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पहले 'महात्मा' को पहचानिए, फिर 'गांधी' की बात कीजिए

इन सवालों के जवाब देने के लिए हमें गांधी के काम और उनके लेखन की विस्तार से पढ़ाई करनी होगी

Shishir Tripathi

किसी मुद्दे पर अगर सिर्फ सतही आधार पर प्रतिक्रियाएं आएंगी, तो तर्कों की जंग में उनका हारना तय होता है.

12 जनवरी को जब खादी ग्रामोद्योग आयोग के 2017 के कैलेंडर में महात्मा गांधी की जगह प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर छपने का विवाद उठा. तो सोशल मीडिया से लेकर अखबारों और टीवी चैनलों पर प्रतिक्रियाओं और चर्चाओं की बाढ़ सी आ गई.


अधिकतर प्रतिक्रियाएं बेहद सतही और अधूरी जानकारी वाली थीं. जो लोग इस पर नाराजगी जता रहे थे, जाहिर था कि उन्हें गांधी की जिंदगी और उनके विचारों की कोई समझ नहीं थी. तभी वो इसे ईशनिंदा जैसा कदम बता रहे थे.

2014 में कर्नाटक हाई कोर्ट में महात्मा गांधी को भारत रत्न देने की एक याचिका दायर की गई थी. इस याचिका में अदालत से गुहार लगाई गई थी कि वो केंद्रीय गृह मंत्रालय को ऐसा करने का निर्देश दें.

अदालत ने कहा 'हमारे राष्ट्रपिता पर ऐसा जुल्म क्यों? वो इन पुरस्कारों से परे हैं. उन्हें किसी अवार्ड या सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं'.

हम ईमानदारी से खुद से सवाल करें कि क्या गांधी को प्रासंगिक बने रहने के लिए किसी डायरी या कैलेंडर में तस्वीर के तौर पर चस्पा करना जरूरी है?

कैलेंडर और डायरी से गांधी की तस्वीरें हटाने की तीखी बहस के बीच ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या गांधी और उनकी विरासत इतनी कमजोर है कि तस्वीर हटा भर देने से वो खत्म हो जाएगी?

याद रखिये कि हम यहां एक ऐसे महान इंसान की बात कर रहे हैं, जिसकी महानता को दुनिया के कई महान लोगों ने सलाम किया था.

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दुनिया अगर उन्हें भुलाना चाहेगी, तो उसे अपनी पहचान के संकट से भी जूझना होगा. यहां हमें याद रखना होगा कि मशहूर वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन और ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने महात्मा गांधी के बारे में क्या कहा था.

आइंस्टीन ने महात्मा गांधी को लिखी थी चिट्ठी

1931 में आइंस्टीन ने महात्मा गांधी को एक चिट्ठी लिखी थी. इस छोटी सी चिट्ठी से ही गांधी की महानता का एहसास आपको हो जाएगा. उस गांधी के विराट व्यक्तित्व से आपका परिचय होगा, जिसके बारे में लोग सोचते हैं कि एक तस्वीर भर हटा देने से उसे हम अपने जेहन से मिटा देंगे.

आइंस्टीन ने लिखा था...

आदरणीय श्री गांधी,

मैं आपके दोस्त की मौजूदगी का उपयोग करके आपको कुछ लाइनें लिख रहा हूं. आपने अपने काम से ये दिखाया है कि अहिंसा के रास्ते पर चलकर भी कामयाबी हासिल की जा सकती है. हम उन लोगों का भी अहिंसा से मुकाबला कर सकते हैं जिन्होंने हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ा है.

हमें उम्मीद है कि आपका काम और आपकी मिसाल सिर्फ आपके देश की सरहदों तक सीमित नहीं रहेगी. बाकी दुनिया भी इससे सबक लेगी. ये एक ऐसी व्यवस्था कायम करने में मददगार होगा जिसका सब सम्मान करेंगे. जो सभी फैसले लेगी और जो युद्ध का खात्मा कर देगी.

आपका प्रशंसक

अल्बर्ट आइंस्टीन

मुझे उम्मीद है कि मैं एक दिन आपसे जरूर रूबरू मुलाकात करूंगा.

गांधी ने आइंस्टीन की चिट्ठी का जो जवाब दिया वो इस तरह था...

प्रिय मित्र,

मुझे बहुत खुशी हुई, जब आपने सुंदरम के जरिए एक खूबसूरत खत मुझे भेजा. मेरे लिए ये बड़ी तसल्ली की बात है कि जो काम मैं कर रहा हूं, उसे आप तारीफ के काबिल पाते हैं. मैं खुद ये कामना करता हूं कि किसी दिन हम एक दूसरे से रूबरू मुलाकात करेंगे और ये भारत में मेरे आश्रम में हुआ तो और भी अच्छा होगा.

एम के गांधी

जॉर्ज ऑरवेल ने गांधी पर लिखा था लेख

भारत में जन्मे ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने 1949 में एक लेख लिखा था, 'रिफ्लेक्शन्स ऑन गांधी'.

इसमें जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा, 'संतों को हमेशा तब तक दोषी माना जाना चाहिए, जब तक वो बेगुनाह न साबित हो जाएं. लेकिन उनकी बेगुनाही साबित करने के लिए जो पैमाने लागू होंगे, वो आम लोगों के लिए लागू होने वाले पैमानों से अलग होंगे. गांधी के बारे में ये सवाल उठता है कि आखिर उन्हें खुद पर कितना घमंड था.

सिर्फ एक धोती पहनने वाला अधनंगा फकीर, जो एक चटाई पर बैठकर साम्राज्यों को हिला रहा था, उस गांधी को अपनी आध्यात्मिक शक्ति पर कितना गुरूर था. गांधी ने राजनीति में जाकर अपने सिद्धांतों से कितना समझौता किया. उस राजनीति में गए जो दबाव, ब्लैकमेल और फर्जीवाड़े से की जाती है?

गांधी का जीवन एक जीवन भर नहीं था

इन सवालों के जवाब देने के लिए हमें गांधी के काम और उनके लेखन की विस्तार से पढ़ाई करनी होगी. उसे ढंग से समझना होगा, क्योंकि

गांधी का जीवन एक जीवन भर नहीं था, वो एक तीर्थयात्रा थी, जिसका हर पड़ाव बेहद अहम था

गांधी एक ऐसे ऐतिहासिक किरदार हैं, जो वक्त और देश के दायरों से परे हैं. इसी तरह उनके लिखे शब्द भी इंसानियत की नई तस्वीर पेश करते हैं.

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उन्हें बड़े-बड़े संस्थान सख्त नापसंद थे. गांधी के मुताबिक ये विशालकाय संस्थाएं, इंसान को उसकी आत्मा से दूर कर देती हैं. ये बात उस पार्टी पर भी लागू होती है जिसे बरसों की मेहनत और संघर्ष से खड़ा किया गया और इंसान के शरीर पर भी लागू होती है, जो बड़ी मेहनत और वक्त लगाकर तैयार होता है.

ये एक ऐतिहासिक तथ्य है कि गांधी, आजादी हासिल होने के बाद कांग्रेस पार्टी का विघटन कर देना चाहते थे.

90 खंडों में छपे 'द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी' में इसका साफ तौर पर जिक्र है.

अब जबकि भारत ने स्वतंत्रता हासिल कर ली है, भले ही देश दो टुकड़ों में बंट गया है, इसमें कांग्रेस के संघर्ष का बड़ा योगदान रहा है. मगर देश आजाद होने के बाद कांग्रेस का मौजूदा रूप अब अनुपयोगी हो गया है. संसदीय लोकतंत्र में कांग्रेस मौजूदा रूप में गैरजरूरी है.

गांधी मानते थे कि इंसान वासना और पाप का पुतला है. ये शैतानी है. इस शरीर की मांग से हटकर अंतरात्मा से मेल करके ही हम जीवन में अपने लक्ष्य हासिल कर सकते हैं.

इन मिसालों से साफ है कि गांधी की कहानी एक ऐसे इंसान की कहानी है जो स्वयं से छुटकारा पाना चाहता था. जो आत्ममुग्धता से पीछा छुड़ाना चाहता था. जो चाहता था कि लोग खुद से नहीं दूसरों से प्यार करें.

हैरानी की बात है कि आज हम गांधी को उन्हीं चश्मों से देखना चाहते हैं जिन्हें वो सख्त नापसंद करते थे. वो व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे. मगर आज हम गांधी के नाम पर ठीक वही काम कर रहे हैं.

अनिल विज जैसे बयान आगे भी चलते रहेंगे

गांधी के नाम पर चल रही इस वाहियात बहस में हरियाणा के मंत्री अनिल विज ने अपने बयान से और बेतुकापन जोड़ दिया.

जब विज ने कहा कि 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खादी के लिए महात्मा गांधी से बड़े ब्रांड नेम हैं'. हालांकि कड़ी आलोचना होने के बाद में विज ने अपने बयान को वापस ले लिया. मगर इसमें सबसे अफसोस की बात ये रही कि अनिल विज गांधी को एक ब्रांड बताने में जुटे थे.

अनिल विज के बयान और इसके बाद के बयानों से गांधी से जुड़ा ये विवाद अभी आगे भी चलता रहेगा.

गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले इसका विरोध करेंगे. वो आरोप लगाएंगे कि गांधी की विरासत को खत्म करने की कोशिश की जा रही है.

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ऐसा करके वो अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने की कोशिश करेंगे. लेकिन वो एक अहम बात भूल गए हैं कि हम उस गांधी की बात कर रहे हैं जिसका व्यक्तित्व इतना विराट है कि केवल इतिहास के पन्नों, डायरी या कैलेंडर से हटा देने से मिटना नामुमकिन है.