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पीएम पद की उम्मीदवारी भले ही दूर लेकिन विपक्षी एकता का ब्रांड जरूर बन रहे हैं राहुल

भले ही राहुल गांधी साल 2019 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के सामने नहीं टिकें लेकिन राहुल ने एक चुनौती पेश कर उस खाली-स्थान को जरूर भर दिया है जिसका नीतीश कुमार ने जिक्र किया था

Kinshuk Praval

संसद के शीतकालीन सत्र के छठे दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जैसे ही संसद के भीतर जाते हैं कि अचानक उन्हें कर्जमाफी के सवालों पर मीडिया घेर लेता है. लेकिन राहुल बिना हिचक या फिर लाग-लपेट के अचानक बोल पड़ते हैं – ‘देखा..हो गया न… काम शुरू हो गया न?’ राहुल का ये सहज और त्वरित रिएक्शन मीडियाकर्मियों के लिए सरप्राइज था और वो भी मुस्कुरा कर रह गए क्योंकि राहुल का ऐसा अंदाज शायद ही पहले कभी देखा गया हो.

राहुल इतना बोलकर मुस्कुराते हुए संसद के भीतर चले गए. लेकिन वो एक जवाब के साथ ही कई तंज भी छोड़ गए. बाद में उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने छिपे तंज का इत्मीनान से खुलकर खुलासा किया. उन्होंने केंद्र सरकार पर किसानों की कर्जमाफी को लेकर कई हमले किए. दावा किया कि जो काम कांग्रेस ने 6 घंटे में कर दिखाया वो मोदी सरकार साढ़े चार साल में नहीं कर पाई. यानी 70 साल बनाम 5 साल की जंग को राहुल गांधी अब घंटों में बदलना चाहते हैं.


दरअसल, राहुल का ये आत्मविश्वास 3 राज्यों में मिली चुनावी जीत का असर है. जीत के जोश से लबरेज राहुल की ‘बॉडी-लैंग्वेज़’ बदल चुकी है. अब वो बीजेपी पर हमला करने के लिए रणनीतियों में ज्यादा धार देने में जुटे हुए हैं. लेकिन साथ ही उन्हें विपक्षी एकता का झंडा भी उठाना है.

बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने में जुटे राहुल को बड़ा समर्थन तमिलनाडु में मिला. चेन्नई में पूर्व सीएम एम करुणानिधि की मूर्ति के अनावरण के मौके पर डीएमके सुप्रीमो स्टालिन ने पीएम पद के उम्मीदवार के लिए राहुल गांधी का नाम प्रस्तावित किया. स्टालिन का कहना है कि प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी को पेश करना दरअसल धर्म निरपेक्ष ताकतों के लिए सही है. डीएमके सुप्रीमो स्टालिन को राहुल में अमर-अकबर-एंथोनी दिखाई दे रहे हैं तभी उन्होंने जोश में होश खोते हुए राजनीति के समीकरणों और नतीजों के बारे में एक पल भी नहीं सोचा.

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नतीजतन स्टालिन के 'स्टाइल' से टीएमसी और बीएसपी-एसपी भले ही असहज हो गए लेकिन विपक्ष के दूसरे दल अब कांग्रेस के झंडे तले इकट्ठे होना शुरू हो गए हैं. विपक्ष भी ये जानता है कि बिना कांग्रेस के समर्थन के साल 2019 में  संभावित सरकार में सहयोगी बनने का सपना नहीं देखा जा सकता है.

विपक्ष की राजनीति के केंद्र में पहले बीजेपी-विरोध होता था और बीजेपी को सांप्रदायिक पार्टी बताकर सत्ता में आने से रोकने की कोशिश की जाती थी. धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर बीजेपी की एनडीए सरकार कभी 13 दिन तो कभी 13 महीनों में गिरा दी जाती थी लेकिन समर्थन नहीं दिया जाता था. वही विपक्ष अब बीजेपी-विरोध के बाद मोदी-विरोध के नाम पर एकजुट हो रहा है.

भले ही इस कारवां में यूपीए के पुराने सहयोगी भी शामिल हों लेकिन नए चेहरे भी मौका भांप कर एन्ट्री मार चुके हैं. टीडीपी चीफ चंद्रबाबू नायडू जो कभी एनडीए के संयोजक हुआ करते थे वो आज पीएम मोदी के खिलाफ महागठबंधन के संयोजन में जुटे हुए हैं क्योंकि आंध्र को विशेष दर्जे की मांग पर दौड़ती उनकी सियासत पर मोदी सरकार ने ब्रेक लगा दिए थे.

मोदी-विरोध की राजनीति पर आश्रित दलों के लिए कांग्रेस की जीत बड़ी राहत है. शपथ-ग्रहण में शामिल हर चेहरा चाहे वो  चंद्रबाबू नायडू, तेजस्वी यादव, फारूक अब्दुल्ला और शरद यादव हो, वो मोदी-विरोध की एक निजी वजह भी जरूर रखता है और यही टीस उसके राहुल के नेतृत्व को मंजूर करने की वजह भी मानी जा सकती है.

कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के वक्त जब राहुल ने कहा कि सत्ता में आने  पर वो पीएम की दावेदारी पेश कर सकते हैं तब सवाल उस विपक्ष की एकता पर उठे जो लोकसभा चुनाव से पहले ऐसे किसी भी फॉर्मूले से सहमत नहीं दिखता है. खुद एनसीपी चीफ शरद पवार ने कहा था कि चुनाव बाद ही पीएम पद की उम्मीदवारी तय होगी. लेकिन अब पवार भी राहुल के नेतृत्व को भीतर से स्वीकार कर चुके हैं.

दरअसल, विपक्षी दलों में क्षत्रपों की कमी नहीं और उनके समर्थक अपने नेताओं में ‘पीएम मैटेरियल’ देखते हैं. देखा जाए तो यही विपक्ष ही विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा है. किसी न किसी मौके पर किसी का रूठना तो किसी का कार्यक्रम से गायब रहना ये बता ही देता है कि ये राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर  वो कितने गंभीर हैं.

डीएमके चीफ स्टालिन के बयान पर तृणमूल कांग्रेस तिलमिला सी गई. टीएमसी का कहना है कि पीएम उम्मीदवार चुनाव बाद तय होगा. वहीं मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सीएम की ताजपोशी के कार्यक्रम से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने दूरियां बनाई रखीं. सवाल उठता है कि आखिर राहुल की पीएम उम्मीदवारी को लेकर विपक्ष इतना असहज क्यों हो जाता है? कांग्रेस भी विपक्षी दलों के मुखियाओं के भीतर की बेचैनी को महसूस करती है तभी अब पीएम पद की उम्मीदवारी पर गुलाम नवी आजाद कह रहे हैं कि ये चुनाव बाद का मसला है जो बाद में ही तय होगा. साफ है कि कांग्रेस चाहती है कि विपक्ष किसी भी शंका-आशंका के फेर में बिदके नहीं और महागठबंधन में आ जाए.

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दरअसल, कांग्रेस के लिए महागठबंधन का सीधा मतलब ये है कि उसे लोकसभा चुनाव में राज्यों में बीजेपी के अलावा दूसरे दलों से चुनौती नहीं मिले. इस रणनीति के तहत कांग्रेस का ही चुनाव में फायदा होगा. अगर एनडीए के सामने 272 के जादुई-आंकड़े को जुटाने में स्थिति प्रतिकूल हुई तो कांग्रेस विकल्प के तौर पर विपक्षी एकता के बूते दावा पेश कर सकेगी और उस दावे में पीएम पद की दावेदारी पहले से ही ‘संलग्न’ होगी.

बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार ने कहा था कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी को चुनौती देने वाला दूर-दर तक कोई नहीं है. लेकिन अब राहुल गांधी विपक्ष का ब्रांड बनकर उभरे हैं और उनके खाते में अध्यक्ष बनने के बाद चार राज्यों की सरकारें हैं. भले ही राहुल गांधी साल 2019 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के सामने नहीं टिकें लेकिन राहुल ने एक चुनौती पेश कर उस खाली-स्थान को जरूर भर दिया है जिसका नीतीश कुमार ने जिक्र किया था.

जयपुर में शपथ-ग्रहण स्थल तक जाने के लिए एक बस का इस्तेमाल किया गया था. इस बस में पूर्व पीएम मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, शरद पवार समेत तमाम नेता मौजूद थे. इस बस को विपक्षी एकता का प्रतीक बताते हुए गठबंधन ट्रैवल्स का नाम दिया गया. पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के साथ राहुल गांधी बैठे तो एनसीपी क्षत्रप शरद पवार भी फ्रंट सीट पर ही बैठे. ये ‘सिटिंग-अरेंजमेंट’ बताने के लिए काफी है कि अगर साल 2019 में गठबंधन ट्रैवल्स को सरकार चलाने का परमिट मिल गया तो ड्राइविंग सीट पर कौन होगा.