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कांग्रेस ने बेदाग युवा नेतृत्व को सत्ता सौंपने का सुनहरा मौका गंवा दिया है

तीन राज्यों में कांग्रेस द्वारा जिन-जिन नेताओं को सत्ता सौंपी गई उससे साफ है कि पार्टी युवा नेतृत्व को सत्ता सौंपने से दूर रही.

Pankaj Kumar

तीन राज्यों में कांग्रेस द्वारा जिन-जिन नेताओं को सत्ता सौंपी गई उससे साफ है कि पार्टी युवा नेतृत्व को सत्ता सौंपने से दूर रही. कांग्रेस अध्यक्ष खुद युवा हैं इसलिए उनसे इस बात की उम्मीद थी कि वो युवा नेतृत्व को तरजीह देंगे लेकिन सचिन पायलट को डिप्टी सीएम बनाकर और ज्योतिरादित्य सिंधिया को सत्ता न सौंप कर कांग्रेस ने एक बार फिर साफ कर दिया कि पार्टी में हाईकमान कल्चर अभी भी बरकरार है. वैसे संतुलन के लिए सचिन पायलट को डिप्टी सीएम का पद सौंपा गया, वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया को विश्वास में लेकर कमलनाथ को सत्ता सौंपे जाने से कांग्रेस नए नेतृत्व को आगे लाने का एक और मौका गंवा चुकी है.

जानकार मानते हैं कि अनुभव की आड़ में वफादारी को ईनाम दिया गया है. कमलनाथ और अशोक गेहलोत गांधी परिवार के पुराने वफादार सिपाही हैं ये सर्वविदित है लेकिन पिछले चार सालों में राजस्थान में पार्टी अध्यक्ष बनकर सचिन पायलट की भूमिका सराहनीय रही है. सचिन पायलट का जमीनी स्तर पर किया गया काम कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में कामयाब रहा लेकिन प्रदेश की सत्ता उन्हें न सौंप कर अशोक गहलोत को सौंपे जाने से राज्य के लोगों में नाराजगी साफ तौर पर देखी गई.


तीन दिनों तक चली दिन-रात की मशक्कत के बाद अशोक गहलोत को प्रदेश का मुखिया चुना गया, वहीं सचिन पायलट को उनका डिप्टी बनाकर अनुभव और युवा नेतृत्व के बीच संतुलन बैठाने की बात कही गई. अशोक गहलोत नि:संदेह दो बार राज्य के मुखिया रह चुके हैं, लेकिन सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दिए जाने के बाद प्रदेश की जनता को लगने लगा था कि कांग्रेस का केंद्रीय युवा नेतृत्व राज्यों में भी नेतृत्व युवा के हाथों सौंपेंगी.

ऐसा मध्य प्रदेश में भी देखा गया. कमलनाथ को तरजीह देकर कांग्रेस अध्यक्ष ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को सत्ता से वंचित रखा. एक ट्वीट के जरिए कांग्रेस अध्यक्ष ने दोनों के साथ अपनी तस्वीर साझाकर ये जताने की कोशिश जरूर की है कि कमलनाथ के हाथ सत्ता जरूर सौंपी गई हैं लेकिन भविष्य के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ही हैं.

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ठीक इसी तरह की तस्वीर अशोक गहलोत और सचिन पायलट के साथ भी शेयर की गई. जाहिर है इसके पीछे अनुभवी और युवा नेतृत्व के बीच संतुलन बिठाने को लेकर मैसेज देने की मंशा साफ तौर पर दिखाई पड़ रही है. लेकिन निर्विवाद इमेज रखने वाले सिंधिया को दरकिनार कर कमलनाथ को सत्ता सौंपे जाने से युवा नेतृत्व सत्ता से वंचित रखा गया.

छत्तीसगढ़ की स्थिति थोड़ी अलग है. यहां कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की फौज माओवाद की भेंट चढ़ चुकी है. ऐसे में बघेल को चुनने के पीछे पार्टी की जीत में उनका अहम योगदान हो सकता है, लेकिन दो प्रमुख राज्यों में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व तेज तर्रार युवा नेताओं को सत्ता सौंपने का एक सुनहरा मौका गंवा चुका है.

कथनी और करनी में फर्क की कहानी नई नहीं हैं

वैसे साल 2005 में भी हरियाणा में ये कनफ्यूजन रणदीप सिंह सुरजेवाला के समर्थकों को हो गया था. नरवाणा की एक सभा में सोनिया गांधी ने कह दिया था कि चुनाव के बाद सुरजेवाला राज्य में महत्वपूर्ण भूमिका में होंगे. सुरजेवाला राज्य के कार्यवाहक अध्यक्ष थे. सोनिया के हिंट को उनके समर्थकों ने मान लिया था कि सुरजेवाला चुनाव जीतने पर राज्य के मुख्यमंत्री होंगे.

सुरजेवाला की नरवाणा से जीत हुई थी और वहां उन्होंने ओमप्रकाश चोटाला को हराया था. भजनलाल कांग्रेस के अध्यक्ष थे. दोनों को साइडलाइन कर तथा कथित 'दिल्ली लॉबी' ने लोकसभा सदस्य भूपेन्द्र सिंह हुडा को मुख्यमंत्री बना दिया था. भजनलाल ने खुली बगावत की लेकिन भुपेन्द्र सिंह हुडा को कमान सौंप दी गई.

यही हालत साल 2012 में उत्तराखंड में देखा गया था. यहां जीत का श्रेय तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत को दिया जा रहा था. निर्वाचित विधायक भी हरीश रावत को मुखिया के तौर पर देखना चाहते थे लेकिन हाईकमान ने विजय बहुगुणा को चुनकर सबको हैरत में डाल दिया था. पार्टी के अंदर विद्रोह की स्थिति थी.

विधायक समेत प्रदेश के नेता हाईकमान के फैसले से नाराज थे लेकिन हरीश रावत ने भजन लाल की तरह खुला विद्रोह करने से अपने को दूर रखा इसलिए विजय बहुगुणा वहां के मुख्यमंत्री चुने गए. वहीं आंध्रप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाया गया क्योंकि हाईकमान के फैसले के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई थी.

हाईकमान कल्चर कांग्रेस की पुरानी पहचान

दरअसल पार्टी हाईकमान के द्वारा नेता चुने जाने की रवायत इंदिरा गांधी के समय से ही शुरू हुई थी. हाईकमान जिसको चाहता उसे राज्य का मुखिया बना देता था, लेकिन ज्यादातर हिंदीभाषी क्षेत्रों में कांग्रेस की पकड़ धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी. 90 के दशक से पार्टी सत्ता मे वापस अपने दम पर शायद ही लौट पाई है.

बिहार, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कांग्रेस 15 साल से ज्यादा समय से सत्ता से बाहर रही है. बिहार में गठबंधन की सरकार बनी भी तो कांग्रेस सबसे छोटे दल के रूप में सत्ता में शामिल थी.

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उत्तर प्रदेश और गुजरात में सत्ता से बाहर हुए 25 साल से ज्यादा हो चुके हैं. पश्चिम बंगाल में लगभग 40 सालों से ज्यादा वहीं उड़ीसा में 15 सालों से ज्यादा सत्ता से बेदखल होने के बाद सत्ता तक दोबारा पहुंच पाने की उम्मीद दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रही है. कांग्रेस ज्यादातर प्रदेशों में सत्ता से बेदखल होने के बाद अपने दम पर सत्ता में वापस नहीं लौट पाई है. बिहार और महाराष्ट्र में उसे स्थानीय पार्टी की मदद से ही सत्ता नसीब हो पाई है.

ऐसे में कांग्रेस को तीन राज्यों में मिली जीत उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है. सीधी लड़ाई में कांग्रेस द्वारा बीजेपी को हराकर पंद्रह साल बाद सत्ता पर काबिज होना कांग्रेस के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं. राजस्थान अपवाद के तौर पर है जहां हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन पिछले 25 सालों से होता रहा है.

ऐसे में पार्टी पुराने नेतृत्व पर भरोसा जताकर उसी घिसी-पिटी राह पर चल रही है जहां परफॉर्मेंस से ज्यादा अन्य चीजों को तरजीह दी जाती है, लेकिन इस बार कांग्रेस युवा नेतृत्व को नाराज न कर उन्हें महत्वपूर्ण पद देते हुए संतुलन बैठाने की कोशिश की है. 'दिल्ली लॉबी' भले ही उतना प्रभावी नहीं हो लेकिन उसकी प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है.

दिग्विजय सिंह की वो लाइन आज भी राजनीति गलियारे में याद किया जाती है जब उन्होंने कहा था कि वो राज्य के शेरों से नहीं डरते लेकिन दिल्ली के चूहों से जरूर डरते हैं. यहां उन्होंने शेर कहकर संबोधित उस समय के बड़े नेताओं को किया था वहीं चूहे की संज्ञा दिल्ली लॉबी को दी थी जो पार्टी हाईकमान के बेहद करीबी माने जाते थे.