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राजस्थान: मंदिर-मस्जिद में 'दर्शनदौड़' और सवाल विकास पर

ये अच्छी बात है कि हिंदूवादी नारों, जातिवादि सवालों और प्रधानमंत्री की मां या पिता तक पर भद्दी टिप्पणियों के बाद थोड़ी विकास की बात उठी तो सही

Mahendra Saini

मेरे एक अजीज मित्र ने मुझे मैसेज किया- क्या आपको पता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले 4 में साल में सिर्फ दूसरी बार राम मंदिर पर बोले हैं और दोनों ही मौके चुनाव प्रचार के रहे हैं. मैं चौंका क्योंकि अकसर राम मंदिर से जुड़ी खबरों को कम से कम मैं दिलचस्पी से नहीं पढ़ता हूं. मेरा खयाल है कि हर दो-चार दिन में इससे जुड़ी खबरें मीडिया में दिख जाती हैं. मुझे इनमें कुछ नयापन नहीं दिखता इसलिए मैं इन खबरों को बिन देखे आगे बढ़ जाता हूं.

मेरी दिलचस्पी न होने की एक वजह ये भी है कि राम मंदिर का मुद्दा हमेशा बीजेपी घोषणा पत्र में होने के बावजूद सत्ता में आने के बाद इस पर चुप्पी साध ली जाती है. लेकिन बीजेपी के बड़े नेताओं के इस मुद्दे पर लगभग शांत रहने के बाद भी कुछ दिन से ये मुद्दा लाइमलाइट में आ गया है. सुप्रीम कोर्ट के इसे तत्काल सुनवाई के लायक न समझने, विश्व हिंदू परिषद की धर्म सभा और शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे की अयोध्या यात्रा के बाद अब पहली बार मोदी इस मुद्दे पर आक्रामक हुए हैं.


राम मंदिर पर खुलकर आए मोदी

अलवर से अपनी चुनावी सभाओं की शुरुआत कर मोदी ने कई संयोगों को फिर एक ताने-बाने में बुन दिया है. इन संयोगों से पहले मंदिर मुद्दे पर मोदी के आक्रामक तेवरों की बात कर लेते हैं. प्रधानमंत्री ने कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल का बिना नाम लिए शुरुआत की और अपने तीर सीधे राहुल गांधी (आजकल वे इन्हें नामदार कहते हैं) पर साधे. मोदी ने कहा कि नामदार मंदिर-मंदिर घूमने का ड्रामा करते हैं, जबकि उनके नेता सुप्रीम कोर्ट में मंदिर मामले की सुनवाई न करने की अर्जी लगाते हैं.

मोदी ने कहा कि सत्ता जाने के बाद भी रौब कायम रखने के लिए कांग्रेस जजों को महाभियोग का डर दिखाती है. बांसवाड़ा-डूंगरपुर जैसे आदिवासी इलाकों में अपनी रैली में भी मोदी ने राहुल के सॉफ्ट हिंदुत्व पर ही वार किया. मोदी के मुताबिक वे कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करने के बावजूद ये नहीं बता पाते कि कैलाश क्या है.

अलवर में राम मंदिर का मुद्दा एक रणनीति के तहत ही उठाया गया लगता है. अलवर मेवात इलाका है जहां मेव मुसलमानों के वोट बड़ी संख्या में हैं. 2013 की मोदी लहर में यहां से एक भी मुस्लिम नहीं जीत पाया था. हालांकि पार्टी ने इस बार उग्र हिंदुत्ववादी ज्ञानदेव आहूजा और बी एल सिंहल के रामगढ़ और अलवर शहर से टिकट काट दिए. लेकिन पार्टी की कोशिश यहां फिर से ध्रुवीकरण की ही है. दूसरे, 2013 में भी मोदी ने अलवर से ही प्रचार की शुरुआत की थी और उनकी आंधी में सभी चित हो गए थे. अब एक बार फिर वे वही संयोग दोहराना चाहते हैं.

रैलियों के चुनाव पर भी धार्मिक रंग

राजस्थान में स्टार प्रचारक के तौर पर इस बार मोदी के बाद सबसे ज्यादा डिमांड योगी आदित्यनाथ की है. योगी हार्डकोर हिंदुत्व के पैरोकार माने जाते हैं. पार्टी की रणनीति इस बार हिंदुत्व के मुद्दे को पूरी तरह भुनाने की है. इसीलिए योगी की रैलियां चुन-चुन कर उन शहरों-कस्बों में ज्यादा रखी गई हैं जहां मुस्लिम मत ज्यादा हैं.

योगी ने जैसलमेर के पोकरण में सभा की है. यहां न सिर्फ मुस्लिम वोट अच्छी खासी संख्या में हैं बल्कि कांग्रेस के उम्मीदवार भी सिंधी मुसलमानों के धर्मगुरु गाज़ी फकीर के बेटे सालेह मोहम्मद हैं. दूसरी ओर बीजेपी ने भी यहां से हिंदू महंत प्रताप पुरी को मैदान में उतारा है. इससे पहले योगी सीकर के फतेहगढ़ और रतनगढ़, नागौर के मकराना जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में रैली कर चुके हैं. इन सीटों पर कायमखानी मुस्लिमों की बहुतायत है.

बीजेपी ने इस बार 200 में से सिर्फ एक मुस्लिम उम्मीदवार बनाया है. वो भी सचिन पायलट को शिकस्त देने के लिए आखिरी पलों में तय किया गया. हालिया घटनाक्रमों से भी साफ है कि पार्टी 2019 तक हिंदुत्व को दूसरे सभी मुद्दों से ज्यादा तरजीह देगी. हालांकि एक इंटरव्यू में अध्यक्ष अमित शाह ने राम मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने जैसे कदमों से इनकार किया है. उन्होंने इस मामले में कोर्ट के फैसले का सम्मान करने की बात कही है.

राहुल की रणनीति ही तय नहीं!

बीजेपी से उलट, राहुल गांधी ने अपनी नीति में थोड़ा बदलाव किया है. हालांकि कुछ विश्लेषक ये राय भी जाहिर कर रहे हैं कि इमेज बदलने के चक्कर में वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि वोट किससे मिलेंगे- मुस्लिम तुष्टिकरण से, सॉफ्ट हिंदुत्व से या धर्म निरपेक्षता से.

गुजरात और कर्नाटक के चुनाव में उन्होने पार्टी नेताओं की सलाह पर मस्जिदों और दरगाहों में जाने से परहेज किया. गुजरात में पिछले 15 साल में ये पहली बार था जब पूरे प्रचार के दौरान कांग्रेस ने एक बार भी गोधरा का जिक्र तक नहीं किया. इसके बजाय वे मंदिर-मंदिर खूब घूमे. हालांकि ये परिक्रमा उन्हे सत्ता तक नहीं पहुंचा पाई.

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अपने स्टैंड से हटकर हिंदुत्व की ओर बढ़ना उन्हें आलोचकों के निशाने पर ले आया. लिहाजा, अब राजस्थान में वे एकबार फिर नीति बदल रहे हैं. अजमेर में उन्होने ख्वाजा साहब की दरगाह में जियारत की और इसके तुरंत बाद पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर में पूजा-अर्चना भी की. इसके बाद वे पोकरण में सालेह मोहम्मद के प्रचार के लिए पहुंचे.

लेकिन राहुल के भाषण निराश ही करते हैं. उनमें कुछ नयापन नहीं है. भाषणों में वही मुद्दे हैं जिन्हे पिछले कुछ महीनों से वे लगातार दोहरा रहे हैं. शायद राफेल मुद्दे को वे तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक ये बोफोर्स जैसा फायदा न दिला जाए. विजय माल्या और नीरव मोदी के अलावा वे किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा भी लगातार उठा रहे हैं.

उनके नजदीकी लोगों को उन्हे बताना चाहिए कि आजादी के बाद पहली बार अब धन शोधन, दिवालिया कानून और भगोड़ों के खिलाफ कानूनों को सख्त किया गया है. राजस्थान में भी 2 महीने पहले ही 29 लाख किसानों के 50 हजार तक के लोन माफ किए जा चुके हैं.

विकास के मुद्दे पर मोदी के सवाल

प्रधानमंत्री मोदी ने राम मंदिर की सुरसुराहट जरूर छोड़ी लेकिन अलवर के बाद डूंगरपुर में वे विकास के मुद्दे पर लौट आए. मोदी ने सवाल किया कि राहुल गांधी डूंगरपुर आए तो यहां मोबाइल फोन पर मेड इन डूंगरपुर लिख देने का दावा कर गए. लेकिन घोषणा पत्र में कांग्रेस ने ये वादा ही नहीं किया. मोदी ने पूछा कि क्या इसका ये मतलब नहीं समझा जाए कि खुद कांग्रेस ही उन्हे सीरियस नहीं लेती.

मोदी ने कहा कि अब कांग्रेस गरीब, किसान और आदिवासी के लिए आंसू बहाने का दिखावा करती है. लेकिन 60 साल सत्ता में रहने के दौरान उन्होने कुछ ऐसा नहीं किया कि गरीबी खत्म हो जाती. न ऐसी नीतियां बनी कि किसान को कर्जदार न होना पड़े. यहां तक कि आदिवासी मंत्रालय भी आजादी के बाद पहली बार वाजपेयी सरकार के समय ही बना.

मोदी ने दावा किया कि किसानों की आय बढ़ाने के लिए उनकी सरकार ने समर्थन मूल्य को डेढ़ गुना तक बढ़ा दिया है. मोदी ने आरोप लगाया कि गांधी-नेहरू परिवार की 4 पीढ़ियां न हर घर में शौचालय दे पाईं, न हर हाथ में फोन और न हर जेब को अकाउंट नंबर.

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बहरहाल, ये अच्छी बात है कि हिंदूवादी नारों, जातिवादि सवालों और प्रधानमंत्री की मां या पिता तक पर भद्दी टिप्पणियों के बाद थोड़ी विकास की बात उठी तो सही. भारतीय लोकतंत्र तभी परिपक्व कहा जाएगा जब चुनावी राजनीति में वोट ओछी बातों पर नहीं बल्कि काम के आधार पर मांगे जाएं. मतदाता का भी इतना जागरुक होना जरूरी है कि वो जातिवादी, धार्मिक या निजी आरोप-प्रत्यारोप से प्रभावित हुए बिना विकास के मुद्दे पर अपना मत दे.