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राजस्थान चुनाव 2018: थर्ड फ्रंट की भूमिका निभाने वाले निर्दलीयों ने भी बनवाई बड़े दलों की सरकार

राजस्थान में एक दौर था जब जनता पार्टी या जनता दल समेत कुछ छोटे दल तीसरे मोर्चे के रूप में देखे जाते थे, लेकिन साल 1993 से अब तक तीसरे मोर्चे की भूमिका निर्दलीय प्रत्याशी ही निभाते आए हैं

Shubham Sharma

राजस्थान के चुनावी रण में सभी दल अपनी रणनीति तैयार करने में लगे हैं. मुख्यत: यहां दो दलों के बीच में ही कड़ा मुकाबला रहता है. इस राज्य में एक बार आप और एक बार हम वाली स्थिति रहती आई है, मतलब एक बार कांग्रेस तो एक बार बीजेपी. यूं तो राजस्थान में और भी बहुत से दल हैं जो इस दंगल में अपना दाव खेलते हैं. मगर आज तक उनको कोई खास फायदा होते दिखाई नहीं दिया. इस तथ्य के बावजूद चुनावी युद्ध में ऐसे योद्धा भी होते हैं जो अपने दम पर ही चुनावी मैदान में कूदते हैं. राजनीतिक भाषा में उन्हें निर्दलीय कहा जाता है. हालांकि बहुत से निर्दलीय चुनाव के बाद किसी न किसी दल का दामन थाम लेते हैं, मगर राजस्थान में निर्दलीयों का इतिहास कुछ रोचक तथ्य भी बताता है.

तीसरे मोर्चे की भूमिका निभाते निर्दलीय


राजस्थान में एक दौर था जब जनता पार्टी या जनता दल समेत कुछ छोटे दल तीसरे मोर्चे के रूप में देखे जाते थे, लेकिन साल 1993 से अब तक तीसरे मोर्चे की भूमिका निर्दलीय प्रत्याशी ही निभाते आए हैं. ऐसा नहीं है कि इस बीच तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशें नहीं हुई. जब-जब छोटे दलों को तीसरा मोर्चा खड़ा करने का मौका मिला तो वे निर्दलीय प्रत्याशियों के सामने कमतर ही साबित हुए. वहीं अगर सीटों के हिसाब से बात की जाए तो भी ये दल निर्दलीयों से पीछे ही रहे हैं. नतीजतन हर चुनाव परिणाम के बाद या तो छोटे दल बड़े दलों में मिल जाते या फिर अगले चुनाव तक अपना जनाधार बढ़ाने के संघर्ष में लगे रहते.

कब-कब और कितनी बार तीसरे नंबर पर रहे निर्दलीय

साल 1993 में जनता दल के कमज़ोर पड़ने के बाद से प्रदेश में कोई भी दल तीसरे मोर्चे के रूप में आज तक खड़ा नहीं हो पाया. और यहीं से शुरू हुआ निर्दलियों के तीसरे नंबर पर रहने का सिलसिला. उस समय करीब 13 फीसदी वोट शेयर के साथ 21 सीटों पर निर्दलीय काबिज हुए. वहीं पहले पायदान पर आने वाली बीजेपी को 38.6 फीसदी वोट के साथ 95 सीटें मिली. तो दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस जिसने 38.3 फीसदी वोट और 76 सीटें मिली.

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1998 के विधानसभा चुनावों में निर्दलियों का वोट शेयर तो बढ़ा मगर सीटें कम हो गई. तब निर्दलीय प्रत्याशियों को वोट शेयर में करीब डेढ़ प्रतिशत इज़ाफे के साथ 14.4 फीसदी वोट मिले. लेकिन सीटें सिर्फ सात मिली. वहीं 45 फीसदी वोट और 153 सीटों के साथ कांग्रेस पहले नंबर पर रही और 33.2 फीसदी वोट और 33 सीटों के साथ बीजेपी दूसरे नंबर पर. कम सीटों के बावजूद भी निर्दलीय इस बार भी तीसरे पायदन पर ही रहे.

वहीं 2003 के चुनावों में 13 सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की. 11.37 फीसदी वोट के साथ निर्दलियों ने तीसरे नंबर पर खूंटा गाड़ा. इस बार पहले नंबर पर बीजेपी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही. बीजेपी को इस चुनाव में 120 सीटें मिली तो वहीं 56 सीटों के साथ कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा.

साल 2008 के चुनावों की बात करें तो निर्दलियों को इसबार 15 फीसदी वोट मिले. 14 सीटें जीतकर एक बार फिर से तीसरे नंबर पर निर्दलीय ही काबिज रहे. इसबार कांग्रेस पहले नंबर पर तो बीजेपी का दूसरा नंबर रही. कांग्रेस के खाते में 96 सीटें गईं तो वहीं बीजेपी को 78 सीटें मिली.

2013 के चुनाव में निर्दलियों का वोट शेयर काफी घटा. 8.4 फीसदी वोट के साथ निर्दलियों को मात्र 7 सीटों पर ही जीत हासिल हुई. हालांकि इतने कम वोट शेयर और सीट के बाद भी निर्दलीय तीसरे पायदान पर ही रहे. वहीं 163 सीटों के सात सत्ता हासिल करने वाली बीजेपी पहले नंबर पर रही. तो महज़ 21 सीटों पर सिमटी कांग्रेस दूसरे नंबर पर.

तीन बार निर्दलियों के दम पर बनी सरकार

राजस्थान की राजनीति में निर्दलियों की खास भूमिका देखने को मिलती है. जहां वो पिछले 25 सालों से तीसरे नंबर पर रहते आए हैं. तो वहीं तीन बार ऐसे भी मौके आए हैं जब राज्य में निर्दलियों के दम पर बड़े-बड़े दलों की सरकार बनी है. वैसे तो राजस्थान में पहले तीन विधानसभा चुनावों में निर्दलियों का सबसे ज्यादा बोलबाल रहा है. लेकिन इनकी सबसे अहम भूमिका साल 2008, 1993, और 1967 के चुनावों में रही. जब किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने के कारण सरकार बनाने के लिए निर्दलियों का सहारा लेना पड़ा. इसमें से दो बार 2008 और 1967 में कांग्रेस और 1993 में बीजेपी की सरकार निर्दलियों ने बनवाई.

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1993 के चुनावों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था, लेकिन बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. तब बीजेपी की तरफ से भैरोंसिंह शेखावत ने जनता दल और निर्दलियों को साथ लेकर सरकार बनाई थी.

कुछ ऐसा ही साल 2008 के चुनावों में हुआ जब किसी दल को बहुमत नहीं मिला. तब ज्यादातर निर्दलियों ने अशोक गहलोत को समर्थन दिया और अल्पमत वाली कांग्रेस की सरकार बनवाई. इसके बदले निर्दलियों ने सरकार में मंत्री और संसदीय सचिव के पद पाए.

राजस्थान में निर्दलियों की कहानी से एक बात तो साफ होती है. निर्दलियों ने जहां अपनी ताकत के दम पर पार्टियों को परेशानी में डाला है. तो वहीं मौका मिलने पर सत्ता सुख भोगने में भी पीछे नहीं रहे हैं. अब देखना होगा कि क्या इसबार भी निर्दलीय तीसरे नंबर पर बरकरार रहेंगे और अगर हां तो कितनी वोट कितनी सीटों के साथ.