view all

कश्मीर सीरीज (पार्ट- 3): अर्श से फर्श पर पहुंची PDP, क्या सज्जाद लोन हैं कश्मीर के लोगों की नई पसंद?

पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की किस्मत आने वाले दिनों में बदलेगी, ये कहना फिलहाल अगर नामुमकिन नहीं तो थोड़ा मुश्किल ज़रूर लग रहा है

Sameer Yasir

(एडिटर्स नोट: जैसे-जैसे ये साल खत्म होने को है, वैसे-वैसे जम्मू-कश्मीर राज्य के जीवन का भी एक और उपद्रवी और अशांत साल भी खत्म होने की कगार पर है. इस मौके पर फ़र्स्टपोस्ट वहां से रिपोर्ट की गई रिपोर्ताज की श्रृंख़ला छापने जा रहा है, जिसमें ये बताने की कोशिश की जाएगी कि पिछले एक साल में ये राज्य कितना और कैसे-कैसे बदला है. साल 2018 में कश्मीर की धरती पर किस तरह के बदलाव आए हैं. इस सीरिज़ में ख़ासतौर पर नए दौर में पनपे आतंकवाद और घाटी के बदलते राजनीतिक परिदृश्य पर ख़ास ध्यान दिया जाएगा. इसके अलावा जम्मू कश्मीर के तीनों इलाकों के बीच हर दिन बढ़ती खाई भी इस रिपोर्ताज के केंद्र में होगी.)

कुछ समय पहले तक श्रीनगर के संपन्न गुपकर रोड में स्थित पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती के घर के बाहर कारों की लंबी कतार लगी रहती थी, लेकिन...अब वहां का नजारा काफी हद तक बदला हुआ है. अब महबूबा के घर के बाहर कोई भी कार अंदर जाने का इंतजार करती हुई नजर नहीं आती है, न ही उनसे मिलने आने वाले आगंतुकों की भीड़ ही नजर आती है. महबूबा मुफ्ती की सुरक्षा में तैनात किए गए सुरक्षाकर्मियों के पास भी अब काफी खाली समय होता है, वे लोग अब खाली वक्त में एक-दूसरे से गप करते हुए वहां से गुजरती हुई गाड़ियों को देखते रहते हैं. महबूबा के घर की तरह ही उनकी पार्टी पीडीपी का दफ्तर, जो घर से कुछ ही किमी की दूरी पर स्थित है वो भी वीरान रहने लगा है.


पार्टी कार्यकर्ता उनकी ताकत थे और वो उनकी

2018 की गर्मियों में जब बीजेपी ने कश्मीर की इस मुख्यधारा की पार्टी के, पैरों तले की कालीन खींच ली (सरकार से समर्थन वापस ले लिया), तभी से ये अफवाह शुरू हो गई थी कि ये पीडीपी के टूटने की शुरूआत है. विशेषज्ञों की राय है कि महबूबा मुफ़्ती में अपने पिता मुफ़्ती मोहम्मद सईद वाली बात नहीं है. उनमें अपने पिता की तरह सबको साथ लेकर चलने का हुनर नहीं है, लेकिन उनकी पार्टी के अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं का ये भी मानना था कि पीडीपी की वो अकेली ऐसी नेता हैं, जिनकी पार्टी के सभी सदस्यों के साथ अच्छे संबंध हैं.

वे जब भी प्रचार के दौरान गांव आती हैं, वे अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच जाकर बैठती हैं. वे उनके पतियों, बहनों, भाइयों और बच्चों को नाम से जानती हैं. कौन क्या काम कर रहा है और कितने लोगों को पत्थरबाजी के आरोप में हिरासत में लिया गया है ये सारी बातें उन्हें जबानी पता होतीं थीं. जो भी पार्टी सत्ता में हुआ करती थी, वे सब महबूबा का खौफ खाते थे. ऐसे ही एक कुख्यात डबल मर्डर और रेप की घटना में, जो साल 2009 में घटा था और जिसमें आसिया और निलोफर नाम की दो लड़कियों की जानें चली गईं थीं, महबूबा मुफ्ती ने खुद को शोपियां के पुलिस थाने में बंद कर लिया था. महबूबा मुफ्ती को भीड़ इकट्ठा करने और उन्हें उत्तेजित करने में महारत हासिल थी.

बीजेपी के साथ आने ने सबकुछ बदल दिया

पीडीपी का मतलब महबूबा मुफ्ती हुआ करता था और वो अपने कार्यकर्ताओं पर बहुत ज्यादा निर्भर थीं. वो अपने कार्यकर्ताओं से आसानी से मिला-जुला करती थीं और वे भी उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे. फिर चाहे वो कहीं धरना प्रदर्शन करने की बात होती हो या सड़क जाम करने की. लेकिन, ये सब साल 2015 में तब बदल गया जब उनकी पार्टी दोबारा सत्ता में आई लेकिन अकेली नहीं बल्कि हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से.

ये भी पढ़ें: कश्मीर सीरीज पार्ट-2: कश्मीर की राजनीति में नए नेता का उदय, सज्जाद लोन से पीडीपी और नेशनल कॉफ्रेंस दोनों ही डरे हुए हैं

पीडीपी का जन्म 1999 के जुलाई महीने के अंतिम दिनों में हुआ था और इसके जन्म के साथ ही राज्य की राजनीतिक बहस में नई ऊर्जा का संचार हुआ था. इसकी वजह उस समय प्रदेश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी नेशनल कॉफ्रेंस पार्टी का राज्य में जनाधार कम हो रहा था. इसकी वजह भी उनका केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए के साथ शामिल हो जाना था. उस समय नेशनल कॉफ्रेंस और बीजेपी का गठबंधन ठीक वैसा ही था, जैसा मौजूदा समय में पीडीपी-बीजेपी का है. वो गठबंधन भी कुछ ऐसा था कि कश्मीर से जुड़े किसी भी मसले पर उनमें कोई सहमति बन ही नहीं पा रही थी. जैसे- इस समय पीडीपी के समर्थक उससे दूर होते जा रहे हैं, उस समय यही हाल नेश्नल कॉफ्रेंस का हो रहा था. एनसी के गिरते जनाधार और राजनीतिक ग्राफ ने पीडीपी को कश्मीरी जनता के बीच अपनी जगह बनाने और उसे मजबूत करने में काफी मदद की.

तब पीडीपी के संस्थापक मोहम्मद सईद का अपना खुद का राजनीतिक करियर कांग्रेस में खत्म हो रहा था, और एनसी द्वारा बीजेपी के साथ गठबंधन करने से एक राजनीतिक शून्यता आ गई थी. पीडीपी एक ऐसी पार्टी थी जो कश्मीर पर ही केंद्रित थी और पार्टी का पूरा ध्यान घाटी के अपने निर्वाचन क्षेत्रों और इलाकों पर ज्यादा था. ये सब कुछ उन्हें जनता से जोड़ने के लिए काफी था. पार्टी ने भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत करवाने का भी दबाव बनाया, उसने राज्य में कानून का राज स्थापित करने की बात की लेकिन साथ ही ये भी कहा कि यहां के लोगों की मानवीय अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए.

साल 2002 में पीडीपी पहली बार सत्ता में आई, वो भी कांग्रेस के साथ गठबंधन में. दोनों पार्टियों के बीच बारी-बारी से मुख़्यमंत्री पद संभालने पर सहमति भी बनी, जिसपर पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद आसीन हुए और उनके बाद ग़ुलाम नबी आज़ाद. लेकिन ग़ुलाम नबी आज़ाद का कार्यकाल पूरा होने से पहले महबूबा मुफ़्ती ने साल 2008 में अमरनाथ यात्रा से जुड़े आंदोलन की आंच में सरकार से समर्थन वापिस ले लिया.

महबूबा मुफ्ती

‘आप हमें वोट दें और हम बीजेपी को सत्ता में आने नहीं देंगे’

2002 के चुनावों से पहले मुफ़्ती मोहम्मद सईद राज्य में ‘हीलिंग टच’ की बात किया करते थे, उन्होंने पोटा यानी प्रिवेंशन ऑफ टेररिज़्म एक्ट भी राज्य से हटा दिया और कुख्यात एसओजी ग्रुप को भी निरस्त कर दिया. उन्होंने नई दिल्ली और अलगाववादी नेताओं के बीच बातचीत शुरू करवाने की भी कोशिश की. महबूबा ने भी जनता से वोट मांगे, लेकिन दूसरी चीजों के लिए. 2014 के विधानसभा चुनावों के दौरान चुनाव प्रचार के दौरान अपनी काली स्कॉर्पियो गाड़ी की खिड़की से उन्होंने कहा- ‘आप हमें वोट दें और हम बीजेपी को सत्ता में आने नहीं देंगे.’ कश्मीरी जनता ने महबूबा के इस आह्वान का मान रखा और पीडीपी चुनावों में राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. पार्टी को 28 सीटों पर जीत मिली.

ये भी पढ़ें: हिल काका की खामोशी में फिर से सिर उठाने को तैयार मिलिटेंसी, गुज्जरों ने आतंकियों से निपटने के लिए मांगी नई बंदूकें

लेकिन, इसके साथ ही कुछ ऐसा भी हुआ जिसने राज्य की राजनीतिक जमीन हिलाकर रख दी. बीजेपी को मोदी लहर का फायदा हुआ और पार्टी ने जम्मू इलाके में बड़ी जीत दर्ज की और राज्य की दूसरी बड़ी पार्टी बनकर सामने आई, जो राज्य के इतिहास में पहली बार हुआ था. शुरूआती ना-नुकुर के बाद मुफ़्ती साहब ने बीजेपी और पीडीपी गठबंधन को उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के एक साथ आना कहकर परिभाषित किया. लेकिन, ये नापाक रिश्ता अपने साथ एक शर्त भी लेकर आया कि जो कोई भी बीजेपी के साथ आएगा वो खत्म हो जाएगा.

पूर्व अखबार संपादक और राजनीतिक विश्लेषक मोहम्मद सईद मलिक कहते हैं, ‘ये एक नई पार्टी है जो एनसी की तरह बहुत सारे उतार-चढ़ाव से नहीं गुजरी है. ये संगठन मुफ़्ती सईद के जिंदा रहने तक काफी हद तक मजबूत थी, वे जिस तरह से हर किसी को साथ लेकर चलते थे, महबूबा वो नहीं कर पाई हैं. हाथ से सत्ता जाने के साथ ही लोग भी साथ छोड़ने चले गए. उनसे साथ लोग तभी तक साथ रहे जब तक कि उनके पास सत्ता थी.’

लेकिन, मुफ़्ती साहब के देहांत के बाद सब कुछ बदलने लगा. महबूबा सत्ता पर तब काबिज हुईं जब उनकी ही पार्टी पीडीपी के कुछ नेता बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश में लगे थे. महबूबा को ये जानकारी भी पीएमओ के एक टॉप अधिकारी से मिली थी, और उन्होंने उसके तुरंत बाद दो ही घंटे में ये तय कर लिया कि वे उनके पिता की मौत के बाद बीजेपी के साथ जो गठबंधन टूटा था उसे वो दोबारा स्थापित करेंगी.

गठबंधन, जिसे कभी चलना ही नहीं था

4 अप्रैल, 2016 को जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही, पीडीपी में विघटन शुरू हो गया था. उनकी असली ताकत उनके लोग और कार्यकर्ता थे, जो उपेक्षित महसूस कर रहे थे. वे अब एक मुख्यमंत्री थीं न कि पार्टी अध्यक्ष. उन्हें बकवास बातें काफी पसंद हैं लेकिन, जल्द ही उन्हें ये भी पता चल गया कि इस गठबंधन का कोई भविष्य नहीं है. एक वरिष्ठ पीडीपी नेता के मुताबिक, ‘बुरहान वानी की हत्या के बाद सवाल ये नहीं था कि क्या होगा, बल्कि सवाल ये था कि कब होगा?’

ये भी पढ़ें: कश्मीर पर स्पेशल रिपोर्ट (पार्ट 1): घाटी में इस साल 70% ज्यादातर की मौत, मुखबिरों का अहम योगदान

इन दिनों, लगभग हर दूसरे दिन पीडीपी नेता और कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जा रहें हैं, वे या तो एनसी जा रहे हैं या सज्जाद लोन की पीपल्स कॉफ्रेंस पार्टी. पिछले हफ्ते ही दो सीनियर नेता बशारत बुख़ारी और पीर मोहम्मद हुसैन ने एनसी की सदस्यता ले ली. बुख़ारी पार्टी छोड़कर जाने वाले पांचवें विधायक थे.

इससे पहले, उरी से चुनाव लड़ने वाले पार्टी के वरिष्ठ नेता राजा एजाज़ अली खान ने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया था. पूर्व मंत्री हसीब द्राबु और इमरान रेज़ा अंसारी के अलावा पूर्व विधायक आबिद अंसारी और अब्बास वानी ने भी पार्टी छोड़ दी है.

महबूबा मुफ्ती की पार्टी की लहर जितनी तेजी से उठी थी उतनी ही तेजी से खत्म हो गई, उसका कोई खास असर भी नहीं हुआ. पार्टी को टूटने में कुछ ही साल लगे. लेकिन महबूबा आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हैं. हाल ही में उन्होंने श्रीनगर में एक कार्यक्रम के दौरान अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘नेता आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन पार्टी हमेशा रहती है.’

लेकिन, क्या पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की किस्मत आने वाले दिनों में बदलेगी, ये कहना फिलहाल अगर नामुमकिन नहीं तो थोड़ा मुश्किल जरूर लग रहा है.