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राजस्थान: गहलोत और पायलट के मैदान में उतरने से कांग्रेस को फायदा होगा या नुकसान

सीएम पद पर सस्पेंस बरकरार रखना और दोनों ही नेताओं को चुनाव लड़वाने की रणनीति के नतीजे के लिए 7 दिसंबर तक इंतजार तो करना ही पड़ेगा.

Mahendra Saini

किसी शख्स के लिए तब कितनी विकट स्थिति हो जाती है जब रसगुल्ला सामने प्लेट में सजा रखा हो लेकिन उसे खा नहीं पा रहा हो. राजस्थान में इस समय कांग्रेस के लिए लगभग यही हालात हैं. सामने रखे आसान जीत के रसगुल्ले को भी पार्टी  उठाकर खाने का तरीका नहीं सोच पा रही है. अभी तक के ओपिनियन पोल और कांग्रेस से आ रही कलह की खबरें दोनों स्थितियों की तस्दीक करने के लिए काफी हैं.

कांग्रेस अपने इतिहास से सबक नहीं लेकर गलतियों को बारंबार दोहराने की फितरत भी नहीं छोड़ पा रही है. अब देखिए न, रविवार को स्क्रीनिंग कमेटी ने 150 उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार होने और सोमवार को जारी करने का ऐलान किया. इसके बावजूद इंतजार लंबा हो गया. बार-बार हर मंच पर राहुल गांधी से लेकर अशोक गहलोत और सचिन पायलट तक को बस एक ही सफाई देनी पड़ रही है कि हमारे यहां कोई फूट नहीं है, हम एक हैं. लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत ही है.


कलह से किनारा नहीं कर पा रही पार्टी

अभी 2 दिन पहले ही खबर आई कि टिकट फाइनल करने के लिए बुलाई गई मीटिंग में प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी में बड़ी झड़प हो गई. हालात यहां तक पहुंच गए कि पायलट ने राजनीति छोड़ने की धमकी दे दी. बताया जा रहा है कि डूडी ने भी उन्हे कल की बजाय आज ही संन्यास की दो-टूक सलाह दे डाली. मध्य प्रदेश में भी ऐसी ही नौबत आई थी. लेकिन वहां की तरह यहां भी कलह की खबरों को बेबुनियाद बता दिया गया.

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अब अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों ने ही विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर दिया है. यूं तो लोकतंत्र में सबको चुनाव लड़ने का अधिकार है और फिर गहलोत-पायलट तो राजस्थान में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं. लेकिन हैरानी की बात ये है कि पहले बिना पूछे ही बड़े नेताओं के चुनाव लड़ने का बार-बार खंडन किया जा रहा था.

क्या इसलिए नहीं लड़ना चाहते थे पायलट ?

पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस और इसके नेताओं ने दर्जनों बार जोर देकर कहा कि उनके बड़े नेता (कम से कम गहलोत और पायलट) चुनाव नहीं लड़ेंगे बल्कि पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने का काम करेंगे. फिर अब वे कौन सी वजह हैं कि इन्हे चुनावी मैदान में उतरने को मजबूर होना पड़ा है.

हालांकि बड़े नेताओं के चुनाव न लड़ने के बयान अधिकतर पायलट गुट से ही आते रहे थे. ऐसा क्यों है, इसका इशारा पायलट गुट के एक नेता ने एक बार अनौपचारिक बातचीत में दिया था. ये इशारा गहलोत की जादूगरी की ओर था. राजनीतिक मैदान के खिलाड़ी जानते हैं कि 2008 में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार प्रो. सी.पी. जोशी कैसे सिर्फ एक वोट से हारकर जिंदगी की सबसे बड़ी सफलताओं में से एक से महरूम रह गए थे. 2018 में अब पायलट गुट को भी यही डर सता रहा है.

अंदेशा है कि अगर सचिन पायलट चुनाव लड़ते हैं तो हो सकता है वे अपनी सीट पर ही सिमट कर रह जाएं. ऐसे में वे चुनाव हार गए तो मुख्यमंत्री बन ही नहीं पाएंगे और जीत भी गए तो उन्हे इस बात का जवाब देना मुश्किल होगा कि अपनी सीट पर ही फंस कर रह जाने वाला शख्स क्या मुख्यमंत्री बनने की क्षमता रखता है?

दूसरी तरफ, गहलोत के लिए ऐसी कोई मुश्किल नहीं है. 40 साल से भी ज्यादा पुरानी राजनीति के बाद आज उनकी परंपरागत सीट (सरदारपुरा, जोधपुर) पर उनको इतनी सहूलियत है कि वे बिना मैदान में गए भी जीत हासिल कर लें.

गहलोत के लिए चुनाव की क्या मजबूरी ?

बड़ा सवाल ये है कि राष्ट्रीय महासचिव जैसे बड़े पद के बावजूद गहलोत विधायकी के चुनाव को क्यों महत्व दे रहे हैं. राष्ट्रीय महासचिव के पद को कांग्रेस में अघोषित रूप से नंबर 3 की पोजीशन माना जाता है. पिछले दिनों जोधपुर में एक समारोह में गहलोत ने कहा भी था कि सीएम बनने जैसी बात अब इतनी बड़ी नहीं रह गई है क्योंकि वे जिस पद पर पहुंच गए हैं वह मुख्यमंत्री बनता नहीं बल्कि बनाता है. फिर अब वे चुनावी जंग में क्यों उतर गए हैं ?

इसके पीछे दो वजह हैं. पहली वजह तो मुख्यमंत्री पद ही है. लगता है गहलोत का मन दिल्ली में रम नहीं रहा है. वे पहले भी राजस्थान नहीं छोड़ना चाहते थे. उनकी उम्र अब 70 साल के करीब है. हो सकता है कि वे 2023 में सक्रिय राजनीति से संन्यास की सोच रहे हों. इसलिए उनकी कोशिश है कि वे रिटायर हों तो मुख्यमंत्री के पद से.

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पिछले दिनों उन्होने अपने एक समर्थक के पूछने पर कहा था कि उन्हें मालूम है कांग्रेस में मुख्यमंत्री कैसे बनते हैं. आप तो बस कांग्रेस को जिताओ. 1998 में वे बिना विधायक बने ही मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने में कामयाब रहे थे (बाद में वे सरदारपुरा से चुनाव जीते थे). लेकिन उन्हें मालूम है कि इस बार विधायक दल में एंट्री किए बिना दावेदारी कितनी मुश्किल हो सकती है. इसीलिए उनकी कोशिश है कि जब मुख्यमंत्री का नाम तय किया जाए तो वे विधायक दल में मौजूद हों.

दूसरी वजह ये भी हो सकती है कि तमाम राजनीतिक कौशल के बावजूद वे अभी तक अपनी विरासत स्थापित नहीं कर पाए हैं. अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत भी राजनीति में हैं लेकिन अभी तक वे स्थापित नहीं हो पाए हैं. हो सकता है कि अपने रिटायरमेंट से पहले वे बेटे को सक्रिय राजनीति में स्थापित करना चाहते हों, जो कि एक मुख्यमंत्री के लिए ज्यादा आसान हो सकता है.

कांग्रेस नेताओं में है असुरक्षा की भावना

तस्वीर: अशोक गहलोत के फेसबुक से

इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान कांग्रेस की मौजूदा राजनीति में किसी को 'मास लीडर' कहा जाए तो वे सिर्फ गहलोत ही हैं. एक राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक जाति से आने के बावजूद गहलोत ने  ऐसा वजूद स्थापित किया है जिसकी काट किसी के पास नहीं है. ये उनका राजनीतिक कौशल ही था कि 1998 में परसराम मदेरणा जैसे ताकतवर नेता और उन्हें राजनीतिक रूप से शक्तिशाली जाट जाति के समर्थन के बावजूद मुख्यमंत्री वे बने. 2008 में भी अल्पमत के बावजूद कांग्रेस सरकार बनाई.

सचिन पायलट के उदय के बाद भी जमीनी स्तर पर वे मास लीडर बने रहे हैं. बेशक युवाओं के बीच सचिन कम असरदार अपील नहीं रखते हैं. लेकिन राहुल गांधी के समर्थन के बावजूद सचिन पायलट हमेशा से गहलोत से इनसिक्योरिटी फील करते रहे हैं. कौन बनेगा मुख्यमंत्री के सवाल पर गहलोत गुट भी सचिन से असुरक्षा महसूस करता है. शायद यही कारण है कि दोनों गुटों के बीच पिछले कुछ साल से लगातार शह और मात का खेल जारी है.

पायलट गुट जानता है कि गहलोत के रहते वे राजनीतिक क्षितिज को नहीं छू सकेंगे. इसीलिए पायलट गुट ने अपनी जड़े जमाने के लिए कई दांव पेंच आजमाए हैं. गहलोत को पंजाब, गुजरात और कर्नाटक जैसे कठिन टास्क दिए जाने को भी इन्ही दांव-पेंचों से जोड़ कर देखा जाता है. लेकिन गहलोत हर चुनौती के बाद और ज्यादा चमक के साथ उभरे हैं.

पायलट को आगे करने से पलट सकती है बाजी

राजस्थान में माना जाता है कि सचिन पायलट पर राहुल गांधी का हाथ है. लेकिन जमीनी हकीकत ऐसी है कि सचिन पायलट को चेहरा बनाने में कांग्रेस को संशय है. इसकी कई वजह हैं. पहली तो ये कि सचिन को स्वीकार करने में जनता को अभी समय लगेगा. लोग पायलट को उस तराजू में तौलते हैं, जिसके एक पलड़े में गहलोत बैठे हैं. जाहिर है, संतुलन की अवस्था आनी अभी बाकी है.

दूसरी वजह है सचिन पायलट का बाहरी होना. पायलट मूल रूप से राजस्थान के नहीं हैं. वे उत्तर प्रदेश के नोएडा से आते हैं. 80 के दशक में उनके पिता नोएडा से आकर दौसा की संसदीय सीट पर स्थापित हुए थे. हालांकि पायलट परिवार को राजस्थान की राजनीति में 30 साल हो चुके हैं. लेकिन जनता का एक बड़ा वर्ग अभी तक उन्हे अपनाने से हिचक रहा है.

जनता के एक वर्ग में उनकी जाति को लेकर भी हिचकिचाहट है. सचिन गुर्जर समुदाय से हैं. राजस्थान में गुर्जर जाति को 'मार्शल कौम' कहा जाता है. जबकि गहलोत की जाति को शांत जाति की संज्ञा दी जाती है. पूर्वी राजस्थान में गुर्जर-मीणा प्रतिद्वंद्विता भी आम है. सवर्ण जातियों में गुर्जर नेतृत्व को लेकर एक संशय के से हालात है. जयपुर जिले में ही कोटपूतली और विराटनगर जैसी सीटें ऐसी हैं जहां हर बार वोटिंग गुर्जर बनाम गैर गुर्जर के मुद्दे पर होती है.

फिर जिस तरह से इन दिनों सोशल मीडिया पर पायलट के समर्थन में कैंपेनिंग हो रही है, उसने भी दूसरी जातियों में हलचल मचा दी है. इन मैसेज में कुछ लोग दावा कर रहे हैं कि एक हजार साल बाद राजस्थान में गुर्जरों की सत्ता आ रही है (पूर्व मध्यकाल के गुर्जर प्रतिहार वंश से जोड़ा जा रहा है). जबकि विरोधी उन गुर्जर युवा नेताओं की लिस्ट वायरल कर रहे हैं जिन्हें उग्र बैकग्राउंड के बावजूद पिछले कुछ महीनों में 'प्रमोट' किया गया है.

क्या कांग्रेस का दांव सही है?

ना-ना, हां-हां करते-करते आखिर गहलोत और पायलट ने चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. लेकिन जनता के बीच ये नकारात्मक असर छोड़ सकता है. राजनीतिक रूप से जागरुक कुछ लोगों ने इसकी तुलना सांप-छुछूंदर की हालत से की है. लोगों का कहना है कि कांग्रेस गहलोत और पायलट की लड़ाई में उलझ कर रह गई है. शायद पार्टी तय नहीं कर पा रही है कि कौनसा फैसला उसके लिए मुफीद है और कौनसा नुकसानदायक.

हो सकता है कि पार्टी ने किसी एक के नाम की घोषणा से खतरा ज्यादा पैदा हो जाने का अंदाजा लगाया हो. आखिर इस विषय पर लोगों की राय भी बंटी हुई है. कई लोगों की राय है कि गहलोत का नेतृत्व घोषित कर दिया जाए तो पार्टी आसानी से जीत हासिल कर लेगी. वही, कई लोगों ने पायलट की युवाओं के बीच अपील को असरदार बताया है. बहरहाल, सीएम पद पर सस्पेंस बरकरार रखना और दोनों ही नेताओं को चुनाव लड़वाने की रणनीति के नतीजे के लिए 7 दिसंबर तक इंतजार तो करना ही पड़ेगा.