.

हाल के वर्षों में देश में कांग्रेस का जनाधार लगातार सिकुड़ता जा रहा है

बदले तेवर बरकरार रख पाएंगे राहुल

क्या राहुल गांधी बड़ी भूमिका के लिए गुपचुप तैयारी कर रहे थे? यह सवाल आजकल छाया हुआ है. पिछले कुछ अरसे से राहुल की पूरी राजनीतिक शख्सियत में जो बदलाव आया है कि उसकी चर्चा देश भर में हो रही है. यह माना जा रहा है कि राहुल गांधी ने अपनी 'पप्पू' वाली इमेज को बदलने में कामयाबी हासिल कर ली है. वो लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ रहे हैं, बल्कि सीधा संवाद कर रहे हैं. आर्थिक और राजनीतिक मुद्धों पर तथ्यों और तर्कों के साथ सरकार को घेर रहे हैं और टेढ़े सवालों के जवाब बहुत आसानी से दे रहे हैं. एक वक्त था, जब राहुल गांधी का नाम सुनकर बीजेपी के छुटभैये नेता तक हंसने लगते थे, लेकिन अब पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी उन्हें बहुत गंभीरता से ले रहा है.

गुजरात के कैंपेन में राहुल गांधी ने जिस तरह की भीड़ बटोरी है और जैसे तेवर दिखाए हैं, उससे कांग्रेसियों के डूबते दिल को सहारा मिला है. गुजरात को 2014 का पहला ऐसा चुनाव माना जा रहा है, जहां कांग्रेस सचमुच अपने लड़ाकू तेवर दिखा रही है. कई लोग यह भी पूछ रहे हैं राहुल गांधी अब जो कह रहे हैं, वह उन्होंने पहले क्यों नहीं किया? जवाब राहुल गांधी ही दे सकते हैं. लेकिन असली सवाल में एक डर भी छिपा है, क्या राहुल गांधी अपने यही तेवर कायम रख पाएंगे या फिर गुजरात के चुनाव खत्म होते ही एक बार फिर लंबी छुट्टी पर चले जाएंगे?

अध्यक्ष पद संभालने के बाद राहुल गांधी पर कांग्रेस को फिर से मजबूत बनाने की बड़ी चुनौती होगी

कांग्रेस पार्टी को अगर फिर से खड़ा करना है तो उसके शीर्ष नेता के रूप में राहुल गांधी को यह भरोसा दिलाना होगा कि नतीजा चाहे कुछ भी हो वो जमीन पर उतरकर संघर्ष करना नहीं छोड़ेंगे.

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं )