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बिहार में बहार है फिर से सीएम नीतीशे कुमार है

नीतीश कुमार को बिहार के सीएम की कुर्सी से न कुछ अधिक चाहिए और न कम

Piyush Raj

अपने पद से इस्तीफा देकर नीतीश कुमार अचानक से पूरे देश में भ्रष्टाचार विरोध के हीरो बन गए हैं. पीएम मोदी समेत कई लोग उनकी नैतिकता, कर्मठता, त्याग और ‘जीरो टॉलरेंस’ की दुहाई दे रहे हैं. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है?

लालू यादव ने अपने प्रेस कांफ्रेंस में नीतीश कुमार के दावों की हवा निकालने की बहुत ही कमजोर कोशिश की. खैर लालू प्रसाद यादव से इससे अधिक की उम्मीद भी नहीं की जा सकती.


दरअसल नीतीश कुमार एक ऐसे राजनेता हैं जो न सिर्फ जनता को बहलाने में माहिर हैं बल्कि वे बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों को भी अपने झांसे में डालते रहे हैं. वह भी इतनी खूबी से कि जिस भी पार्टी के पास वो जाते हैं, उन्हें वे सबसे भरोसेमंद साथी लगते हैं. और नीतीश ऐसे मौके पर इन दलों को झटका देते हैं जब कोई उनपर ऊंगली तक न उठा पाए. हर बार ऐसा करने पर उन्होंने वाहवाही ही बटोरी है.

मौके के हिसाब से एजेंडा उठाते हैं नीतीश 

लोग और राजनीतिक पंडित भले ही नीतीश को पीएम का दावेदार और नरेंद्र मोदी का विकल्प वगैरह बताते रहे हैं लेकिन नीतीश को यह पता है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनका कद कितने पानी में है. इस वजह से वे लगातार बड़े ही शातिर अंदाज में अपने को बिहार की राजनीति में सबसे बड़े कद के नेता के बतौर टिकाए रखना चाहते हैं. इसके लिए कभी वो सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई का राग अलापते हैं और कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ.

अभी महागठबंधन तोड़ने से ठीक पहले नीतीश और जेडीयू ने जो किया ठीक वैसा ही बिहार में बीजेपी से गठबंधन तोड़ने से पहले किया था. अभी जैसे सत्ताधारी एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार कोविंद को समर्थन देकर महागठबंधन अटूट है का राग जेडीयू और नीतीश अलाप रहे थे, 2012 में प्रणब मुखर्जी को समर्थन देकर उस वक्त ये कह रहे थे कि एनडीए से इस पर कोई आंच नहीं आएगी.

और भी कई मुद्दों पर तब वे बीजेपी से अलग राय रख रहे थे जैसे हाल में उन्होंने विपक्ष की नोटबंदी पर राय से अलग रुख अख्तियार किया था. लेकिन तब भी गठबंधन टूटा था और इस वक्त भी.

तब लालू खुश थे और आज बीजेपी 

लेकिन एनडीए टूटा और आज जिस तरह बीजेपी खुश होकर नीतीश को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का हवाला देकर समर्थन दे रही है, कमोबेश इसी तरह उस वक्त लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई का हीरो बनाकर बाहर से समर्थन देकर नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखा.

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हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश बीजेपी और आरजेडी दोनों में से किसी के साथ नहीं गए. इसका मूल कारण यह था कि नीतीश अपनी ताकत भांपना चाहते थे. लोकसभा चुनावों में वो चारों खाने चित्त हुए.

जरा सोचिए अगर नीतीश ने 2014 का चुनाव एनडीए के साथ लड़ा होता तो आज जेडीयू का हाल महाराष्ट्र की शिवसेना की तरह होता और वह बीजेपी की जूनियर पार्टनर होती. लेकिन नीतीश ने समय रहते यह भांप लिया था कि बीजेपी लोकसभा में प्रचंड जीत के बाद उन्हें झटका दे सकती है.

बीजेपी ने अपने कई साथी दलों के साथ लोकसभा चुनाव के बाद यह किया भी है. शिवसेना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. कई छोटे दलों को बीजेपी ने अपने चुनाव चिह्न पर लड़ने के लिए भी मजबूर कर दिया. और शातिर नीतीश कुमार बहुत पहले बीजेपी की इस नीति को समझ गए थे. वैसे भी नीतीश को जूनियर बनकर रहना पसंद नहीं है.

बीजेपी के बढ़ते कद की वजह से थामा धर्मनिरपेक्षता का झंडा

वैसे नीतीश कुमार यह तभी भांप गए थे जब 2010 के बिहार विधानसभा में जेडीयू को भले ही ज्यादा सीटें मिली थीं लेकिन बीजेपी की सफलता का प्रतिशत ज्यादा बेहतर था. ठीक यही 2015 के विधानसभा चुनावों में हुआ. आरजेडी और कांग्रेस की सफलता का रेट जेडीयू से ज्यादा बेहतर था.

2010 के विधानसभा चुनावों बीजेपी के बढ़ते कद को देखकर नीतीश कुमार ने समय रहते धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठा लिया. आज जिस तरह महागठबंधन तोड़ने से पहले वे तेजस्वी के साथ मंच साझा करने से बच रहे थे ठीक उस वक्त बीजेपी से अलग होने के समय उन्होंने नरेंद्र मोदी का बहिष्कार कर रखा था. वे नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से इनकार करके लोगों के ही नहीं बल्कि बीजेपी के विरोधी दलों के भी हीरो बन रहे थे. जबकि यह भी एक तथ्य है कि इस्तीफा देने में माहिर नीतीश ने गुजरात दंगों के समय केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया था.

महागठबंधन बनाते वक्त कहां था 'जीरो टॉलरेंस'

जिस आरजेडी के खिलाफ आज वो भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं क्या उन्हें आरजेडी के साथ महागठबंधन बनाने के वक्त यह खयाल नहीं आया कि इस आरजेडी के मुखिया लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में निचली अदालत दोषी ठहरा चुकी है. तब भ्रष्टाचार के खिलाफ नीतीश की ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति कहां गई थी? ऐसी पार्टी के साथ गठबंधन करते हुए एक बार भी नहीं सोचा जिसके सुप्रीमो को घोटाले के आरोप में सजा सुनाई जा चुकी है.

और तो और जिस घोटाले के आरोप में तेजस्वी पर सीबीआई ने एफआईआर किया, वो आरोप जेडीयू के बड़े-बड़े नेता महागठबंधन बनाने के पहले ही लालू यादव और उनके परिवार पर लगा चुके थे.

नीतीश की अद्भुत 'घर वापसी'!

दरअसल नीतीश कुमार त्याग की ऐसी प्रतिमूर्ति के रूप में अपने को दिखाते हैं कि जनता तो जनता माहिर राजनेता और राजनीतिक दल भी इस उनके भुलावे में आ जाते हैं.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यह है कि आज बीजेपी के साथ गठबंधन होने के बाद जिसे लोग ‘घर वापसी’ का नाम दे रहे हैं, ठीक इसी तरह लालू यादव के साथ महागठबंधन बनने के वक्त राजनीतिक पंडित लालू-नीतीश के पुराने साथ का हवाला दे रहे थे. आज बीजेपी अपने को चैंपियन समझ रही है उस वक्त लालू यादव अपने को चैंपियन समझ रहे थे.

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बिहार में बहलाने-फुसलाने को लेकर एक शब्द काफी चलता है- ‘पोटना’. वास्तव में नीतीश सिर्फ जनता ही नहीं राजनीतिक दलों को भी ‘पोटना’ अच्छी तरह जानते हैं. नीतीश भारत के एकमात्र ऐसे राजनेता हैं जिसने अतिवाम दल से लेकर अतिदक्षिणपंथी दल तक से चुनावी तालमेल किया है. यही नहीं वे पार्टी के भीतर भी बढ़ने वाले किसी भी नेता के कद को इस तरह कम करते हैं कि आप कह सकते हैं- ‘तू कत्ल करो ही कि करामात करो हो.’

नीतीश की हद 

2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद इस्तीफा देकर पहले वे हीरो बने, जीतनराम मांझी को सीएम बनाया और परदे के पीछे सरकार के मुखिया बने रहे. जब उन्हें लगा कि जीतनराम मांझी उन्हें साइडलाइन कर सकते हैं तो उन्होंने ऐसा जाल बिछाया कि मांझी बीजेपी के करीब चले गए और नीतीश ‘धर्मनिरपेक्षता के हीरो’ बनकर फिर से सीएम बन गए.

नीतीश कुमार के दांव को समझना इतना आसान नहीं. हिंदी के प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास ‘महाभोज’ में सीएम के पात्र दा साहब की राजनीतिक दांव-पेंच से प्रभावित होकर एक पात्र कहता है कि ‘यहां राजनीति में तो धोती के भीतर सभी नंगे हैं लेकिन इस दा साहब के धोती के नीचे भी धोती निकलेगी किसी ने सोचा न था.’

नीतीश कुमार बहुत हद तक 70 के दशक में लिखे गए इस उन्पन्यास के सीएम पात्र दा साहब की याद दिलाते हैं. इसमें कोई ताज्जुब नहीं है कि कुछ दिन या महीने या साल बाद नीतीश भ्रष्टाचार का झंडा छोड़कर फिर से धर्मनिरपेक्षता का झंडा थाम लें.

दरअसल नीतीश को उनकी हद पता है और वह हद है बिहार के सीएम की कुर्सी. उन्हें न इससे अधिक कुछ चाहिए और न कम. इससे इससे पहले की उनका सहयोगी दल उन्हें मजबूरी में डाले उससे पहले ही वो उस दल से हाथ इतने कायदे से झटकते हैं कि लोगों को नीतीश का असल खेल समझ में ही नहीं आता है.