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करणी सेना देश की जरूरत है, जायसी की आत्मा आज बहुत खुश होगी!

कांग्रेस वालों के पास भी एक प्रकार की करणी सेना थी जो एक समय नॉन फिक्शन किरदारों की रक्षा में काम करती थी

Puneet Sharma

आज तक जब भी किसी साहित्यिक रचना पर कोई फ़िल्म या नाटक बना है, लेखक और निर्देशक ने उसके शब्दों को और कभी-कभी उसकी आत्मा को भी बदला है. किंतु आजतक किसी साहित्य प्रेमी ने इतना बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं किया कि पूरी सरकार उसके आगे झुकी हुई नज़र आए. फ़िल्मकार उससे माफी मांगता और उसे सफ़ाई देता नज़र आए. हमें तो अपनी इस अकर्मण्यता पर शर्म आनी चाहिए थी लेकिन हम उल्टा इस क्रांति का झंडा बुलंद करने वाली करणी सेना को ही गलत साबित करने पर तुले हुए हैं.

कनस्तर के केकड़े हैं हम, जो हमारे कनस्तर से बाहर निकलने वाले लोगों की टांग खींच के, उन्हें भी इसी कनस्तर में मार जाने पर मजबूर कर देना चाहते हैं. जो लोग साहित्य जगत के इस क्रांति उत्सव से दूर हैं, उनकी जानकारी के लिए मैं बताना चाहता हूँ कि करणी सेना, एक साहित्य प्रेमी संस्था है. उसे मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य ‘पद्मावत’ से इतना प्रेम है कि वो उसके शब्दों में ज़रा भी अंतर नहीं होने देगी. करणी सेना, साहित्य प्रेम के लिए देश के कानून और सरकार दोनों को नाकों चबवाती फिर रही है. आज मलिक मोहम्मद जायसी की आत्मा फिर से किसी शरीर में प्रवेश करके नाचना चाहती होगी. करणी सेना के एक-एक सदस्य को गले लगाना चाहती होगी.


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जायसी की भी रक्षाकर रही है करणी सेना

मलिक मोहम्मद जायसी ने राजपूतों पर कविता लिखी और राजपूतों ने अपने कवि के शब्दों पर आंच नहीं आने दी. हम लोग किस मुंह से अपने आप को साहित्य प्रेमी कहते हैं? क्या हम कभी किसी साहित्यिक कृति के लिए इतना भावुक हुए हैं? नहीं. हम सिर्फ़ शब्दों तक ही सीमित रह जाते हैं. पूंजीपति पैसों के दम पर हमारे साहित्य से खिलवाड़ करते हैं और हम ज़्यादा से ज़्यादा उस पर एक लेख या आलोचना लिख देते हैं.

आप लोग चिल्लाते रहते हैं कि इस देश मे कवियों और कथाकारों की इतनी क्यूं इज़्ज़त नहीं है. अरे! कैसे होगी इज़्ज़त? क्या आपने कभी किसी साहित्यिक रचना के दुरुपयोग से आहत होकर किसी बस में आग लगायी है? कानून के दर पर नाक रगड़े बिना, किसी फ़िल्म या नाटक पर बैन लगवाया है? नहीं ना? तो बंद कीजिए साहित्य प्रेमी होने का ये ढोंग.

आपके कारण ही इस देश के कवि और कथाकार बुरी परिस्तिथियों में जीने पर मजबूर रहे. आप तो अपने स्वार्थ के लिए समाज को सुधारते रहे लेकिन करणी सेना ने अपने समाज के पिछड़ेपन का रत्ती भर भी दुःख नहीं किया. उनके इलाके के बच्चों के पास अच्छी शिक्षा सुविधाएं नहीं थी. वहां की महिलाओं के पास मूलभूत अधिकार नहीं थे. उनके इलाके मे स्वास्थ सुविधाओं के बुरे हाल थे लेकिन एक साहित्य प्रेमी होने के नाते उन्होंने इन सारी ज़मीनी परेशानियों पर ध्यान न देते हुए, एक साहित्यिक रचना के किरदार के गौरव की रक्षा के लिए आवाज़ तो उठायी ही, बल्कि हाथ भी उठाया और लात भी उठायी.

अक्सर हमारा समाज अपने कर्तव्यों से दूर भागता रहा है. उसे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से परहेज़ रहा है. फिर अगर उसने कभी आवाज़ उठाई भी, तो उसकी गूंज इतनी थी ही नहीं कि बहरे सुन सकें. ये समाज भगतसिंह का वो बयान भूल चुका है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत पड़ती है. मुख्यधारा का समाज, अपने रोज़मर्रा के दोहराव में ये बात भूल भी जाए तो ठीक है, लेकिन साहित्य जगत और उस साहित्य का प्रेमी ये बात कैसे भूल सकता है?

हर किसी को मिले एक करणी सेना

अगर हम पहले जाग जाते तो देवदास, मोहनदास जैसी रचनाओं का ऐसा हाल न होता. मगर हर समाज, चाहे वो साहित्यिक समाज ही क्यूं ना हो, उसकी क्रांति हमेशा किसी अनजाने कोने से आती हैं. उसके पुरोधा जब अपनी कुर्सियों के पाए चटका रहे होते हैं, तब कुछ लोग ज़ुल्म की गर्दन काटने के लिए ईनाम तय कर रहे होते हैं.करणी सेना, साहित्य की सबसे नयी धारा है. ये हर लेखक का स्वप्न है कि उसकी साहित्यक रचना को भी कोई करणी सेना मिले.

फ़िल्म जगत के लेखकों को भी अपनी एक करणी सेना चाहिए. जो अपने लेखकों के रचनात्मक अधिकार की रक्षा कर सके. ताकि ऐसा न हो कि लेखक लिखे कुछ और एक्टर बोले कुछ और. लेखक ने जिस संवाद को जैसे लिखा है अगर उसे वैसे ही न बोला जाए, तो ये करणी सेना अभिनेता की ज़बान काटने का फ़रमान जारी कर सकती है. इस तरह पूरे फ़िल्म जगत में लेखकों का खौफ़ पैदा होगा और खौफ़ से सम्मान प्राप्त करने की तो इस देश में लंबी परंपरा रही है. इस सम्मान से लेखकों के वेतनमान और रॉयल्टी जैसे मसलों में भी सुधार आएगा.

जो लोग ये आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस ने अपने 60 साल में एक भी अच्छी करणी सेना नहीं बना सकी. उन्हें मैं जवाब देना चाहता हूं कि मौजूदा सरकार ने जो काम प्राइवेट कंपनियों के भरोसे छोड़ रखा है, कांग्रेस ने वही काम, आर्थिक उदारीकरण के दौर से पहले, इमरजेंसी लगाकर सरकारी मशीनरी के ज़रिए किया था. बस अंतर यही था कि कांग्रेस की सरकारी मशीनरी किसी फ़िक्शन किरदार के हितों के बजाय नॉन फ़िक्शन किरदार के हितों के लिए काम कर रही थी. नॉन फ़िक्शन किरदारों की रक्षा का ज़िम्मा तो मौजूदा सरकार की तरह, कई सरकारों ने उठा लिया और कभी-कभी इसका क्रेडिट भी कांग्रेस को नहीं दिया, लेकिन मौजूदा सरकार ने प्राइवेट सेक्टर में जिस तरह की क्रांति उत्पन्न की है, वह अतुलनीय है.

गाय से लेकर गाथाओं तक हो करणी सेना

गाय से लेकर गाथा तक के अधिकारों की रक्षा के लिए देश मे सेनाएं जन्म ले रही हैं. उन्हें सरकारी संस्थाओं का सीधा समर्थन चाहे न मिले लेकिन वो फिर भी अपनी ज़मीन तलाश कर, नया इतिहास रच रही हैं.

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सरकार के ही कुछ परिश्रमी नेता और मंत्री भी अपने काम से अलग समय निकालकर, इस पावन क्रांति का हिस्सा बनते रहते हैं. मुझे विश्वास था कि सांस्कृतिक मोर्चे पर ये क्रांति गजब ढाएगी लेकिन जिस स्तर पर करणी सेना पहुंच चुकी है, साहित्य जगत को उसका दूसरा उदाहरण आज तक सिर्फ़ साहित्य की सबसे ऊंची धारा, धर्मग्रथों में ही देखने को मिला है. इस धारा में भी जो ऊंचाई इस्लाम ने पायी है, वो अप्रतिम है. हिंदू धर्म भी उस ऊंचाई की तरफ़ बढ़ने का लगातार प्रयास कर रहा है लेकिन वहां भी कुछ कनस्तर के केकड़े उनका पांव खेंच के उन्हें तार्किकता के कनस्तर में रहने को कहते हैं.

मेरे मस्तिष्क में भी एक ऐसी सेना के निर्माण का विचार कौंध रहा है, जो सारी भाषाओं के साहित्य ही नहीं, सारी कलाओं के अधिकारों की रक्षा करे. एक सेना, जो उनके अपमान पर ख़ुलकर देश के कानून और सरकार दोनों की धज्जियां उड़ा सके.

फ़िलहाल, जब तक उस सेना का जन्म नहीं होता, मैं अपनी कविताओं और बाकी रचनाओं को करणी सेना के दफ़्तर पोस्ट कर रहा हूँ ताकि आने वाले समय में ये साहित्यिक समाज चाहे मेरी कविताओं और रचनाओं के लिए आवाज़ उठाए न उठाए, करणी सेना उसके एक-एक शब्द के लिए लोगों के सर कलम कर दे.

(पुनीत शर्मा हिंदी सिनेमा के गीतकार हैं)