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गुजरात: राहुल को विजेता बनाने में लुटियन दिल्ली के विश्वासपात्र कर रहे ओवरटाइम

यह मानना सुरक्षित होगा कि ये लोग सोनिया गांधी के आदेश के मुताबिक काम कर रहे हैं. सोनिया को लगता है कि राहुल को अपनी जगह कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए यह समय अभी नहीं तो कभी नहीं वाला है.

Sandip Ghose

मैं नेहरू-गांधी खानदान का प्रशंसक नहीं हूं. फिर भी गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी के लिए दिख रहे आकर्षण से इनकार करना बेईमानी होगी. इससे मीडिया और उदारवादियों के एक वर्ग में नए उत्साह का संचार हुआ है. उत्तर प्रदेश में बीजेपी की एकतरफा जीत के बाद यह वर्ग निराशा में डूब गया था. हालांकि ये कहना अपरिपक्वता की निशानी हो सकता है, लेकिन अब तक सरपट दौड़ रही मोदी-शाह की जोड़ी को विश्वसनीय चुनौती मिलने की संभावना से उनका उत्साह बढ़ गया है.

मेरी तरफ से, इससे इनकार करना भी गलत होगा कि बीजेपी घबराहट का संकेत नहीं दे रही है. भले ही यह पाटीदारों का गुस्सा हो या फिर कांग्रेस में नई ऊर्जा का संचार. यह स्पष्ट है कि बीजेपी ने आत्मसंतुष्टि को त्याग दिया है. भटकाने वाला बड़बोलापान गुजरात पहुंचने वाले केंद्रीय नेताओं और सोशल मीडिया योद्धाओं में ही नजर आता है. गुजरात बीजेपी के शीर्ष नेता अपने बयानों को लेकर ज्यादा सतर्क हैं. उनके बयानों में परिपक्वता और संयम है.


विभिन्न टीवी चैनलों के जनमत सर्वेक्षण में बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिलता दिख रहा है. लेकिन इनमें निश्चित रूप से यह भी संकेत है कि बीजेपी को ‘वॉकओवर’ नहीं मिलेगा. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मतदाता आखिरकार किसको वोट करेंगे. लेकिन सामान्य गुजराती मतदाता इस प्रतिस्पर्धा के रोमांच का आनंद ले रहे हैं. इससे स्थानीय नेताओं के लिए असहज स्थिति पैदा हो गई है, क्योंकि वो मतदाताओं को भाव देना भूल गए थे.

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बीजेपी के खिलाफ सूझ-बूझ से काम लेने के लिए राहुल गांधी की तारीफ मीडिया और कांग्रेस के लिए स्वाभाविक है. कुछ लोग इसे राहुल के 'पुनरुत्थान' के रूप में ले रहे हैं, जिसमें हल्का सा मिथ्या का भाव है क्योंकि पुनर्निर्माण के लिए उनके पास पिछला रिकॉर्ड नहीं है.

न ही राहुल ने कभी अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया है. अब तक वो सेलिब्रिटी पोस्टर-ब्वॉय हैं जो दूसरों की पटकथा के हिसाब से काम करता है. हालांकि, इसे कांग्रेस या और सटीक कहें तो गांधी-नेहरू खानदान का 'पुनरुत्थान' कहना ज्यादा सही होगा, जिसके राहुल गांधी नए शुभंकर हैं.

राहुल को भरोसे लायक बनाने वाले इकोसिस्टम को विस्तार से जानना और उसका विश्लेषण करना दिलचस्प होगा. ऐसा लगता है कि राहुल के चारों तरफ रहने वाले लोगों का बचे रहना रहना कांग्रेस उपाध्यक्ष की सफलता पर निर्भर करता है.

इसलिए, एक स्तर पर अशोक गहलोत हैं, जो चुनावी यात्रा में राहुल के साथ हैं. गहलोत के चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती है, जैसे कि वो गर्व से 'अमेरिका से लौटे' वारिस को विषयों के बारे में समझा रहे हों. उनके साथ भरोसेमंद एस्टेट मैनेजर या 10 जनपथ के खासमखास अहमद पटेल हैं, जिन्हें महारानी ने राजकुमार को गद्दी पर बिठाने का दायित्व दे रखा है. साफ तौर पर पटेल वॉर रूम के प्रभारी हैं, जो रणनीति और योजना बनाने का काम कर रहे हैं.

इसके अलावा सौम्य और दिमागी अंकल सैम पित्रोदा हैं, जिन्होंने अपने स्वर्गीय दोस्त के पुत्र को गद्दी पर बिठाने का दायित्व खुद पर ले लिया है. सैम पित्रोदा ही राहुल के अमेरिकी दौरे के शिल्पकार थे. इसका मकसद अमेरिका के बुद्धिजीवी वर्ग के बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष की बौद्धिकता को स्थापित करना था.

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उन्होंने महसूस किया था कि मोदी ने वैश्विक स्तर पर पैठ बढ़ाकर अपना कद बढ़ाया है. राहुल के डिजिटल जनसंपर्क और सोशल मीडिया रणनीति के पीछे भी पित्रोदा का ही दिमाग माना जा रहा है. इसमें इंटरनेशनल इलेक्टॉरल कम्युनिकेशन कंसल्टेंट कैम्ब्रिज एनालिटिका की नियुक्ति भी शामिल है.

पाटीदारों को 'आरक्षण' जैसी कानूनी और संवैधानिक पेंच वाली मुश्किल वार्ताओं को कपिल सब्बिल अंजाम दे रहे हैं. खबर है कि पित्रोदा अहमदाबाद में कैंप कर रहे हैं और कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र को अंतिम रूप दे रहे हैं.

ध्यान देने वाली बात यह है कि पूरे प्रचार के दौरान राहुल खुद सभी से बातचीत कर रहे हैं. दिग्विजय सिंह जैसे बड़बोले नेताओं को नर्मदा यात्रा में लगा दिया गया है, नहीं तो वो चायवाला, मौत का सौदागर और खून की दलाली जैसे बयानों से मुद्दे ही बदल देते.

पी चिदंबरम

मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम जैसे नेताओं का जरूरत के हिसाब से उपयोग किया जा रहा है. उनसे अर्थव्यवस्था, नोटबंदी और जीएसटी जैसे मुद्दों पर बुलवाया जा रहा है और फिर वो चुपके से साइडलाइन हो जाते हैं.

सार्वजनिक रूप से जो चीज अब कम सामने है, वो है राहुल गांधी के 'री-लॉन्च' में निवेश की रकम. अब तक यह बीजेपी थी, जिसे उद्योगपतियों और राजनीतिक दानदाताओं से धन मिलता था. अब, वो कांग्रेस पर अपना दांव लगा रहे हैं. बीजेपी के साथ उनका मोहभंग स्पष्ट नहीं दिखता हो लेकिन इसे महसूस किया जा सकता है, क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि नरेंद्र मोदी के साथ उन्हें हल्के में लिया जाता है.

इसी तरह, वो ताकतें जो आम आदमी पार्टी जैसे विकल्पों को खड़ा करने की कोशिश में लगी थीं, अब उन्होंने अपने संसाधनों को बचाने और कांग्रेस के साथ जाने का फैसला किया है. दूसरी विधान सभाओं में वो लोग सहयोग कर रहे हैं, जो कड़वाहट से भरे हुए हैं और बीजेपी के घनघोर विरोधी हैं.

लुटियंस दिल्ली की एक अफवाह के मुताबिक, सोनिया गांधी ने एक मीडिया मालिक को बताया था कि किस तरह 2014 में पार्टी को चंदा मिलना लगभग खत्म हो गया था. चुनाव के बाद कांग्रेस दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गई थी.

यह आम है कि किस तरह एक पूर्व मुख्यमंत्री रातोंरात खलनायक बन गए थे,जब उन्होंने महाराष्ट्र में राहुल गांधी की रैली के लिए फंड देने से इनकार कर दिया था. निश्चित रूप से, तब से पार्टी की बैलेंस शीट में खासा सुधार आया है. यह राहुल की रैलियों में जमा हो रही भारी भीड़ में भी देखा जा सकता है.

राहुल को श्रेय देने के लिए यह कहा जाना चाहिए कि उनमें सीखने की ललक है. निश्चित नहीं कि यह एकीडो या दूसरी चीज है, जिसने उनका अनुशासन और मानसिक ताकत बढ़ाने में मदद की है. अंत में, वह इसमें सहज महसूस कर रहे हैं. हालांकि वह अभी भी कुछ गड़बड़ कर जाते हैं, फिर भी वो उद्देश्य और दृढ़ संकल्प की भावना दिखा रहे हैं. सबसे ऊपर, वह स्पष्ट रूप से खुद इसका आनंद ले रहे हैं, जो कि किसी भी काम में सबसे अहम है.

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राहुल गांधी को अपनी आवाज मिली हो या नहीं, लेकिन उनके साथ की टीम मिलकर सब कामों को अंजाम दे रही है. यह सब दिखाता है कि परिवार का एक छोटा समूह और घनिष्ठ मित्र मिलकर आला दर्जे की रणनीति बना रहे हैं, शायद कुछ भरोसेमंद विश्वासपात्रों की मदद से. इस कोर ग्रुप के बारे में सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है.

यह मानना सुरक्षित होगा कि ये लोग सोनिया गांधी के आदेश के मुताबिक काम कर रहे हैं. सोनिया को लगता है कि राहुल को अपनी जगह कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए यह समय अभी नहीं तो कभी नहीं वाला है.