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प्रधानमंत्री का पद और फिल्मी डायलॅागबाजी

प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर जिस तरह व्यंग्य से हमला किया, वह उनकी पद की गरिमा के अनुरूप नहीं था

Suresh Bafna

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीति में अपनी आक्रामक बल्लेबाजी के लिए जाने जाते हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने अपनी वाकपटुता से मनमोहन सरकार व कांग्रेस पार्टी को रक्षात्मक बल्लेबाजी के योग्य नहीं छोड़ा था.

यह अपेक्षा करना गलत नहीं था कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी अपनी चुनावी आक्रामकता को छोड़कर गंभीर राजनेता बनने की कोशिश करेंगे.


लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान संसद में विपक्षी दलों व नेताअों के खिलाफ जारी उनकी आक्रामकता इस बात का प्रमाण है कि वे अभी भी विपक्षी होने की मानसिकता से पूरी तरह ग्रस्त है.

पद की गरिमा के विपरीत बयान

राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर जिस तरह व्यंग्य के माध्यम से हमला किया, वह उनकी पद की गरिमा के अनुरूप नहीं था.

अपनी विवादास्पद टिप्पणी के संदर्भ में मोदी का बचाव यह था कि 'डॉ. मनमोहन सिंह ने भी नोटबंदी पर राज्यसभा में कहा था कि यह जनता की खुली लूट और डकैती है. ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने के पहले 50 बार सोचना चाहिए था. डॉ. सिंह ने जब यह कहा है तो उनको जवाब सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.'

संसद में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

यह सही है कि डॉ. मनमोहन सिंह को लूट और डकैती शब्दों का इस्तेमाल तभी करना चाहिए था, जब उनके पास ठोस सबूत होते. नोटबंदी के निर्णय पर हर किसी को विरोध करने का अधिकार है, लेकिन हवाई आरोप लगाने का अधिकार नहीं है.

राहुल गांधी व अरविंद केजरीवाल ने भी आरोप लगाया था कि नोटबंदी 8 लाख करोड़ रुपए का घोटाला है, लेकिन अभी तक ऐसा कुछ सामने नहीं आया है.

कई बार हुआ है संसद में अभिव्यक्ति आजादी का दुरुपयोग

संसद में सांसदों को यह विशेषाधिकार मिला है कि वे कोई भी बात खुलकर कह सकें. संसद में की गई किसी भी टिप्पणी को आधार बनाकर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है.

इस वजह से सांसदों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने इस अधिकार का दुरुपयोग न करें. यदि कोई गलत आरोप लगाया जाता है तो सांसदों की विशेषाधिकार समिति ही इस पर विचार कर सकती है.

भारतीय संसद का इतिहास यह बताता है कि अभिव्यक्ति की आजादी को दुरुपयोग की सीमा तक स्वीकार करने में हमारे बड़े नेताअों को कभी कोई दिक्कत नहीं हुई.

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यदि किसी सांसद ने कभी सीमा का उल्लंघन किया तो उसे नजरअंदाज करना ही बेहतर समझा गया. पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने इस तरह के मामलों को हंसी में टालने की खास शैली विकसित कर ली थी. नरसिंह राव की खामोशी ही उनका जवाब होता था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी पार्टी के सांसदों ने बोफोर्स के संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को संसद में कई बार 'चोर' कहकर संबोधित किया था.

वाजपेयी से सीखें मोदी

आज भी यह सिद्ध नहीं हुआ है कि बोफोर्स मामले में राजीव गांधी ने रिश्वत खाई थी. फिर कारगिल युद्ध के संदर्भ में वाजपेयी सरकार को विपक्षी दलों ने 'कफनचोर' तक कह दिया था, लेकिन वाजपेयी जी ने व्यंग्य की भाषा में विपक्ष को जवाब देना जरूरी नहीं समझा था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फेसबुक पेज से साभार.

विपक्ष के नेता यदि सदन में कोई आपत्तिजनक आरोप भी लगाते हैं तो प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह शालीनता की परिधि में रहकर ही उसका जवाब दें. प्रधानमंत्री मोदी के साथ दिक्कत यह है कि वे विपक्ष के हर राजनीतिक आरोप को व्यक्तिगत स्तर पर लेकर उसका जवाब देने की कोशिश करते हैं.

मनमोहन सिंह सरकार के कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे, इसीलिए देश की जनता ने लोकसभा में पूर्ण बहुत देकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया है.

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प्रधानमंत्री के तौर पर मोदीजी की जिम्मेदारी है कि वे भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिलवाए. डा. मनमोहन सिंह को भ्रष्टाचार के कटघरे में खड़ा करके मोदीजी आत्मसुख जरूर प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन इससे देश का या उनकी पार्टी का कोई भला नहीं होनेवाला है.

यह समझ से परे है कि प्रधानमंत्री मोदी विपक्षी दलों के साथ संसद में टकराव की मुद्रा में खड़े होकर क्या प्राप्त करना चाहते हैं? संसद में विपक्ष को साथ लेकर कैसे बेहतर सरकार चलाई जा सकती है, यह बात वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजेपयी से सीख सकते हैं.

विपक्ष के साथ उनके रिश्ते इतने अच्छे थे कि वे किसी मुद्दे पर विपक्षी नेताअों को आंदोलन करने का सुझाव देने की क्षमता रखते थे.

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