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सियासत का नये खेल में मोदी, शाह और प्रशांत किशोर ही हैं असली खिलाड़ी!

अब भावी राजनेताओं को ‘लोकल पावर और ग्लोबल इमेज’ का खेल खेलना होगा

Satyaki Roy and Pankaj Singh

यह बात तय है कि 2014 से पहले आरएसएस के चीफ मोहन भागवत और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह की जब भी भेंट हुई उनके बीच रणनीतिक बातों पर चर्चा हुई होगी. बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी है और इस पार्टी की विचारधारा का व्याकरण आरएसएस से तय होता है.

आरएसएस कभी भी चुनावी रणनीति का एक्सपर्ट नहीं रहा. ऐसे में किसी के मन में यह सवाल उठ सकता है कि अमित शाह और मोहन भागवत के बीच जब चर्चा चलती होगी तो दोनों में किसकी बात ज्यादा वजनी मानी जाती होगी.


चाहे मोहन भागवत की बात का वजन ज्यादा रहता हो या अमित शाह का लेकिन एक बात पक्की है. नरेंद्र मोदी को पार्टी ने सिर्फ प्रधानमंत्री पद का ही उम्मीदवार नहीं बनाया. पार्टी ने उन्हें अपनी पूरी की पूरी सत्ता-संरचना ही सौंप दी.

अमित शाह और उनकी टीम को अपनी मर्जी के मुताबिक टिकट बांटने के अधिकार दिए गए हैं और आरएसएस का पूरा नेटवर्क चुनाव के काम में जोत दिया गया है. इसके बाद से नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को हटाया है और बिना इस बात का खयाल किए कि बीते वक्त में कौन, किस पार्टी से जुड़ा रहा है उसे टिकट दिया है.

अगर हम हाल के यूपी चुनाव में टिकट के बंटवारे पर गौर करें तो साफ दिखता है कि इस प्रक्रिया के पीछे किसी विचारधारा का जोर नहीं था. टिकट बांटने की एकदम ही नई रीत अपनाई गई और जोर सिर्फ जीत पर रहा.

जैसे-जैसे चुनाव अपने अगले चरण की ओर बढ़ता गया अमित शाह की सीट जीतने को लेकर भविष्यवाणी बदलती गई. पहले उन्होंने अनुमान लगाया था कि 250 सीटें मिलेंगी लेकिन छठे चरण के चुनाव के आस-पास कहा कि पार्टी तकरीबन 300 सीटें जीतेगी.

मोदी-शाह की जोड़ी

शाह की एक अहम रणनीति पहले से मौजूद पावर-नेटवर्क को पूरे सूबे में इस्तेमाल करने की रही. जाति को धुरी बनाकर बने छोटे-छोटे दल लंबे समय से प्रतिरोध की राजनीति कर रहे थे.

ऐसी पार्टियों जैसे कि सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी या अपना दल को चुनाव की प्रक्रिया में बीजेपी ने अपने साथ कर लिया. इन दल के प्रत्याशिओं को टिकट दिए गए और ऐसी पार्टियों में मौजूद गुस्से का चुनाव में बड़ी चतुराई से इस्तेमाल किया गया.

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को एक कुशल रणनीतिकार माना जाता है

कई मामले ऐसे रहे जिनमें बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस तथा अन्य दलों के उम्मीदवार और कार्यकर्ता बड़ी संख्या में बीजेपी के पाले में आ गये. जीत के मकसद से इन्हें भी चुनाव में जोत दिया गया. पडरौना विधानसभा सीट से ओबीसी में शुमार कुर्मी जाति के स्वामी प्रसाद मौर्य बीजेपी के टिकट से जीते. वे पहले बीएसपी में थे.

बीजेपी के टिकट से बरौली विधानसभा सीट से जीतने वाले दलवीर सिंह पहले आरजेडी में थे. कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आयी रीता बहुगुणा लखनऊ कैंटोनमेंट सीट से जीतीं, ब्रजेश पाठक ने बीएसपी छोड़कर बीजेपी के टिकट से लखनऊ सेंट्रल सीट से जीत हासिल की.

एक अन्य उम्मीदवार दारा सिंह चौहान बीजेपी के टिकट से मधुबन की सीट से जीते. ये पहले बीएसपी में थे. एनसीपी के फतेह बहादुर सिंह ने बीजेपी का दामन थामा और कैम्पियरगंज की सीट से विजयी रहे.

ये लोग और इनके जैसे कुछ और नेता बीजेपी में आये तो अकेले नहीं आये. ये नेता अपने साथ समर्थक और कार्यकर्ता लेकर आये. यहां एक अहम बात यह भी याद रखने की है कि जो लोग अपनी पहली पार्टी छोड़कर बीजेपी में आये उनमें सबको टिकट मिल गया हो, ऐसी भी बात नहीं.

मिसाल के लिए मंजू सिंह बलिया से 2007 से 2012 के बीच बीएसपी की विधायक रहीं. लेकिन उन्हें बीजेपी का टिकट नहीं मिला. इस सीट से बीजेपी के प्रत्याशी आनंद की जीत हुई. वे आरएसएस के कार्यकर्ता हैं और पहली बार चुनाव लड़ रहे थे.

दलबदलुओं की तूती 

सहयोगी दलों के साथ भी गणित एकदम एकदम साफ था. अनुप्रिया पटेल के अपना दल (सोनेलाल) ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर 9 सीटें जीतीं. सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने बीजेपी गठबंधन के लिए चार सीटें जीतीं. इस पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर जहूराबाद से जीते. राजभर जाति की गिनती ओबीसी में की जाती है.

इस पैटर्न से विचलन के उदाहरण के जरिए रणनीति को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. चूंकि, गणित के हिसाब से बीजेपी को राजभर समुदाय के वोट हर हाल में चाहिए थे सो पार्टी को ओमप्रकाश के बेटे अरविन्द राजभर को बांसडीट विधानसभा क्षेत्र से टिकट देना पड़ा.

इस सीट से बीजेपी के नेता केतकी सिंह को टिकट मिलने की उम्मीद थी. केतकी सिंह स्वतंत्र उम्मीदवार के रुप में चुनाव लड़े और सीटे से विजयी रहे. समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी से उन्हें थोड़े ही कम वोट मिले. वे दूसरे स्थान पर रहे, अरविन्द राजभर वोटों के मामले में तीसरे पर रहे.

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टिकट देने के मामले में सुधार की बात यहीं खत्म नहीं होती. एक मामला सुरिन्दर सिंह का है जो स्कूल टीचर हैं और अपने इलाके में बहुत मशहूर हैं. बीजेपी ने उन्हें बैरिया विधानसभा से चुनाव लड़ने का टिकट दिया.

अगर हम गहराई से देखें तो साफ नजर आता है कि बीजेपी ने राजनीति और जाति के चौहद्दी के भीतर उन उम्मीदवारों पर दांव लगाया जिनके जितने की संभावना सबसे ज्यादा थी.

मोदी का चुनाव प्रचार और आरएसएस के मौजूदा नेटवर्क की बात कह इन अलग-अलग और बिखरे पड़े उम्मीदवारों को आश्वस्त किया गया कि हमारी पार्टी के भीतर आपका भविष्य सुरक्षित है.

नरेंद्र मोदी और श्रीकांत वर्मा

इन नेताओं को एक तो बीजेपी के पाले में आने से अपने स्थानीय एजेंडे को आगे बढ़ाने का मौका मिला साथ ही वे इस बात को लेकर भी बहुत जोश में दिखे कि मोदी जी के काम में कुछ योगदान हम भी कर रहे हैं.

बीते दशक से मोदी की छवि बड़े जतन से एक ऐसे नेता के रुप में बनायी गई है जो जरूरी जान पड़ने पर कड़े कदम उठा सकता है भले ही इससे उसकी लोकप्रियता पर आंच आने की आशंका हो. इस छवि का चुनावी प्रक्रिया पर अच्छा-खासा असर रहा है.

वोटर के सामने विकल्प था कि उसे दो में से किसी एक को चुनना है, चाहे तो वह करिश्मे से भरपूर मोदी को चुने जो स्थानीय मुद्दों को भी तरजीह दे रहे हैं या फिर शोरगुल से भरे एक आधे-अधूरे गठबंधन को चुनें. विकल्प की इस स्थिति में मतदाता ने बड़ी संख्या में बीजेपी के पाले में वोट डाला.

ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ. समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने अपनी निजी छवि संवारने का काम बहुत देरी से किया और उनकी यह कोशिश बहुत बेतरतरीब भी दिखी.

बीएसपी के मायावती ने अपने को एक भरोसमंद विकल्प के तौर पर वोटर के आगे पेश करने के मामले में तकरीबन कुछ भी करना जरुरी नहीं समझा. और कांग्रेस के वारिस कहलाने वाले राहुल गांधी ने वह सबकुछ किया जिससे उनकी संभावनाओं को चोट पहुंचती हो.

मुख्यधारा की मीडिया और विद्वानों की टोली ज्यादातर मौकों पर भ्रम में दिखी और उसके व्याख्या-विश्लेषण गलत साबित हुए. यूपी के चुनावी नतीजे एसपी-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में नहीं थे तो इन नतीजों को देखते हुए मुख्यधारा की मीडिया और विद्वानों की टोली ने चुनावी रणनीति के माहिर प्रशांत किशोर को एकदम चूका हुआ करार दिया.

2014 के चुनावों में मोदी की छवि गढ़ने में प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका  थी. बिहार विधानसभा के चुनावों में लालू-नीतीश गंठबंधन और उनके चुनाव-प्रचार का व्याकरण तय करने और पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर सिंह की चुनावी रणनीति की तैयारी में भी प्रशांत किशोर अहम रहे.

प्रशांत किशोर ने ही सुझाव दिया था कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को चुनाव के लिए एक साथ होना चाहिए. कुछ रिपोर्टों में यह भी कहा गया है कि प्रशांत किशोर की टीम ने प्रियंका गांधी के साथ भी काम किया.

लेकिन अगर हम प्रशांत किशोर के काम को जरा नजदीक से देखें तो साफ हो जायेगा कि वे छवि गढ़ने की इस प्रक्रिया को अपने ग्राहकों और मीडिया की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से समझते हैं. कुछ खबरों की मानें तो प्रशांत किशोर ने यूपी के मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में शुरुआती तौर पर शीला दीक्षित का नाम सुझाया था.( उनके इस सुझाव को खारिज कर दिया गया).

चुनाव-प्रक्रिया के आगे बढ़ने के साथ प्रशांत किशोर के सुझावों को कांग्रेस का अप्रभावी नेतृत्व नकारता चला गया (मिसाल के लिए राज बब्बर जैसे नेता जिन्होंने खुलेआम प्रशांत किशोर को भला-बुरा कहा).

विचारधारा बनाम लोकल पावर

लेकिन प्रशांत किशोर को पता है कि चुनाव जीतने के लिए आपको उन नेताओं को आगे बढ़ाना पड़ता है जो वोटर की उम्मीदों को पंख लगा सकें, कुछ-कुछ वैसा ही जैसा कि मोदी के साथ हुआ है. मोदी ने नोटबंदी को जनता की त्याग की भावना से जोड़ दिया और कहा कि धनी लोगों को सबक सिखाने के लिए ऐसा त्याग करना जरुरी है.

अपना दल सोनेलाल गुट की प्रत्याशी अनुप्रिया पटेल

यह उनकी बड़ी रणनीति का हिस्सा था. इसके जरिए उन्होंने लोगों के मन में यह बात डाली कि वे राष्ट्र-निर्माण के बड़े काम में शामिल हैं. विपक्ष को पता ही नहीं चला कि दरअसल हो क्या रहा है और नरेन्द्र मोदी ने लोगों की पीड़ा को बीजेपी की जीत में बदल दिया.

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यह बात खास मायने नहीं रखती कि कैप्टन अमरिन्दर सिंह की जीत में प्रशांत किशोर ने कितनी बड़ी भूमिका निभायी. बड़ी संभावना इसी बात की है कि अकाली दल के समर्थकों की एक बड़ी तादाद ने पंजाब में अमरिन्दर सिंह को वोट डाला हो ताकि अरविन्द केजरीवाल को हराया जा सके.

केजरीवाल के नेतृत्व और कामकाज की शैली को बेतरतीबी का शिकार माना जाता है. प्रशांत किशोर ने अपने ट्वीट में आम आदमी पार्टी की सराहना की थी जिससे जाहिर होता है कि पार्टी के जमीनी काम को उन्होंने भी महत्वपूर्ण माना.

शायद अब आम आदमी पार्टी प्रशांत किशोर की ग्राहक बने. चुनाव-प्रक्रिया एक बहुत बड़ा खेल है और इस खेल को ठीक-ठीक समझकर सराहने वाले लोग थोड़े से हैं. प्रशांत किशोर इन्हीं चुनिन्दा लोगों में एक हैं और बहुत संभव है कि जल्दी ही फिर से मोर्चे पर दिखें.

भावी राजनेताओं को अगर चुनाव जीतना है तो उन्हें अपनी छवि बड़े जतन से गढ़नी होगी और अचरज की बात नहीं कि आने वाले दिनों में चुनावी रणनीति तय करने वाले कुछ और लोग मैदान में मोर्चा संभालते हुए दिखें.

मोदी और शाह की चुनावी रणनीति में हम जिन बातों को देखते हैं उसे कुछ इस तरह से कहा जा सकता है: इस जोड़ी ने पहले से चले आ रहे पावर बैंक और जाति-समूहों का इस्तेमाल किया और उसे चुनाव-प्रक्रिया का हिस्सा बनाया. मोदी की भारी-भरकम छवि से इस प्रक्रिया को गति और ऊर्जा मिली. मजेदार बात यह है कि इस काम में विचारधारा की भूमिका ना के बराबर रही.

सच बात यह है कि विचारधारा को किनारे करने के कारण ही बीजेपी को जीत मिली. पार्टी ने सिर्फ राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया और वह भी बड़े ढीले-ढाले रूप में इसका खास इस्तेमाल उकसावे के रुप में बस भाषणों में हुआ. ऐसे में बहुत संभव है कि बीजेपी को चुनाव जीतने के लिए मुस्लिम वोट की जरुरत ही नहीं पड़ी.

अगर मोदी और शाह अनूठे हैं तो इसलिए कि दोनों ने विकेंद्रीकरण या डिसेंट्रलाईजेशन को औजार बनाया और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदार छोटे-छोटे जाति समूहों को चुनाव-प्रक्रिया का हिस्सा बनाया.

यह बात विरोधाभासी लग सकती है कि पार्टी का नेता तो खूब मजबूत है तो भी पार्टी ने चुनाव-प्रक्रिया में विकेंद्रीकरण की राह अपनायी. लेकिन यही रणनीति मोदी के उभार की मुख्य वजह है.

मोदी ने अब दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्यों में बढ़ना और दलित वोटों को जुटाना शुरु कर दिया है और इसी कारण अब पुरानी पड़ चुके अकादमिक लेंस के सहारे राजनीतिक सच्चाई की व्याख्या करना बेकार है.

अब भावी राजनेताओं को ‘लोकल पावर और ग्लोबल इमेज’ का खेल खेलना होगा. अब हम शाह और प्रशांत किशोर की दुनिया में जी रहे हैं, धूल खा रहे और बेकार साबित हो चुके विचारधाराओं की महीनी के दिन लद गये.

(लेखकद्वय सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में रिसर्चर हैं. आलेख में धरुण कपूर का सहयोग शामिल).