होली के रंगो के बीच बीजेपी ने नार्थ ईस्ट में भगवा लहरा दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के लिए रंगों के इस त्यौहार पर इससे शानदार तोहफा कुछ हो ही नहीं सकता था. नार्थ ईस्ट की सात बहनों के लिए बीजेपी एक बड़े और शक्तिशाली भाई के रुप में उभर गया है.
पूरे देश में त्रिपुरा वामपंथी दलों का बचा हुआ आखिरी किला था लेकिन लाल झंडे वाले इस अभेद किले का रंग अब लाल से बदल कर भगवा हो गया है. लेफ्ट फ्रंट के साथ कथित पूरे सेक्यूलर और लिबरल फोर्सेस के लिए बीजेपी की ये जीत किसी सदमे से कम नहीं हैं. बीजेपी त्रिपुरा के ताज का नया ‘माणिक’ बन गया है.
क्रिश्चियन बहुल आबादी वाले उत्तर पूर्वी राज्य नागालैंड में भी बीजेपी सरकार बनाने के लिए अग्रसर है. वहां वो अपने सहयोगी एनडीपीपी या अपने पुराने मित्र एनडीएफ के साथ मिलकर सरकार बना सकता है. क्रिश्चियन बहुलता आबादी वाले एक और राज्य मेघालय की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है क्योंकि यहां पर किसी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला है. लेकिन यहां भी मणिपुर जैसी स्थिति बनने से इंकार नहीं किया जा सकता जहां बीजेपी ने चुनाव में कांग्रेस के बड़ी पार्टी होने के बाद भी उसे सत्ता से दूर कर दिया था. ऐसा होता है तो कांग्रेस के हाथ से एक और राज्य छिन जाएगा.
कांग्रेस के खिलाफ वोट
अगर चुनाव परिणामों को ध्यान से देखा जाए तो पता चलेगा कि मेघालय में ये वोट कांग्रेस के खिलाफ पड़ा है जो राज्य में पिछले 10 सालों से शासन में है. एनपीपी जो कि कांग्रेस जितनी ही बराबर के सीटों पर काबिज है, वो बीजेपी के साथ जाने के लिए तैयार है हालांकि बीजेपी और एनपीपी दोनों ने अलग अलग चुनाव लड़ा था. इसके अलावा कई और दल हैं जो एनपीपी और बीजेपी के साथ सत्ता के लिए हाथ मिलाने को तैयार बैठे हैं. ये खास इसलिए है क्योंकि यहां पर चर्च ने बीजेपी को हराने के लिए अपने सारे घोड़े खोल दिए थे इसके बावजूद बीजेपी ने यहां पर बढ़िया प्रदर्शन किया. मतलब साफ है कि चर्च के फरमान को वहां के क्रिश्चियनों ने अंगूठा दिखा दिया.
बीजेपी की इस जीत ने विरोधियों और इसके आलोचकों के मुंह पर ताला जड़ दिया है जो इसे उत्तर भारतीयों, हिन्दी पट्टियों और हिंदूओं की पार्टी होने का तमगा दिए घूमते फिरते थे और दावा करते थे कि ये बीफ खाने वाले लोगों की विरोधी और केवल शाकाहारी लोगों की पार्टी है. इस प्रदर्शन के बाद पार्टी का अखिल भारतीय पार्टी होने का दावा सही प्रतीत होता है. पार्टी की 15 राज्यों में अपनी सरकार है जबकि 5 अन्य राज्यों में ये सहयोगियों के साथ मिलकर सत्ता में हैं.
अभूतपूर्व जीत
बीजेपी की त्रिपुरा की जीत शानदार और अभूतपूर्व है. यहां पर पिछले चुनाव यानि 2013 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को केवल डेढ़ प्रतिशत वोट मिला था,कोई सीट नहीं मिली थी और यहां तक कि अधिकतर उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई थी. लेकिन इसके महज पांच सालों के बाद 3 मार्च 2018 को राज्य में पूरी तस्वीर बदल गई. बीजेपी ने इस चुनाव में यहां न केवल बहुमत प्राप्त किया है बल्कि अपने नए सहयोगी इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा यानी आईपीएफटी के साथ मिलकर दो तिहाई सीटें 50 फीसदी वोटों के साथ जीत ली है.
त्रिपुरा में सिफर से शिखर तक का बीजेपी का ये सफर राजनीति शास्त्र के छात्रों के लिए एक केस स्टडी बन सकता है. बीजेपी के विरोधियों को भी बीजेपी की इस जीत से सबक लेना चाहिए कि किस तरह से चुनाव प्रबंधन किया जाता है और कैसे राज्य स्तर से लेकर बूथ स्तर तक बेहतर प्रबंधन से वोटरों को अपने पक्ष में वोट देने के लिए तैयार किया जा सकता है.
बीजेपी की इस धमाकेदार जीत ने सीपीआई (एम) के बोलता बद कर दी है. बीजेपी की इस शानदार जीत की धमक ने सीपीआई (एम) को इतने गहरे सदमे में डाल दिया है कि वो किसी तरह का बयान देने में भी घबरा रही है. लेफ्ट फ्रंट का हालांकि पूरे देश में बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है लेकिन इसके बाद भी उनपर एनडीए के इस शासन से पहले तक उन्हें बौद्धिक और तार्किक होने का ठप्पा लगा रहता था लेकिन पश्चिम बंगाल के बाद आखिरी किले के रुप में बचे त्रिपुरा के गढ़ के भी ध्वस्त हो जाने के बाद उन पर लगा ये ठप्पा भी समाप्त हो गया.
त्रिपुरा में वाम दलों का शासन 1977 से चल रहा है हालांकि 1988-93 में पांच वर्षों तक वहां कांग्रेस का शासन रहा. उसके बाद से लगातार पच्चीस सालों से वहां वाम दलों ने अपनी सत्ता बरकरार रखी थी. माणिक सरकार वहां वर्ष 98 से मुख्यमंत्री पद पर बने हुए थे. लेकिन वहां लगातार 25 साल शासन करने के बाद भी सीपीआई (एम) ने राज्य में विकास के बजाए अपने 2 दशक से मुख्यमंत्री बने माणिक सरकार की गरीबी को बेचा.
होना ये चाहिए था कि जिस राज्य में पार्टी ने 35 सालों तक शासन किया था उसे पूरे देश सामने मॉडल राज्य के जैसा पार्टी को प्रस्तुत करना चाहिए था. लेकिन पार्टी इसमें पूरी तरह से विफल रही. सीपीआई (एम) की सरकार न तो यहां पर आधारभूत ढ़ांचा स्थापित कर पाई और न ही व्यापार और व्यापारियों को बिजनेस का माहौल दे सकी. यहां के लोगों का जीवन स्तर भी नागरिकों के आशानुरुप ऊपर नहीं उठ सका. नतीजा सब के सामने है.
बीजेपी की इस जीत ने बीजेपी के कार्यकर्ताओं और नेताओं को उत्साहित कर दिया है. दिल्ली में पार्टी के केंद्रीय कार्यालय सहित अन्य राज्य के बीजेपी कार्यालयों में जश्न पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर कार्यकर्ताओं और नेताओं के विश्वास को गहरा करता है. नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने अपनी क्षमताओँ का विस्तार करते हुए वो मुकाम बनाया है जिसके आधार पर वो शून्य से शिखर तक पहुंच तक मजबूत किलों की भी धज्जियां उड़ाने की ताकत रखते हैं.
इस जीत ने हाल ही में कर्नाटक और साल के अंत में राजस्थान,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए बीजेपी कार्यकर्ताओ में जोश भर दिया है. हालांकि एक राज्य के परिणाम दूसरे राज्य के चुनाव परिणामों पर शायद ही असर डालते हैं लेकिन एक जीत पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं का मनोबल बढ़ा देती है और उनके अंदर इस विश्वास का संचार करती है कि वो एक बार फिर से जीत को दोहरा सकते हैं. चाहे वो निगम का चुनाव हो,राज्य का चुनाव हो या लोकसभा का जीत उनकी आदत में शुमार हो गई है.
नार्थ ईस्ट में बीजेपी के शानदार प्रदर्शन को 2019 के नजरिए से भी देखा जाना चाहिए. बीजेपी के नए सहयोगियों और नार्थ ईस्ट में उसके मजबूत होने से अगर आगामी लोकसभा चुनावों में बीजेपी के उत्तर के मजबूत गढ़ों में से अगर कुछ सीटों में कमी भी होती है तो वो नार्थ ईस्ट से भरपाई हो सकती है.
बीजेपी के चौबीसों घंटे एक्टिव रहने वाले चुनावी जंग मशीनों और मोदी-शाह की जोड़ी के उन पर लगातार नजर रखने के विपरीत कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इन दिनों इटली में हैं. बकौल राहुल, वो होली की छुट्टियों में अपनी 93 वर्षीय नानी को सरप्राइज देने के लिए इटली जा रहे हैं. कांग्रेस का त्रिपुरा में सफाया हो गया है और नागालैंड में पार्टी का सरकार बनाने में महत्व खत्म हो गया है. कांग्रेस को चुनाव परिणाम का एहसास पहले ही हो गया था इसलिए सुबह से ही कांग्रेस कैंप में उत्साह की कमी थी.
शुरुआती रुझान आने के साथ ही कांग्रेस अपने बुरे प्रदर्शन को लेकर बचाव के मुद्रा में आ गई थी. कांग्रेस के प्रवक्ता ने चुनाव के शुरुआती परिणामों को देखते हुए राज्यसभा टीवी पर एलान किया कि तीनों नार्थ ईस्टर्न कांग्रेस की हार नहीं हुई बल्कि लोकतंत्र की हार हुई है. उनकी ये टिप्पणी इस थ्योरी पर आधारित थी कि वहां पर ईवीएम से छेड़छाड़ हुई थी लेकिन अफसोस की बात ये थी कि उनकी इस थ्योरी पर सहानुभूति जताने वाला कोई नहीं था. कमल को नार्थ ईस्ट में अपना नया ठिकाना मिल गया है और भगवा इस क्षेत्र का पसंदीदा रंग है.
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