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मध्य प्रदेश चुनाव: ग्वालियर की सड़कों पर बिक रहे गुड़ की 'मिठास' शिवराज का जायका बिगाड़ सकती है

किसान शायद ही कभी सौदागरी करते हैं. लेकिन ग्वालियर के किसानों को चीनी मिलों के बंद होने के चलते अब गुड़ बेचना पड़ रहा है

Ajay Singh

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान रिकार्ड चौथी दफे अपने पद के लिए चुनावी होड़ में हैं. जोरदार चुनाव-प्रचार के मशक्कत भरे वक्त में, अच्छा होगा कि वो कुछ घंटे आराम के गुजारें और आराम के इन घंटों में 1973 की फिल्म सौदागर देखें, जिसमें मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन ने निभाई है.

गुड़ बनाने के मसले के इर्द-गिनी बुनी गई ‘सौदागर’ एक बेहतरीन फिल्म है. फिल्म में नूतन ने एक विधवा का किरदार निभाया है जिसे खजूर के पेड़ के रस से गुड़ बनाने में महारत हासिल है. गुड़ बनाने के उसके हुनर के कारण ही फिल्म का नायक (अमिताभ बच्चन) उससे ब्याह करता है और पैसे कमाने के बाद उसे छोड़ देता है. इसके बाद वह एक नौजवान लड़की (पद्मा खन्ना) से ब्याह रचाता है. यह दूसरी ब्याहता गुड़ बनाना नहीं जानती सो फिल्म में नायक को गुड़ के खरीदार भी कम ही मिलते हैं और सौदागर का सौभाग्य उससे रूठने लगता है. मानवीय भावनाओं की जटिलता, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और समाज को फिल्म में निहायत खूबसूरत तरीके से पेश किया गया है.


तीन चीनी मिलों के बंद होने अब सौदागरी कर रहे हैं किसान

मध्यप्रदेश के ग्वालियर वाले इलाके में, सौदागर फिल्म लगता है, एक नए अंदाज में पेश आ रही है. यह इलाका बहुत उपजाऊ है और यहां गन्ने की खूब खेती होती है. झांसी और इंदौर को जोड़ती सड़क पर हजारों की तादाद में किसानों ने अपने अस्थाई दुकानें लगाई हैं और उनमें गुड़ सजा रखा है. यह नजारा लीक से तनिक हटकर है क्योंकि किसान शायद ही कभी सौदागरी करते नजर आते हैं. इन किसानों से चलते-चिट्ठे बात कीजिए और इलाके के ग्रामीण-संकट की तस्वीर खुलकर सामने आ जाती है.

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इलाके के डाबरा, भीमपुरा और साखनी में तीन चीनी मिल चलते थे. मिलों में इलाके के गन्ने की खपत हो जाया करती थी. किसान गन्ना लादकर इन मिलों तक लाते और उन्हें अपनी फसल का दाम स्टेट एडवायजरी प्राइस (एसएपी) के दर से मिल जाया करता था. एसएपी की दर मध्यप्रदेश सरकार तय करती है और इसमें केंद्र की सलाह ली जाती थी. लेकिन ये सारी मिलें अब बंद हैं. सबसे बड़ी डाबरा शुगर मिल को लेकर किसानों का कहना है कि उनका बकाया चुकता नहीं हुआ है और बकाए की यह रकम करोड़ों में हैं. माना जा रहा है कि इन चीनी मिलों के मालिकों की बीजेपी के विधायकों और मंत्रियों से सांठ-गांठ है.

मुजफ्फरनगर से आए सौदागर किसानों को संकट से उबार रहे हैं

इन चीनी मिलों के बंद होने के कारण इस खूब उपजाऊ इलाके के किसान भारी वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं. वे चलन के हिसाब से पिछले तीन सालों से गन्ना बोते आ रहे हैं लेकिन फसल की कटाई के बाद उनके आगे संकट आन खड़ा होता है. किसानों का सौभाग्य कहिए कि पश्चिम उत्तरप्रदेश, खासकर मुजफ्फरनगर के हुनरमंद मुस्लिम सौदागर उन्हें संकट से उबारने के लिए आ गए हैं. इन सौदागरों ने इलाके में हजारों क्रशर (गन्ना पेराई की मशीन) लगाए हैं ताकि गन्ना पेराई कर गुड़ तैयार किया जा सके.

मुजफ्फरनगर के इन सौदागरों के लिए जमीन और कच्चा माल खरीदकर एक फलता-फूलता व्यवसाय खड़ा करना बड़ा आसान साबित हुआ. मुस्लिम सौदागर और उनके कामगारों की उद्यमिता को स्वीकार करने के भाव से एक किसान ने कहा, 'वे लोग बड़े हुनरमंद और जीवट वाले हैं.' फिर किसानों ने खुद ही क्रशर क्यों नहीं लगाए? इस सवाल पर एक स्थानीय किसान ने बड़ी बेबाकी से बताया , 'देखिए, इस इलाके के किसान आलसी हैं और इन मुस्लिम सौदागरों जितने मेहनती नहीं.' मुस्लिम सौदागरों और स्थानीय किसानों में एक अनूठा मेल दिखाई देता है. स्थानीय किसानों में ज्यादातर हिंदू हैं. लगता है, दोनों मिलकर चीनी-उद्योग से जुड़े एक मानव-निर्मित संकट का बखूबी सामना कर रहे हैं.

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विडंबना कहिए कि अपने दो छोरों पर चंबल घाटी और बुंदेलखंड से घिरा ग्वालियर का इलाका सूबे का वो हिस्सा रहा है जिसपर भगवा राजनीति का रंग सबसे ज्यादा गाढ़ा था. हालांकि ग्वालियर राजघराने (फिलहाल इसके नुमाइंदे ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं) की निष्ठा कांग्रेस की तरफ रही और उसका प्रभाव बना रहा लेकिन ग्वालियर अयोध्या आंदोलन के दौर में कांग्रेस और बीजेपी के बीच विचारधाराओं के घनघोर संग्राम की समरभूमि बना था. आंदोलन जब अपने चरम पर था तो चंबल के क्षेत्र या फिर बुंदेलखंड से हजारों कारसेवक उत्तरप्रदेश पहुंचे थे. लेकिन वह कड़वा इतिहास अब अतीत की बात बन चला है.

चौहान ढिंढोरा पीट रहे हैं, लेकिन खुश नहीं है जनता

अभी के वक्त में नए मुद्दे राजनीति के रंगमंच पर आ जमे हैं. नौकरियां तादाद में बहुत कम हैं और चीनी मिलों के बंद होने से किसानों में बड़ी बेचैनी है क्योंकि उनकी जीविका दांव पर लगी हुई है. तीन बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट रहे हैं कि सड़क बनवाए, लोगों तक पानी और बिजली पहुंचाया लेकिन लोगों पर इसका असर नहीं है. मैंने दतिया और इससे लगते आस-पास के गांवों में पूछा तो कई किसानों ने कहा कि 'सरकार से कम से कम बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की उम्मीद तो हम करते ही हैं. चौहान ने कुछ खास नहीं किया है.'

सौदागर फिल्म के नायक की तरह, जिसने विधवा से खुशहाल शादीशुदा जिंदगी का वादा करके उसके हुनर का इस्तेमाल अपनी तिजोरी भरने में किया, बीजेपी ने मतदाताओं को इस वादे से लुभाया था कि प्रशासन में बुनियादी बदलाव लाएंगे जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था चमक उठेगी और जीत दर्ज की. शिवराज सिंह चौहान को लेकर इस इलाके के मतदाताओं के मनोभाव कुछ ऐसे हैं मानो उनका इस्तेमाल किया गया और फिर फेंक दिया गया. पंद्रह साल का वक्त एक लंबा अरसा होता है और सूबे की सरकार ने इस बीच पूंजीपतियों से जो यारी दिखाई और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है वह मतदाताओं के दिमाग पर शिवराज सिंह चौहान की विकास की बातों से कहीं ज्यादा भारी है. पार्टी के कार्यकर्ताओं के रुखे और बेलज्जत बरताव के कारण मतदाताओं की एक बड़ी तादाद ना सिर्फ बीजेपी के नेतृत्व से दूर जा खड़ी हुई है बल्कि राजनीतिक यथास्थितिवाद को लेकर उसके मन में ऊब भी पैदा हो गई है.

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पहली झलक में लगता है कि राजनीति का कथानक ‘बदलाव’ के इर्द-गिर्द बुना जा रहा है. मतदाताओं में बदलाव की बात पैठ बना रही है. सूबे के प्रशासन के नकारापन और बालू माफिया और पत्थर खुदाई के ठेकेदारों की हिफाजत में बेशर्मी से खड़े स्थानीय बीजेपी नेताओं के चर्चे लोगों की जबान पर हैं. अगर मतदाताओं के रुझान में आखिर के लम्हे में कोई बदलाव नहीं होता, और ऐसा शायद ही कभी होता है, तो फिर समझिए कि यह चुनाव बिल्कुल ‘बदलाव’ के रास्ते पर जाएगा.