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स्टेट्समैन बनने की राह पर कितना आगे बढ़ गए हैं 'हिंदू हृदय सम्राट' मोदी!

तीसरी बार पीएम मोदी ने अजान के लिए अपना भाषण रोक कर संकेत दिए हैं कि वह एक स्टेट्समैन की छवि हासिल करना चाहते है

Sumit Kumar Dubey

राजनीति एक ऐसी कला है जिसके कई रंग बिना दिखाई दिए भी नजर आते हैं इसकी अपनी एक अलग भाषा होती है, जिसमें संकेतों और प्रतीकों के जरिए जनता के साथ संवाद किया जाता है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी कुशल राजनीतिज्ञ की तरह इस कला में पूरी तरह से पारंगत हैं.

प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही मोदी संकेतों की भाषा का बेहद कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करके अब एक स्टेट्समैन की छवि को हासिल करने की ओर बढ़ रहे हैं.


देश की राजधानी दिल्ली में पिछले तीन दिनों में मोदी ने दो बार ऐसे बड़े संकेत दिए हैं जो इशारा करते हैं कि मोदी अब 'हिंदू हृदय सम्राट' के चोले से बाहर निकलने को कोशिश कर रहे हैं.

तीसरी बार अजान के लिए रोका भाषण

शनिवार को नॉर्थ-ईस्ट और खासतौर से त्रिपुरा में बीजेपी की जीत के बाद पार्टी के नए दफ्तर में जीत से आह्लादित कार्यकर्ताओं के संबोधन से पहले अजान की आवाज के लिए अपने भाषण को रोककर मोदी ने स्टेट्समैन की छवि को हासिल करने की ओर एक और कदम बढ़ाया है.

यह तीसरी बार है जब मोदी ने अजान के लिए अपने भाषण को अल्पविराम दिया है. इससे पहले साल 2016 में बंगाल चुनाव में अपनी पहली चुनावी रैली के दौरान मोदी ने अजान की आवाज सुनकर अपना भाषण रोक दिया था. पिछले साल नवंबर में अपने गृह राज्य गुजरात में भी चुनावी रैली में मोदी ने अजान को वरीयता देते हुए अपने भाषण रोका था.

इस्लाम पर भी रखी उदार राय

पार्टी दफ्तर में अपने जीत के भाषण को अजान के लिए रोकने से दो दिन पहले दिल्ली में ही मोदी ने इस्लाम को लेकर दिए अपने भाषण में अपने विरोधियों को चौंका दिया. विज्ञान भवन ने इस्लामिक हेरिटेज पर आयोजित एक इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस में मोदी ने  जॉर्डन के शाह अब्दुल्ला द्वितीय की मौजूदगी में इस्लाम को आतंकवाद से जोड़कर ना देखे जाने की बात कहकर अपनी ही पार्टी के एक बड़े तबके की लाइन से अलहदा बात कही.

यही नहीं, सामान्यत: शुद्ध हिंदी के क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल करने वाले मोदी ने इस भाषण में उर्दू के लफ्जों का भी जमकर इस्तेमाल किया जो अपने आप में चौंकाने वाला था. ‘पैगाम’, ‘नूर’, ‘जर्रा-जर्रा’, ‘दहलीज’, ‘सरजमी’, ‘तहजीब’ और ‘सजदा’ जैसे लफ्ज मोदी की जुबान से इससे पहले शायद ही किसी ने सुने हों.

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इस्लाम के पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के कबीले से ताल्लुक रखने वाले जॉर्डन के शाह की इस्लामी दुनिया में एक अलग ही पहचान है. उनकी मौजूदगी में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात रखने वाले मोदी का यह भाषण उनके राजनीति जीवन का एक दस्तावेज बन गया है.

इससे पहले सितंबर 2016 में इंटरनेशनल सूफी सम्मेलन में मोदी ने इस्लाम को शांति का मजहब बताते हुए अपनी इस बदली हुई छवि का संकेत दिया था.

विदेश नीति में भी दिखा असर

ऐसा नहीं है कि मोदी भाषणों में अपनी इस बदलती छवि का इशारा कर रहे हों. मोदी सरकार की विदेश नीति में इसकी झलक दिखाई दे रही है.

साल 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि बीजेपी के इजरायल प्रेम के चलते पश्चिम एशिया के प्रति भारत की परंपरागत विदेश नीति में आमूलचूल बदलाव आ सकता है. इजरायल के साथ तो मोदी सरकार ने संबंध और मजबूत किए ही लेकिन इस्लामी देशों के प्रति भी भारत की विदेश नीति में कोई बदलाव नहीं आया.

मोदी अगर इजरायल जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने तो वेस्ट बैंक में फिलिस्तीन की धरती पर कदम रखने वाले भारत इकलौते प्रधानमंत्री मोदी ही हैं.

फिलिस्तीन के लिए अमेरिका के खिलाफ किया मतदान

इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भारत दौरे से महज एक महीने पहले ही जब संयुक्त राष्ट्र संघ में येरुशलम को इजरायल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने के अमेरिका के फैसले के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया तो भारत पर सभी की निगाहें लगी थीं. मौजूदा अंतरराष्ट्रीय हालात में अमेरिका के साथ बढ़ी नजदीकियों के बावजूद मोदी सरकार ने इस प्रस्ताव में अमेरिका-इजरायल के खिलाफ मतदान करके संकेत दिए वह येरुशलम को लेकर इस्लामी देशों की भावनाओं के साथ खड़ी है.

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इससे पहले साल 2016 में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की ईरान यात्रा के दौरान उनकी हिजाब पहन कर ईरान के नेताओं से मुलाकात की तस्वीरों ने भी मोदी सरकार की प्राथमिकताओं की ओर इशारा किया था. हाल ही में अरब देशों की यात्रा के दौरान यूएई और ओमान में मोदी के हुए स्वागत से यह संकेत मिलता है कि भारत में और किसी हद तक दुनिया में मुस्लिम विरोधी छवि होने के बावजूद इस्लामी जगत में मोदी एक मुकाम हासिल करने में कामयाब रहे हैं.

प्रतीत होता है मोदी इसी मुकाम को अब और अधिक पुख्ता करने की कोशिश में जुटे हैं.

नवंबर 2011 में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर तमाम टेलीविजन कैमरों की मौजूदगी में मोदी ने एक मुस्लिम इमाम के हाथों स्कल टोपी पहनने से इनकार करके देश की जनता के साथ प्रतीक या संकेतों के जरिए एक संवाद स्थापित किया था.

उस वक्त 2014 के आमचुनाव में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद की उनकी दावेदारी उतनी मजबूत नहीं थी. लेकिन इस वाकए ने दक्षिणपंथी पार्टी बीजपी के कैडर में उनके ‘हिंदू हृदय सम्राट’ होने  की इमेज को पुख्ता कर दिया था जो बाद में उनकी दावेदारी और फिर भारी चुनावी जीत की बड़ी वजह भी बनी.

मोदी अब साल 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के प्रेत को पीछे छोड़ना चाहते हैं. उनके मुख्यमंत्री रहते हुए, गुजरात में हुए दंगों के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट तो उन्हें निर्दोष करार चुकी है लेकिन मोदी अपनी बेगुनाही की स्वीकारोक्ति पूरे विश्व से चाहते हैं. शायद यही वजह है कि वह अब ‘हिंदू ह्रदय सम्राट’ से स्टेट्समैन बनने की राह पर चल रहे हैं.