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आखिर मध्यप्रदेश में कांग्रेस को एसपी-बीएसपी का साथ क्यों जरूरी है?

पिछले डेढ़ दशक में कांग्रेस में उत्पन्न हुई नेतृत्व की कमी का पूरा लाभ भारतीय जनता पार्टी ने उठाया

Dinesh Gupta

पिछले डेढ़ दशक से सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस के नेताओं को यह चिंता सता रही है कि साल के के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में यदि बीजेपी विरोधी मतों का ध्रुवीकरण नहीं रोका गया तो इस बार भी सत्ता हाथ फिसल सकती है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इस कोशिश में लगे हुए हैं कि मध्यप्रदेश में बीएसपी और एसपी कांग्रेस से समझौता कर चुनाव लड़ें. कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी बीएसपी से गठबंधन कर चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. कांग्रेस ने इससे पहले कभी भी मध्यप्रदेश में बीएसपी और एसपी का साथ लेना स्वीकार नहीं किया था.

बुंदेलखंड और चंबल में है एसपी-बीएसपी का प्रभाव


मध्यप्रदेश में गठबंधन की राजनीति के लिये बहुत अधिक गुंजाइश नहीं है. द्विदलीय राजनीति वाले इस राज्य में हाथ और हाथी मिल जाएं तो कई समीकरण बदल सकते हैं. मध्यप्रदेश में बीएसपी का उदय 1990 में हुआ. 28 साल के लंबे अंतराल के बाद भी मध्यप्रदेश में बीएसपी तीसरी ताकत नहीं बन पाई. 1996 के लोकसभा चुनाव में सतना से बीएसपी उम्मीदवार सुखलाल कुशवाह की जीत ने जरूर सभी को चौंकाया था. इस चुनाव में भाजपा से पूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा और तिवारी कांग्रेस से राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह मैदान में थे. तिवारी कांग्रेस बनाकर चुनाव मैदान में उतरे अर्जुन सिंह तीसरे नंबर पर रहे थे.

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बहुजन समाज पार्टी राज्य की अस्सी से अधिक सीटों पर अपना असर रखती है. समाजवादी पार्टी का प्रभाव बुंदेलखंड की दो दर्जन से अधिक सीटों पर हैं. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का वोट बैंक भी अलग-अलग है. बहुजन समाज पार्टी का वोट बैंक अनुसूचित जाति वर्ग है. जबकि समाजवादी पार्टी यादव और अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटरों पर फोकस करती है.

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कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी के चुनाव मैदान में होने से होता है. कांग्रेस के इस परंपरागत वोटर को तोड़ने की कोशिशें कांशीराम के जमाने से चल रही हैं. मायावती ने इसी प्रयास को आगे बढ़ाया. राज्य में विधानसभा की 230 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिये 116 सीटों की जरूरत होती है. इसमें बीएसपी की भूमिका कांग्रेस का खेल बिगाड़ने की होती है.

दिग्विजय के दलित एजेंडा से हुआ कांग्रेस को नुकसान

वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह लगातार दूसरी बार कांग्रेस की सरकार बनाने में सफल रहे थे. सरकार बन जाने के बाद दिग्विजय सिंह ने बहुजन समाज पार्टी को कमजोर करने के लिए दलित एजेंडा पर तेजी से काम करना शुरू कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ है कि कांग्रेस को अपने सवर्ण और पिछड़ा वर्ग के वोटरों से भी हाथ धोना पड़ा. वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथ से जो सत्ता फिसली वह वापस झोली में नहीं आ सकी. कांग्रेस की सबसे बुरी गत 2003 में ही हुई थी. कुल 38 सीटों पर वह सिमट गई थी.

बीएसपी ने 1990 में साढ़े तीन प्रतिशत वोटों के साथ अपना सफर शुरू किया था. वह दो सीटें हासिल करने में सफल रही थी. इसके बाद 1993 और 1998 में क्रमश: 7.02 और 6.04 प्रतिशत वोट हासिल कर 11-11 सीटें उसने हासिल की. दिग्विजय सिंह विरोधी लहर और उमा भारती के धुंआधार प्रचार वाले 2003 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी दो सीटों पर सिमटी, लेकिन उसने वोटों का प्रतिशत बढ़ाकर 7.26 कर लिया.

यहां बीएसपी के सीटों में गिरावट की बढ़ी वजह चुनाव के ठीक पहले प्रदेश अध्यक्ष फूल सिंह बरैया और मायावती के बीच हुआ घमासान रहा. यद्यपि 16 सीटों पर बीएसपी दूसरे नंबर पर रही. इसके बाद 2008 में 7 सीटें प्राप्त की. वोटों का प्रतिशत भी बढ़ाया और 8.72 तक पहुंच गई. मध्यप्रदेश विधानसभा के 2013 के चुनाव में भी बीएसपी को साढ़े छह प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ चार सीटें मिलीं थीं. बीएसपी के कार्यालय मंत्री राजाराम कहते हैं कि हमारे दल में हर फैसला बहनजी लेती हैं. मध्यप्रदेश में बीएसपी ड्राइविंग सीट पर आने के प्रयासों में जुटी है. हमारी कोशिश इस बार यह है कि हमारे बगैर सरकार नहीं बन पाए.

समाजवादी पार्टी नहीं दिखा सकी है कमाल

मध्यप्रदेश राज्य की सीमाएं उत्तरप्रदेश से लगी हुई हैं. इस कारण समाजवादी और बहुजन समाजवादी पार्टी दोनों ही यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती हैं. समाजवादी पार्टी को वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में पहली बार चार सीटें मिली थीं. कुल 94 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. कुल 4.83 प्रतिशत वोट मिले थे. एसपी को दो सीटें चंबल संभाग में और दो सीटें बुंदेलखंड में मिली थीं. चुनाव जीते चारों उम्मीदवारों का अपना असर था. अन्य दलों से बगावत कर एसपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे.

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इससे पहले वर्ष 1993 में 109 उम्मीदवार मैदान में थे. कोई नहीं जीत पाया. सभी की जमानत जप्त हो गई थी. वर्ष 2003 की कांग्रेस लहर में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा था. 5.26 प्रतिशत वोट के साथ आठ सीटें एसपी को मिली थीं. बुंदेलखंड के अलावा बघेलखंड में भी पार्टी ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी. लेकिन, 2008 के चुनाव में केवल एक सीट से ही एसपी को संतोष करना पड़ा था. 1.89 प्रतिशत वोट मिले थे. वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में एसपी पूरी तरह साफ हो गई. मात्र 1.20 प्रतिशत वोट मिले. कुल 164 उम्मीदवारों में 161 की जमानत जब्त हो गई थी.

नेतृत्व की कमी से कमजोर हुई कांग्रेस

वर्ष 2003 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने मध्यप्रदेश को अपनी प्राथमिकता से ही बाहर कर दिया. दिग्विजय सिंह के प्रति वोटरों की जो नाराजगी उनके मुख्यमंत्री रहते थी, वह उनके सत्ता से हटने के बाद भी लगातार बनी रही. दिग्विजय सिंह ने भी राज्य की राजनीति से अपने आपको अलग कर लिया. उनके समर्थक भी निष्क्रिय होकर घर बैठ गए. ज्योतिरादित्य सिंधिया राजनीति में नए-नए आए थे.

पिता माधवराव सिंधया के निधन के बाद वर्ष 2002 में वे सक्रिय राजनीति में आए थे. राज्य की राजनीति से भी वे पूरी तरह परिचित नहीं थे. कमलनाथ की राजनीति पूरी तरह से दिल्ली पर केंद्रित रही. वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बन जाने का भी नुकसान कांग्रेस को हुआ.

लोकसभा में लगातार दो चुनाव हारने के बाद अर्जुन सिंह की भी स्थिति कमजोर हुई थी. अर्जुन सिंह वर्ष 2009 तक केंद्र में मंत्री रहे. राज्य की सत्ता गंवाने के कुछ माह के भीतर ही वर्ष 2004 में कांग्रेस को केंद्र में सत्ता मिल गई. केंद्र में सत्ता मिल जाने के बाद पार्टी के सभी बड़े नेताओं ने जमीनी राजनीति छोड़कर दिल्ली की राजनीति शुरू कर दी.

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इस दौरान राज्य के नेतृत्व को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता रहा. वर्ष 2008 का विधानसभा चुनाव पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी के नेतृत्व में लड़ा गया था. सुरेश पचौरी ने इससे पहले कभी कोई चुनाव भी खुद नहीं लड़ा था. वर्ष 2013 के चुनाव की जिम्मेदारी कांतिलाल भूरिया को आदिवासी होने के कारण दी गई. वे आदिवासी क्षेत्रों में भी कांग्रेस को नहीं बचा पाए.

पिछले डेढ़ दशक में कांग्रेस में उत्पन्न हुई नेतृत्व की कमी का पूरा लाभ भारतीय जनता पार्टी ने उठाया. साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा अनुसूचित जाति और जनजाति के वोटों को अपने पक्ष में करना चाहती है. इस वोट बैंक को बचाने के लिए कांग्रेस के पास सिर्फ गठबंधन से चुनाव लड़ने का विकल्प है. राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में उसे गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और जयस जैसे संगठनों से भी समझौता करना पड़ सकता है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)