जोधपुर से जैसलमेर के 250 किलोमीटर के हाइवे पर निकलिए. थार रेगिस्तान से गुजरते हुए कुछ गांवों के नाम आपका ध्यान जरूर खींचेंगे. जैसे बाप, चाचा, कुडी, झूठा, गेलावास, लाठी, ढेचू और सुअर. कहा जाता है कि ये नाम ब्राह्मणवादी सोच के षड्यंत्र का नतीजा है. जब यहां के पढ़े-लिखे लोग आम लोगों के ग्रुप को बेइज्जत करने की कोशिश करते थे, तो इस तरह के नाम देते थे. दुर्भाग्य से ये नाम अटक गए और रिकॉर्ड्स में भी चढ़ गए.
कुछ गांव वालों ने ऐतिहासिक गलतियों को सुधारकर ग्लोबल होने का फैसला कर लिया. ऐसे ही एक गांव का नाम बदलकर रखा गया अमेरिका. इस गांव का पहले जो नाम था, उसे लिखा या छापा नहीं जा सकता.
बाप रे बाप! ऐसा नाम
ये ऐसा इलाका है, जहां के नाम रोचक हैं. लेकिन राजनीति की चर्चा और रोचक और षड्यंत्र से भरी है. पहले बीजेपी बनाम कांग्रेस, उसके भीतर जाएं, तो जाट बनाम राजपूत, मुस्लिम बनाम मेघवाल...बदले की कहानियां भी सुन लीजिए. मानवेंद्र सिंह बनाम वसुंधरा राजे. बाड़मेर-जैसलमेर की राजनीति ऐसी है, जिसमें हर तरह के मसाले हैं.
भारत के चंद इलाकों में ये एक है, जहां उच्च वर्ग जैसे ब्राह्मण या वैश्य अल्पसंख्यक हैं. इन दो जिलों में मुख्य तौर पर राजपूत, मुस्लिम, जाट और मेघवाल (अनुसूचित जाति) का प्रभुत्व है. कारण सीधा-सादा है. यहां रहना मुश्किल है. ऐसे में वही रह सकते हैं, जो खेतों में या पशुपालन में कड़ी मेहनत करें. बाकियों के लिए इस इलाके में रहना मुश्किल है.
इन समुदायों का बोलबाला
लगभग हर चुनावों में इन चारों समुदायों में, यानी मुस्लिम, राजपूत, जाट और मेघवाल में ही कोई विजेता निकलता है. अगर कोई तीन साथ हों, तो वे क्लीनस्वीप करवा सकते हैं. अगर बराबरी में बंटे हों तो नजदीकी मुकाबला हो सकता है. ऐसा ही 2018 के विधानसभा चुनावों में दिखाई दे रहा है.
बाड़मेर-जैसलमेर में नौ विधानसभा सीटें हैं. इन सभी में हरेक वोट के लिए इन्हीं चारों समुदायों में जंग है. ऐसे में ज्यादातर सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस के लिए जीत के अच्छे मौके हैं. इस नजदीकी टक्कर में जाति की राजनीति को लेकर शानदार ड्रामा देखने को मिल रहा है.
जसवंत सिंह को हाशिए पर भेजने के बाद बीजेपी मारवाड़ के जाटों को खुश करने की कोशिश कर रही है. उसे चौंकाने का काम ‘तीसरे खिलाड़ी’ स्थानीय जाट हैवीवेट हनुमान बेनीवाल ने किया. उनके पास जाट वोटर्स की काफी तादाद है.
जाटों को खुश करने की कोशिश
कांग्रेस ने देखा कि बीजेपी जाटों को खुश करने की कोशिश कर रही है, तो उसने विपक्षी राजपूतों को पकड़ने का जतन किया. उसने जसवंत सिंह के बेटे और उस इलाके के सबसे प्रभावशाली राजपूत परिवार के नेता मानवेंद्र सिंह को अपनी तरफ किया.
लेकिन राजपूत पूरी तरह बीजेपी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं दिख रहे. बीजेपी से दशकों पुरानी निष्ठा ऐसे ही छूटती नहीं दिखा रही. कांग्रेस के लिए परेशानी की बात यह भी है कि पार्टी को राजपूतों की तरफ झुकते देख कुछ जाटों ने भी उनसे पल्ला झाड़ लिया है.
कुल मिलाकर बीजेपी ने जाटों को आकर्षित करने की कोशिश की. लेकिन वे ‘बेवफाई’ करते हुए बेनीवाल से जुड़ गए. कांग्रेस ने राजपूतों को खुश करने की कोशिश की, लेकिन वे वापस बीजेपी से जुड़ गए. ऐसे में दोनों पार्टियां नतीजों को लेकर चिंतित हैं.
जाति ही राजा है!
इस इलाके में जाति ही राजा है. यहां पर नतीजे के लिए एक ही फैक्टर है, जाति का गणित. कांग्रेस के खिलाफ एक फैक्टर यह भी काम कर रहा है कि जाट पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को वापस नहीं आने देना चाहते.
बीजेपी की कोशिश है कि जाति और हिंदुत्व दोनों मामलों पर ध्यान दे. इसीलिए नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह और अमित शाह को मुख्य क्षेत्रों में भेजा गया है, ताकि हिंदुत्व और राजपूतों का ध्यान रखा जा सके. इसी बीच मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपनी ऊर्जा जाट वोटर्स पर लगा रही हैं.
खास बात यह है कि बीजेपी के कैंपेन में मुख्यमंत्री के नाम पर वोट मांगने से बचा जा रहा है. मोदी अपनी उपलब्धियां गिनाकर वोटर्स से सहयोग की अपील कर रहे हैं. साथ ही नामदार और राग दरबारी की धज्जियां उड़ाने का काम कर रहे हैं.
अपने 30 मिनट के चुनाव प्रचार में उन्होंने महज एक या दो बार राजे का नाम लिया, वो भी अंत में. यह साफ संकेत है कि बीजेपी एंटी इनकंबेंसी से घबराई हुई है. अगर बदलाव का मूड बरकरार रहता है, तो राजस्थान में बदली हुई सरकार नजर आ सकती है.
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