अभी देश में जो सियासी माहौल है उसे देखते हुए न्यूज मीडिया के दशा और दिशा पर बात करना बहुत जरूरी हो गया है. मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने के लिए राजसत्ता मुख्य रूप से दो तरीके अपनाती है.
एक तरीका पत्रकारों और प्रोमोटरों को धमकाने का है ताकि पत्रकार और न्यूज मीडिया के कर्ता-धर्ता सिर झुकाए आपकी जी-हजूरी करता नजर आएं. सियासी हलकों में यह अफवाह हमेशा उड़ते रहती है कि सरकार की नीतियों को लेकर आलोचना का रुख रखने वाले मीडिया समूहों को सत्ताधारी लोग धमकी दे रहे हैं, बांह मरोड़ रहे हैं क्योंकि इन मीडिया समूहों ने सत्तापक्ष के विरोध का रास्ता चुना है.
चूंकि सोशल मीडिया का स्वभाव बड़ा लोकतांत्रिक है तो ऐसे अफवाहों को खास तवज्जो भी मिलती है. इन अफवाहों पर बहस होती है, उन्हें ट्वीट किया जाता है लेकिन प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने के तरीके हमेशा ढंके-छुपे रहते हैं और ये तरीके कारगर बने रहते हैं.
लोकतंत्र के लिए खतरनाक है राजस्थान सरकार का बिल
मीडिया पर अंकुश लगाने का दूसरा तरीका बड़ा सीधा और औपचारिक किस्म का है और इसे राजस्थान सरकार के संशोधन-प्रस्ताव में देखा जा सकता है. वसुंधरा राजे सरकार का एक ऐसा कानून लाना चाहती है जिसमें मीडिया को बिना सरकारी अनुमति के अधिकारियों के बारे में रिपोर्टिंग करने या उनके बारे में तफ्तीश करने से मना किया गया है. जाहिर है, यह कानून अनैतिक बरताव या फिर भ्रष्ट आचरण के मामले में सरकारी अधिकारियों को एक किस्म से अभयदान देने का मामला है.
ऐसे कानून को लेकर पहली प्रतिक्रिया अविश्वास की होगी, यकीन ही ना होगा कि ऐसा भी कानून आ सकता है. यह सीधे-सीधे भ्रष्टाचार के बारे में हो रही रिपोर्टिंग का गला घोंटने के समान है बल्कि यह भी संकेत निकलता है कि सरकार के खिलाफ मीडिया में कुछ ना लिखा-बोला जाए. एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र में ऐसे कानून का प्रस्ताव लाना ना सिर्फ दिमाग को चक्करघिन्नी खिलाने जैसा है बल्कि सीधे-सीधे असंवैधानिक भी है. अगर इस देश की जनता और हमारे लोकतंत्र की संस्थागत प्रक्रियाओं की कोई भी दखल कानून बनाने के ऐसे प्रस्ताव के बारे में है तो फिर मुझे नहीं लगता कि वसुंधरा सरकार का निंदनीय आदेश कभी अमल में आ सकेगा.
छिपा तरीका ज्यादा खतरनाक है
सो, प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने का पहला तरीका कहीं ज्यादा खतरनाक है क्योंकि एक तो यह ढंका-छुपा है, धीमे ही सही लेकिन छल-कपट के सहारे बड़ी महीनी से मार करता है और फिर इस तरीके पर लोगों की नजर भी नहीं जाती. सो जैसी आलोचना राजस्थान सरकार के आदेश की हुई वैसी आलोचना और नुक्ताचीनी इस ढंके-छुपे तरीके की नहीं हो पाती. देश की राजनीति का एक चलन पत्रकारों की बांह मरोड़कर उन्हें कुछ चुनिंदा राह पर चलने के लिए मजबूर करने और सत्ता के सिंहासन पर जो सरकार है उसकी गोदी में बैठाने का है. और यह तरीका अभिव्यक्ति की आजादी के लिए कहीं ज्यादा खतरनाक है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मीडिया का अपना कोई दोष नहीं और वह खुद किसी निहत्थे शिकार की तरह है जिसे सियासी रूप से ताकतवर लोग अपने चपेटे में ले लेते हैं. एक जरूरत यह भी है कि हम मीडिया की भी जांच-परख करें.
भारत में, मुख्यधारा की मीडिया की एक बड़ी आलोचना यह कहकर होती है कि वह मौजूदा सरकार की पिछलग्गू है और मौजूदा सरकार को लेकर उसके तौर-तरीके वैसे तीखे नहीं हैं जैसे कि पिछली सरकार को लेकर थे. इसके उलट अमेरिकी मीडिया की आलोचना यह कहकर होती है कि उसने कुछ ज्यादा ही सत्ता-विरोधी रुख अपना रखा है.
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इन दोनों बातों के कारण लोगों को ऐसे समाचार नहीं मिल पाते हैं जो वस्तुनिष्ठ और पूर्वाग्रह से मुक्त हों जबकि किसी लोकतंत्र में नागरिक को ऐसे समाचार हासिल करने का हक है.
ऐसे में हमारे सामने सवाल उठता है कि कि मीडिया और समाचार की संस्थाओं का नियमन कैसे हो. एक दशक पहले ब्रॉडकास्ट बिल के नाम से नियमन का एक फ्रेमवर्क आया था लेकिन प्रेस और न्यूज मीडिया की बिरादरी ने इसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि राजसत्ता मीडिया के मामले में दखलंदाजी कर रही है. उस वक्त मीडिया-बिरादरी का तर्क था कि स्व-नियमन (सेल्फ रेग्युलेशन) होना चाहिए.
अपने नियम खुद तय करे मीडिया
ऐसे में जिम्मेवारी मीडिया की बनती है कि वह जवाबदेही और वस्तुनिष्ठता की संस्कृति को बढ़ावा दे. ब्राडकॉस्ट बिल के खारिज होने के बाद के वक्त में मीडिया का क्या रिकॉर्ड रहा है? क्या स्व-नियमन की उनकी कोशिश कामयाब रही? क्या मीडिया की काउंसिल और एसोसिएशनों ने पत्रकारों को उनके किसी अनैतिक बरताव के लिए दंडित किया? जान पड़ता है, इन सवालों के उत्तर ज्यादातर ‘ना’ में हैं.
लगता तो ये है कि रेग्युलेशन का एक ही तरीका कारगर हो सकता है और यह न्यूज मीडिया के उपभोक्ताओं की तरह से आयद किया जा सकता है. न्यूज मीडिया के उपभोक्ता को चौकन्ना होना चाहिए, उसे अपने विश्लेषण में हरचंद आगाह होना चाहिए कि उसे कैसे समाचारों की घुट्टी पिलायी जा रही है और ऐसे समाचारों की अंदरुनी राजनीति क्या है.
इसके अतिरिक्त, अगर कोई पत्रकार समाचारों को सनसनीखेज बनाकर पेश करता दिखे या फिर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करता जान पड़े तो पत्रकार बिरादरी को चाहिए कि वह सार्वजनिक मंचों से इस बात पर लोगों का ध्यान खींचे, तथ्यों के साथ तोड़-मरोड या सनसनी का बरताव करने वाले पत्रकार की टोका-टाकी हो भले ही उसे दंडित ना किया जाए.
अब वक्त आ गया है कि मीडिया आत्म-परीक्षण करे, पत्रकारिता की अपनी कसौटियों और नैतिकता को तौले. प्रिंट मीडिया पत्रकारिता का सबसे निथरा और शुद्ध रूप है और 24 घंटे के उसका समाचार-चक्र बौद्धिक बहसों से भरा रहता है सो उसे बहुत ध्यान रखना होगा कि गंभीर किस्म की पत्रकारिता और मनोरंजन के बीच फर्क होता है.
खैर, ये बातें तो हैं ही लेकिन इन सबके बाद यह भी कहना जरूरी है कि मीडिया का होना बहुत जरूरी है चाहे वह पूर्वाग्रह से भरी हो और कभी-कभार बेईमान ही क्यों ना जान पड़े. यह स्थिति निश्चित ही उस स्थिति से बेहतर कहलाएगी जहां निरंकुश सरकारें पत्रकारों और समाचार की संस्थाओं का गला घोंटती हैं या फिर सियासी तौर पर बांह मरोड़ने के काम में लगी हैं.