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राजस्थान: जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र ने छोड़ी बीजेपी, 'फूल की भूल' के बाद थामेंगे कांग्रेस का हाथ?

बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में से एक जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र ने पार्टी छोड़ दी है और कांग्रेस में जाने या न जाने को लेकर पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन उन्होंने ये जरूर कह दिया है कि कमल का फूल, मेरी सबसे बड़ी भूल

Mahendra Saini

राजस्थान में पहले से ही भंवर में उलझी बीजेपी की राह में एक और तूफान खड़ा हो गया है. बीजेपी के कद्दावर नेता रहे जसवंत सिंह जसोल के विधायक बेटे मानवेंद्र सिंह ने पश्चिम राजस्थान में अपनी ही पार्टी की राहों में कांटे बिछाने के खुले संकेत दे दिए हैं. मान मनोव्वल की तमाम कोशिशों के बावजूद बाड़मेर के पचपदरा में उन्होंने एक बड़ी स्वाभिमान रैली कर पार्टी नेतृत्व के खिलाफ खुलकर ताल ठोंक दी है. हालांकि मानवेंद्र ने अभी कांग्रेस में जाने या न जाने को लेकर पत्ते नहीं खोले हैं. लेकिन उन्होंने ये जरूर कह दिया है कि 'कमल का फूल, मेरी सबसे बड़ी भूल.'

स्वाभिमान रैली में मानवेंद्र के समर्थकों ने बीजेपी के खिलाफ जमकर नारे लगाए. लेकिन मानवेंद्र ने अगले कदम का फैसला स्वाभिमानी समूह पर छोड़ दिया और कहा कि जो इनकी राय होगी, वही कदम उठाया जाएगा. जबकि रैली से पहले तक उम्मीद लगाई जा रही थी कि वे बीजेपी छोड़ कर कांग्रेस जॉइन कर सकते हैं.


वैसे, मानवेंद्र सिंह की रैली में कांग्रेस के कुछ राजपूत नेताओं के आने की उम्मीद जताई जा रही थी. साथ ही अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे बीजेपी के असंतुष्ट नेताओं के भी शिरकत करने के कयास लगाए जा रहे थे. लेकिन इनमें से कोई भी नहीं पहुंचा.

पिछले कई दिन से मानवेंद्र सिंह और उनकी पत्नी चित्रा सिंह इस रैली के लिए पश्चिमी राजस्थान के गांव-कस्बों में न्योता दे रहे थे. मानवेंद्र फिर भी बीजेपी और पार्टी नेतृत्व के खिलाफ ज्यादा नहीं बोलते थे. लेकिन चित्रा सिंह हर मौके पर मुखर रही, खासकर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ. रैली के दौरान भी उन्होंने पार्टी नेतृत्व के लिए तानाशाह जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया.

मानवेंद्र को मनाने की कोशिशें भी हुई थी

मानवेंद्र और उनकी पत्नी ने बीजेपी के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली. लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें मनाने की कोशिशें नहीं कि गई. ये जरूर है कि ये कोशिशें तब जाकर शुरू हुई जब उन्होंने बगावती तेवर दिखाने शुरू किए. राजपूत समाज में समर्थन की खबरों के बाद इन कोशिशों को तेज किया गया.

केंद्रीय मंत्री और जोधपुर सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत ने मानवेंद्र को मनाने का प्रयास किया. शेखावत ने रैली न करने की अपील करते हुए बयान भी दिया कि मानवेंद्र को अगर कोई शिकायत है तो उसे पार्टी के मंच पर ही साझा करें. शेखावत ने उम्मीद भी जताई थी कि आखिर में उन्हें मना ही लिया जाएगा.

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रैली से चंद घंटे पहले शुक्रवार शाम को ही बाड़मेर जिलाध्यक्ष जालम सिंह रावलोत को हटाकर दिलीप पालीवाल को अध्यक्ष बनाए जाने के कदम को भी इसी से जोड़ कर देखा जा रहा था. रावलोत और मानवेंद्र सिंह में 36 का आंकड़ा बताया जाता है. जबकि पालीवाल मानवेंद्र के नजदीकी और ओम माथुर गुट के हैं. कुछ अपुष्ट खबरें ऐसी भी आ रही हैं कि खुद अमित शाह ने मानवेंद्र सिंह से बात की है. मानवेंद्र ने उनके सामने अपनी 3 मांगें रखी थी. इनमें बाड़मेर जिलाध्यक्ष को हटाने के अलावा शिव से अपनी पत्नी के लिए विधानसभा सीट और बाड़मेर से खुद के लिए लोकसभा टिकट मांगी थी.

नाराजगी की वजह क्या है?

मानवेंद्र सिंह कांग्रेस में जाएंगे या अपना अलग रास्ता बनाएंगे? इस सवाल को उन्होंने अभी कयास लगाने के लिए खुला छोड़ दिया है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि उनकी नाराजगी की वजह क्या है?

मानवेंद्र के पिता जसवंत सिंह जसोल बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं. वाजपेयी सरकार में वे वित्त और विदेश जैसे अहम मंत्रालय संभाल चुके हैं. एक समय वे अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे विश्वस्त सिपहसालार थे. आज भले ही वसुंधरा राजे उनसे अदावत रखती हों. लेकिन एक राज्य मंत्री से राजस्थान में नेतृत्व तक के राजे के प्रमोशन का श्रेय भैरों सिंह शेखावत और जसवंत सिंह जसोल को ही है.

लेकिन इन दिग्गजों ने वसुंधरा राजे को समझने में शायद कुछ वैसी ही भूल कर दी जैसी 1966-67 में इंदिरा गांधी को कांग्रेसी दिग्गजों ने 'गूंगी गुड़िया' समझने की गलती की थी. बाद में बात इतनी बिगड़ी कि भैंरों सिंह, जसवंत सिंह और राजनाथ सिंह वसुंधरा के खिलाफ हो गए. पर तब तक वसुंधरा ने राजस्थान में अपना विश्वस्त कैडर इस कदर तैयार कर लिया कि कोई उनका बाल बांका नहीं कर सके.

हालात ये हो गए कि 2014 में जसवंत सिंह का टिकट काट दिया गया. उनकी जगह कांग्रेस से बीजेपी में लाए गए उनके सबसे बड़े राजनीतिक शत्रु कर्नल सोनाराम को चुनाव लड़वाया गया. सोनाराम जाट हैं और पाकिस्तान से लगते इस इलाके में जाट-राजपूतों के बीच अक्सर शीत युद्ध जैसे हालात रहते हैं.

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खैर, मोदी लहर में जसवंत सिंह अपनी शान बरकरार नहीं रख सके और पिछले 4 साल में मानवेंद्र सिंह को भी विधायक होने के बावजूद पार्टी में अलग-थलग कर दिया गया. नाराजगी की सबसे बड़ी वजह यही है.

बीजेपी बैकफुट पर.. क्या हो पाएगी भरपाई?

जसवंत सिंह 2014 से ही बीमार हैं और अब उनकी राजनीतिक विरासत मानवेंद्र सिंह को ही संभालनी है. फिलहाल राज्य में बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ राजपूतों में नाराजगी भी बढ़ रही है. मानवेंद्र अब अपनी लगातार उपेक्षा और विरोधियों को तरजीह का बदला राजपूत नाराजगी को उभार कर लेना चाहते हैं. उनकी कोशिश है कि उनकी राजनीतिक लड़ाई को राजपूत बनाम वसुंधरा का रंग मिल जाए ताकि वे सहानुभूति हासिल कर सकें.

4 साल तक जसोल परिवार को उपेक्षित करने वाली बीजेपी के लिए अब सबसे मुश्किल घड़ी है. मेवाड़ संभाग में पहले ही रणवीर सिंह भींडर जनता सेना बना कर अपना दबदबा कायम कर चुके हैं. इनके दबदबे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वल्लभ नगर में मुख्यमंत्री की सभा मे भींडर ने बीजेपी का एक भी झंडा नहीं लगने दिया था.

अभी पिछले हफ्ते ही रावणा राजपूतों का एक प्रतिनिधिमंडल राहुल गांधी से मिलकर आया है. पूर्व केंद्रीय मंत्री और अलवर सांसद रहे भंवर जितेंद्र सिंह ने ये मुलाकात करवाई. राहुल ने समर्थन के बदले सरकार बनने पर आनंदपाल एनकाउंटर से जुड़ी सभी मांगों को मानने का ऐलान कर दिया. साफ है कि राज्य के करीब 7% राजपूत समाज मे बीजेपी और खासकर वसुंधरा राजे को लेकर गहरी नाराजगी है.

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बीजेपी के लिए राहत इसलिए भी नहीं है क्योंकि अपने कोर वोटर के छिटकने की भरपाई करने के लिए इस बार उसके पास कुछ भी नहीं है. सचिन पायलट गुर्जरों को पहले ही दूर ले जा चुके हैं और मदन लाल सैनी को अध्यक्ष बनाने के बावजूद सैनी वोटर पास आते नहीं दिख रहे हैं. 2014 की तरह एससी/एसटी वोटर्स का समर्थन भी इस बार दूर की कौड़ी लग रहा है. अब देखना ये है कि बीजेपी के चाणक्य अमित शाह क्या बिसात बिछाते हैं.