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भागवत की हिंदू बनाम हिंदुत्व की तुलना में कुछ भी नया नहीं है

समय-समय पर संघ के कई नेता कट्टर हिंदुत्व से दूरी बनाने की बात कहते रहे हैं

Ajay Singh

राष्ट्रीय स्वयंसेवक के सर संघचालक, मोहन भागवत ने हाल ही में करीब पचास देशों के राजनयिकों के साथ मुलाकात की थी. कहा जा रहा है कि इसमें उन्होंने राजनयिकों को हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच का फर्क समझाया.

मीडिया में आई खबरों के मुताबिक भागवत ने कहा कि हिंदू धर्म कुछ सिद्धांतों, नियमों और परंपराओं पर चलता है. मगर हिंदुत्व बंदिशों से परे एक व्यापक विचार है.


अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक भागवत ने इन राजनयिकों को बताया कि, 'वक्त के साथ इंसान बदलते हैं. जब कोई ये कहता है कि मैं हिंदू हूं तो वो अपना धर्म नहीं बताता. वो ये भी नहीं बताता कि उसका रहन-सहन क्या है. इसका असल मतलब ये है कि वो लोगों को उसी तरह से स्वीकार करता है, जैसे वो हैं. ये खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने का मसला नहीं है. अगर हम ऐसी चीजें जबरदस्ती लादते हैं तो ये हिंदूवाद होता है. हिंदुत्व किसी वाद से परे है. ये हिंदू धर्म का लगातार परिवर्तित होता हुआ रूप है.'

कुछ लोगों ने भागवत की इस बात को ऐसे समझा जैसे वो कट्टर हिंदुत्व को नरमपंथ का मुखौटा पहना रहे हों. कुछ लोगों ने ये कहा कि ये तो कट्टर हिंदुत्व को निशाने पर आने से बचाने की कोशिश है. ये ठीक उसी तरह है जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जापान के पीएम शिंजो आबे के साथ अहमदाबाद की सिद्दी सैयद मस्जिद जाना.

कुछ लोग तो भागवत के बयान को शायद ऐसे पढ़ें कि संघ परिवार कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा से पीछे हट रहा है. जबकि वो हमेशा से हिंदुत्व का हामी रहा है.

पर, आखिर सच्चाई क्या है?

संघ परिवार के इतिहास पर नजर डालें तो बरसों से आरएसएस और इससे जुड़े संगठन हिंदुत्व की परिभाषा के पेचीदा मसले से जूझते रहे हैं. इनकी कोशिश संवैधानिक दायरे में रहते हुए हिंदुत्व को अहमियत देने की रही है. क्योंकि संघ परिवार भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है. और संवैधानिक रूप से ये मुमकिन नहीं दिखता.

संघ परिवार की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा, जर्मन विद्वान मैक्स म्यूलर के रिसर्च से निकली है. मैक्स म्यूलर ने अपनी किताब, 'हिस्ट्री ऑफ एंसिएंट संस्कृत लिटरेचर' (History of Ancient Sanskrit Literature) में चार वेदों के हिसाब से हिंदू परंपराओं के बारे में तफ्सील से लिखा है. मैक्स म्यूलर के बाद दयानंद सरस्वती के आर्य समाज आंदोलन ने हिंदुत्व को लेकर पौराणिक विचारों को और मजबूती दी. ये कहा गया कि हिंदुत्व कुछ परंपराओं, कुछ सिद्धांतों और रहन-सहन का नाम है.

लेकिन इस बात की तमाम मिसालें मिलती हैं जब आरएसएस, बीजेपी या इससे पहले जनसंघ ने हिंदुत्व को लेकर किसी कट्टर खयाल से बचने की कोशिश की. सच तो ये है कि आजादी के बाद से कई बार संघ परिवार ने हिंदुत्व को लेकर बेहद लचीला रवैया अपनाया है. उनका जोर कभी भी हिंदुओं की मजहबी पहचान पर नहीं रहा.

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अगर किसी को इस बात पर कोई शक है, तो वो एक बार जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में पढ़ ले. हिंदू महासभा से इस्तीफा देने के बाद मुखर्जी ने कहा था कि, 'आज के भारत में 85 फीसद आबादी हिंदुओं की है. अगर फिर भी वो अपने आर्थिक और सियासी हितों की रक्षा नहीं कर सकते, तो मौजूदा संवैधानिक ढांचे के तहत सिर्फ हिंदुओं के हितों की बात करने वाली कोई भी पार्टी हिंदुओं का भला नहीं कर पाएगी.

(Pic: shyama prasad mookerjee)

इसके बरक्स अगर हिंदू अपने आप को अलग कर के रखेंगे, तो इससे देश में सांप्रदायिक ताकतों को ही बल मिलेगा. फिर ऐसे तमाम संगठन पैदा हो जाएंगे जो अल्पसंख्यक समुदायों की वकालत करेंगे. इससे देश में भेदभाव का ही माहौल बनेगा'.

मशहूर लेखक ब्रूस ग्राहम ने अपनी किताब, 'हिंदू नेशनलिज़्म ऐंड इंडियन पॉलिटिक्स' में मुखर्जी के इस बयान का विस्तार से जिक्र किया है. ग्राहम का मानना था कि जनसंघ की स्थापना से पहले श्यामा प्रसाद मुखर्जी के हिंदू महासभा के दूसरे नेताओं से जबरदस्त मतभेद हो गए थे. हिंदू महासभा के दूसरे नेता नहीं चाहते थे कि संगठन के दरवाजे सब के लिए खोल दिए जाएं. इससे साफ है कि जनसंघ की स्थापना सिर्फ कट्टर हिंदुत्व की बुनियाद पर नहीं हुई थी.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर पाबंदी लगा दी गई थी. उस वक्त संघ के प्रमुख एम एस गोलवलकर या 'गुरु जी' ने सरकार को लिखित में वचन दिया था कि उनका संगठन सिर्फ सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेगा. वो संविधान के दायरे में रहकर काम करेगा.

संघ परिवार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करता रहा है. वो हिंदुओं को एकजुट करने के लिए काम करने की बात करता है. ऐसे में जनसंघ के बारे में भी यही माना गया कि वो सिर्फ हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार और हिंदू हितों की रखवाली करने वाला दल होगा. हालांकि ये सोच बिल्कुल गलत थी.

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इमरजेंसी के दौरान जब संघ और जनसंघ के नेताओं को नजरबंद किया गया, तो उने साथ समाजवादी नेताओं और मुस्लिम जमात के नेताओं को भी कैद किया गया था. इसी दौरान संघ और जनसंघ को सिर्फ कट्टर हिंदुत्व वाले संगठन मानने की सोच भी गलत साबित हुई.

इमरजेंसी के फौरन बाद संघ ने अपने दरवाजे मुसलमानों के लिए खोल दिए थे. इसका संघ परिवार में भी कड़ा विरोध हुआ था. बहुत से नेताओं ने आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस के इस कदम पर ऐतराज जताया था. कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि ये तो संघ की विचारधारा से मुंह फेरने और उसे कमजोर करनेवाला कदम है.

लेकिन बाला साहब देवरस अपने फैसले से पीछे नहीं हटे. 1977 में बाला साहेब देवरस के एक सम्मान समारोह में मशहूर कानूनविद् ननी पालकीवाला और नेता एम सी छागला भी शामिल हुए थे. उसमें छागला ने कहा था कि, 'मेरा मजहब इस्लाम है, मगर मैं एक हिंदू हूं'. इसका मुस्लिम कट्टरपंथियों ने कड़ा विरोध किया था.

ये सही है कि गोलवलकर के दौर में संघ के दरवाजे मुसलमानों के लिए खुलने मुश्किल थे. वो देश के बंटवारे के ठीक बाद का वक्त था. देश मुश्किल दौर से गुजर रहा था. लेकिन, गोलवलकर के बाद संघ प्रमुख बने देवरस ने आजादी के बाद संघ के बारे में बनी सोच को बदलने की कोशिश की. इमरजेंसी के बाद इसे सब को साथ लेकर चलने वाला संगठन बनाने की कोशिश की. हालांकि इस दौरान भी आरएसएस अपने हिंदू राष्ट्र की विचारधारा से दूर नहीं हुआ. जबकि हिंदू राष्ट्र की अवधारणा, संविधान से मेल नहीं खाती.

इन बातों की नजर में भागवत का ताजा बयान कोई नई बात नहीं. जब उन्होंने हिंदू धर्म और हिंदुत्व को लेकर फर्क बताया, तो वो अपने पहले के नेताओं की बात ही दोहरा रहे थे. भागवत ने ये बात विदेशी राजनयिकों के सामने कही. उनका मकसद ये था कि दूसरे देश संघ की विचारधारा को अपने सेक्यूलरिजम के बंधे-बंधाए खांचे में डालकर न देखें. संघ परिवार का मानना है कि धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बेहद संकुचित है.

इसीलिए संघ परिवार ये चाहता है कि राष्ट्रवाद और सहिष्णुता जैसे मुद्दे किसी खास चश्मे से न देखे जाएं. न ही ये समझा जाए कि उसकी सोच में कोई फर्क आया है.