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मायावती जी यह सामाजिक न्याय तो नहीं!

क्या बाबा साहेब सिर्फ जातीय गोलबंदी कर सत्ता हासिल करने और पारिवारिक हित साधने के माध्यम भर हैं

Rajendra P Misra

बहुजन समाज पार्टी की रैलियों में एक नारा अक्सर गूंजता है- 'संविधान को किसने बनाया? बाबा साहेब...बाबा साहेब.' लेकिन क्या इस पार्टी का बाबा साहेब के विचारों और आदर्शों से कोई वास्ता है? क्या बाबा साहेब सिर्फ जातीय गोलबंदी कर सत्ता हासिल करने और पारिवारिक हित साधने के माध्यम भर हैं?

हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बीएसपी को करारी शिकस्त मिली. दलित और मुसलमानों की सियासी गोलबंदी की मायावती की चुनावी रणनीति नाकाम रही. ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि मायावती अपने खोए जनाधार को वापस हासिल करने के लिए संघर्ष का रास्ता चुनेंगी.


आखिर आनंद कुमार के भीतर भाई होने के अलावा क्या योग्यता है?

उन्होंने ईवीएम के मुद्दे पर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलकर इसके संकेत भी दिए. लेकिन बाबा साहेब की जयंती पर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर उन्होंने अपने विरोधियों को अपने खिलाफ एक बड़ा हथियार तो दिया ही, साथ ही यह भी जता दिया कि बीएसपी के लिए सामाजिक न्याय की अवधारणा सिर्फ परिवार की भलाई तक सीमित है.

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यह सवाल उठना बेहद लाजिमी है कि आनंद कुमार का राष्ट्रीय राजनीति में अवतरण दलितों के उत्थान में कितना मददगार होगा?

बीएसपी प्रमुख मायावती का भाई होने के अलावा आनंद कुमार में ऐसी कौन सी सियासी योग्यता जो सामाजिक न्याय के आंदोलन को आगे बढ़ाने में कारगार होगा? क्या यह मायावती की अपने भाई को भ्रष्टाचार के मामलों से बचाने की एक कोशिश भर नहीं है?

आनंद कुमार पर बहुतेरे मामले

तस्वीर: आनंद कुमार-मायावती (तस्वीर: न्यूज़ 18)

आनंद कुमार जब भी सुर्खियों में आते हैं, गलत वजहों से ही आते हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इसी साल जनवरी में आयकर विभाग की रिपोर्ट से सियासी हलकों में हड़कंप मच गया था.

आयकर विभाग के मुताबिक आनंद कुमार के पास 1300 करोड़ रुपए की संपत्ति है. 2007 में उनकी कुल संपत्ति 7.5 करोड़ रुपए थी. उनकी कंपनियों ने पिछले सात सालों में 18000 फीसदी तक लाभ अर्जित किया.

आयकर विभाग की जांच के दायरे में आए इन सात सालों में 2007 से 2012 तक की पांच साल की वह अवधि भी शामिल है, जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं.

आनंद कुमार स्याह से सफेद करने के खेल के मास्टर माने जाते हैं. 2011 में बीजेपी नेता किरीट सोमैया ने आनंद कुमार की 26 फर्जी कंपनियों की लिस्ट जारी की थी.

आरोप था कि आनंद कुमार इन कंपनियों के जरिए काले धन को सफेद करते हैं. मायावती जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं तो ये चर्चा आम थी कि आनंद कुमार पैसा कमाने के काम में जी-जान से जुटे रहते हैं.

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माना जाता है कि दिल्ली से सटे नोएडा और ग्रेटर नोएडा में आनंद कुमार के पास तमाम बेनामी संपत्तियां हैं. मायावती के कार्यकाल में खासतौर से रियल एस्टेट सेक्टर में आनंद कुमार की तूती बोलती थी. दिल्ली-एनसीआर के बिल्डर अनौपचारिक बातचीत में इस बात को कबूल भी करते हैं.

हालांकि मायावती पर भी भ्रष्टाचार के कम आरोप नहीं हैं, लेकिन उनका एक सियासी कद है. लेकिन आनंद कुमार को किस राजनीतिक योग्यता के आधार पर सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया, इस सवाल का जवाब देना मायावती के लिए आसान नहीं होगा.

व्यक्तिपूजा से परिवारवाद तक

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद भी मायावती ने सबक नहीं लिया है. वह जिस बाबा साहेब की दिन रात दुहाई देती हैं, वह शायद ही उनकी किसी बात को मानती हों.

बाबा साहेब ने सियासत में व्यक्तिपूजा का कड़ा विरोध किया था. उनका मानना था कि व्यक्तिपूजा तानाशाही को जन्म देता है. बाबा साहेब के इस कथन को हमने अपने देश में चरितार्थ होते भी देखा है.

एक वक्त था जब कांग्रेस के कुछ नेताओं ने इंदिरा गांधी की भक्ति में हर सीमा लांघ दिया था. इंदिरा गांधी की चापलूसी में लगाया गया 'इंडिया इज इदिरा, इंदिरा इज इंडिया' का नारा अब भी लोगों के जेहन में ताजा है.

देश इस भक्ति की सजा 1975 में भुगत चुका है. मायावती को व्यक्तिपूजा से कभी परहेज नहीं रहा. उनके जन्मदिन पर होने वाले जश्न इस बात के सबूत हैं.

विरासत की हिफाजत नहीं

मायावती को कांशीराम की विरासत मिली. कांशीराम एक बेजोड़ संगठनकर्ता थे जो गैर-बराबरी वाले सामाजिक हालात को सियासती ताकत में बदलने की कला जानते थे.

उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर अपने किसी रिश्तेदार को नहीं, बल्कि स्कूल की एक अध्यापिका मायावती को चुना. लेकिन कांशीराम के निधन के बाद मायावती ने पूरी पार्टी को अपनी निजी जागीर बना डाला.

मायावती ने पार्टी में किसी और नेता को पनपने नहीं दिया. सोनेलाल पटेल से लेकर आर के चौधरी, स्वामी प्रसाद मौर्य तक, जिसने भी सर उठाने की कोशिश की, उसे ठिकाने लगा दिया.

माया के नेतृत्व में सिमट गया बीएसपी 

नब्बे के दशक में बीएसपी का थोड़ा बहुत जनाधार उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड में भी था, जिसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी मायावती की थी. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के ढांचे और नेतृत्व की जरूरत थी. लेकिन मायावती की नजर सिर्फ उत्तर प्रदेश की सत्ता पर थी.

मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार कभी बहुमत से तो कभी उन दलों के सहयोग से मुख्यंत्री बनीं जिनके खिलाफ बीएसपी का जन्म हुआ था. उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का ढांचा खड़ा ही नहीं होने दिया.

आनंद कुमार को चुनना सामाजिक न्याय पर बट्टा 

लेकिन अब मायावती ने अपने भाई को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया है और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के कामकाज देखने की जिम्मेदारी दी है.

इसके दो मायने हैं– पहला, बीएसपी भी अब परिवारवाद की उस राजनीति का हिस्सा बन गई है जो अन्य दलों में बहुत पहले से चला आ रहा है.

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दूसरा, भले ही मायावती यह बात कहें कि आनंद कुमार चुनाव नहीं लड़ेंगे और सांसद, मंत्री या मुख्यमंत्री का ख्वाब नहीं देखेंगे, आनंद कुमार की मौजूदा छवि सामाजिक न्याय के आंदोलन पर बट्टा ही लगाएगी.

अगर मायावती को वास्तव में बहुजन समाज की चिंता है तो उन्हें परिवार का मोह छोड़कर दलितों-पिछड़ों को बाबा साहेब के इस नारे पर चलने के लिए प्रेरित करना होगा कि 'शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो.'

यदि वह दलितों-पिछड़ों को शिक्षित और संगठित करने में कामयाब होती हैं तो बहुजन के जरिए उनके पास सत्ता की चाबी खुद-ब-खुद आ जाएगी.