view all

रामजस विवाद: बयान बहादुरों को हेमवती नंदन बहुगुणा से सीख लेनी चाहिए

छात्र राजनीति पर बयान देने से पहले वरिष्ठ नेताओं को सौ बार सोचना चाहिए.

Ravishankar Singh

पिछले एक-दो सालों में केंद्र की मोदी सरकार के मंत्रियों ने जितना जवाब विपक्षी दलों के नेताओं के सवालों का न दिया होगा, उससे कहीं ज्यादा जवाब छात्र राजनीति करने वाले नौसिखिए छात्र नेताओं के सवालों और बयानों पर दे रहे हैं.

क्या वाकई देश में विश्वविद्यालयों की राजनीति करने वाले छात्र नेताओं के सवालों का जवाब केंद्र में बैठे वरिष्ठ मंत्रियों को देना चाहिए? अगर बयान देना भी चाहिए तो क्या निचले स्तर तक गिरकर देना चाहिए?


राजनेता ऐसे बयान दे रहे हैं, जिसमें उनकी राजनीतिक परिपक्वता की कमी साफ झलकती है.

छात्र राजनीति का नया दौर

केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद छात्र राजनीति एकाएक जीवंत हो गई है. देश में सड़क से लेकर संसद तक छात्र राजनीति के चर्चे सरेआम हो गए हैं.

क्या वाकई में मोदी सरकार की गलत नीतियों से छात्र राजनीति में उबाल आ गया है? सरकार के कुछ फैसलों जैसे स्कॉलरशिप नीति में बदलाव को छात्रों ने निगेटिव ले लिया है. इस नजरिए से देखें, तो व्यवस्था बदलने का मोदी सरकार का दावा कैंपस में आकर दम तोड़ देता है.

छात्र राजनीति में उबाल की वजह क्या है?

आखिर वह क्या वजह है जिससे देश की छात्र राजनीति में इस तरह के दिन देखने को मिल रहे हैं. रोहित वेमुला का मामला हो या कन्हैया कुमार का मामला या फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ऋचा सिंह का विवाद. कुछ ऐसे छात्र नेता पिछले साल मीडिया और सोशल मीडिया पर छाए रहे. जो छात्र कम, राजनीति ज्यादा कर रहे हैं. इन्हीं कुछ छात्रों की वजह से आज-कल फिर से विवाद शुरू हो गया है.

सोशल मीडिया पर छात्र नेताओं के जरिए मुद्दे को ऐसे पेश किया जा रहा है मानो देश में अघोषित आपातकाल लगा दी गई हो. मुद्दे ऐसे उछाले जा रहे हैं मानो देश की अखंडता और संप्रभुता खतरे में आ गई हो.

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद छात्र राजनीति में अचानक आए बदलाव के आखिर क्या मायने निकल सकते हैं?

ये भी पढ़ें: रामजस विवाद पर बोले उमर, सेमिनार का जवाब पत्थर नहीं है

बतौर प्रधानमंत्री मोदी मई में अपनी तीसरी सालगिरह पूरा करने जा रहे हैं. पिछले साल भी जब मोदी अपना दूसरा कार्यकाल पूरा कर रहे थे तो देश के कई प्रमुख विश्वविद्यालयों के छात्र संगठनों ने सरकार के विरोध में आवाज बुलंद कर रखा था. साल 2016 में देश के कई विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शन हुए.

नेताओं का बड़बोलापन आग में घी

साल 2016 में सबसे ज्यादा चर्चा हुई तो वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय की हुई. इलाहाबाद विश्वविद्यालय और जाधवपुर विश्वविद्यालय की भी चर्चा हुई. पर ये विश्विद्यालय जेएनयू या हैदराबाद विश्वविद्यालय की तरह लंबे समय तक सुर्खियों में नहीं बने रहे.

जेएनयू में जहां कुछ छात्रों पर राष्ट्र विरोधी नारे लगने के आरोप लगे तो नेताओं के बड़बोलेपन ने उसको और हवा दी.

जब जेएनयू विवाद चल रहा था तो उसी समय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने यह कहकर आग में घी में डालने का काम किया कि जेएनयू में नारे लगाने वाले का संबंध कुख्यात आतंकवादी हाफिज सईद से है.

राजनाथ सिंह के बयान के बाद जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ दिनों के बाद जेल से रिहा होते ही कन्हैया कुमार ने विवाद को ऐसे मोड़ दे दिया कि मोदी सरकार छात्रों के बीच एकाएक खलनायक दिखने लगी.

हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी के बाद सरकार ने इस मामले को भी ठीक से हैंडल नहीं कर पाई. सरकार ने जिस तरह से इस मामले को निपटने की कोशिश की, उससे सरकार की काफी किरकिरी हुई. उस समय की मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने ऐसे बयान दिए, जिससे मामला शांत होने के बजाए और उबल गया.

ये भी पढ़ें: रामजस विवाद: जेएनयू विवाद के रिप्ले जैसी लग रही है यह कहानी

साल 2017 में भी इतिहास एक बार फिर दोहराने जा रहा है. फिर से राजनीतिक नेताओं के बयानबाजी से मामला सुलझने के बजाए उलझता जा रहा है.

हम अगर जेपी आंदोलन की बात को छोड़ दें तो पिछले कुछ सालों में शायद ही ऐसे मौके आए होंगे, जब छात्र राजनीति की धमक राजनीतिक पार्टियों के धमक से ज्यादा दिखाई देता पड़ रहा हो.

जेपी आंदोलन और हेमवंती नंदन बहुगुणा की नीति

जेपी आंदोलन के 13 साल बाद देश के एक वरिष्ठ पत्रकार ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हेमवती नंदन बहुगुणा से यह सवाल पूछा कि आखिर क्या वजह थी कि बिहार से सटे होने के बावजूद जेपी आंदोलन बिहार से सटे उत्तर प्रदेश में उतना पनप नहीं पाई जितना बिहार में पनपी.

इस सवाल के जवाब में हेमवती नंदन बहुगुणा ने जो बाते कहीं उनसे अभी सत्ता में बैठे हुए लोग समझना चाहें तो समझ सकते हैं.

हेमवती नंदन बहुगुणा ने कहा कि जिस तरह से बिहार में जेपी

आंदोलन को जनसमर्थन मिल रहा था, उससे उनके मन भी यह आशंका थी कि यह आंदोलन यूपी में भी तेजी से फैल सकता है. जयप्रकाश नरायण ने इसके लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय का दौरा कर छात्रों को संबोधित भी किया था.

हेमवती नंदन बहुगुणा को जब जेपी की लखनऊ आने की खबर मिली तो उन्होंने अपने अधिकारियों की एक बैठक बुलाई. बहुगुणा ने बैठक में अधिकारियों को सख्त हिदायत दी की छात्र चाहे मेरे कार्यलय में ही क्यों न घुस जाएं. पुलिसबल के द्वारा किसी भी तरह का बलप्रयोग नहीं होना चाहिए.

अगर पुलिस ने किसी भी एक छात्र पर एक भी लाठी चलाया तो उत्तर प्रदेश में छात्र आंदोलन खड़ा होने से कोई नहीं रोक सकता. साथ ही अधिकारियों को चेतावनी दी कि अगर एक भी लाठी चली तो संबंधित पुलिस वालों की भी खैर नहीं.

ये भी पढ़ें: बिहार-यूपी के मुख्यमंत्री जिन्होंने कभी नहीं मांगा अपने लिए वोट

जेपी जब लखनऊ पहुंचे तो बहुगुणा खुद अगवानी करने पहुंचे. जेपी के स्वागत में गैरकांग्रेसी नेता भी पहुंचे थे. लेकिन ये नेता जेपी से मिल पाते उससे पहले ही बहुगुणा ने जेपी के पास जाकर उनका पैर छू लिया. इतना ही नहीं बहुगुणा ने जेपी से कहा कि आप हमारे राजकीय अतिथि हैं. आपके आने-जाने से लेकर ठहरने तक की सारी व्यवस्था सरकार करेगी. आप मेरे साथ राजकीय अतिथिशाला में चलिए.

उस वरिष्ठ पत्रकार से बहुगुणा ने बाद में कहा कि अगर पुलिस एक भी लाठी चला देती तो उत्तर प्रदेश में जेपी आंदोलन को खड़ा होने से कोई नहीं रोक सकता था.

इसलिए मोदी सरकार को भी सोचना चाहिए कि ऐसे मुद्दों पर विचार रखने से पहले मंत्रियों को सौ बार सोचना चाहिए. विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति में छात्रों का एक भावनात्मक लगाव होता है. पिछले साल चार विश्वविद्यालयों में हुए घटनाक्रम को देखते हुए भी अगर सरकार ने सीख नहीं ली तो परिणाम बड़े भयावह हो सकते हैं.