view all

कश्मीर सीरीज पार्ट 4: क्या चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बीजेपी को होगा फायदा?

नवंबर महीने की शुरुआत में एक हिन्दू दक्षिणपंथी जमात ने एक संगोष्ठी का आयोजन किया था. जिसमें कहा गया कि जम्मू पर इस्लामी आक्रमण बंद होना चाहिए.

Sameer Yasir

(संपादकीय नोट: जम्मू-कश्मीर में एक और हंगामाखेज साल अपने आखिरी मुकाम की ओर बढ़ रहा है. साल के इस आखिरी मुकाम पर फर्स्टपोस्ट एक सीरीज के जरिए आपको सुनाने जा रहे हैं कि 2018 में जम्मू-कश्मीर कैसे बदला और जमीन पर ये बदलाव क्या शक्ल अख्तियार करेंगे. सीरीज में खास जोर उभार लेते नए तर्ज के उग्रवाद और बदलते सियासी मंजर पर रहेगा. साथ ही एक खास चर्चा यह भी रहेगी कि जम्मू-कश्मीर के तीन इलाकों के बीच दूरियां किस तरह बढ़ती जा रही हैं.)

साल 1947 में हुए भारतीय उपमहाद्वीप के बंटवारे के बाद जम्मू में हजारों मुसलमानों मारे गए और इस घटना के बाद गुजरे तमाम दशकों में सांप्रदायिक तनाव ने हिन्दू बहुल जम्मू में आबादी की बसाहट के एतबार से अहम भूमिका निभाई है. लेकिन सांप्रदायिक भेद आज जितना बड़ा और गहरा है उतना पहले कभी न था. साल की शुरुआत में एक घुमन्तू परिवार की छोटी बच्ची का बलात्कार और हत्या हुई और इस हादसे ने पहले से मौजूद तनाव को और ज्यादा बढ़ाने का काम किया. हालात यहां तक आ पहुंचे कि लगता है, बस चंद रोज की देर है जब यह तनाव अपने उरुज पर पहुंचकर एकबारगी फट पड़ेगा.


जम्मू इस सूबे की शीतकालीन राजधानी कहलाता है और इस साल नवंबर महीने की शुरुआत में एक हिन्दू दक्षिणपंथी जमात ने एक संगोष्ठी का आयोजन किया था. जिसमें कहा गया कि जम्मू पर इस्लामी आक्रमण बंद होना चाहिए. यह जम्मू में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की एक कवायद थी. संगोष्ठी के अध्यक्ष ने यह तक कहा कि इलाके की बसाहट में तब्दीली लाने की सचेत कोशिश की जा रही है और ‘मुस्लिम कश्मीर’ का ‘हिन्दू जम्मू’ पर दबदबा अब किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

यह भी पढ़ें:

कश्मीर सीरीज (पार्ट- 3): अर्श से फर्श पर पहुंची PDP, क्या सज्जाद लोन हैं कश्मीर के लोगों की नई पसंद?

बीजेपी के साथ पीडीपी ने जब गठबंधन किया था तो पीडीपी के मुखिया मुफ्ती मुहम्मद सईद ने इस गठबंधन की तरफदारी में एक पुरजोर दलील यह दी थी कि इससे तहजीब की बुनियाद पर साफ अलग जान पड़ने वाले दो इलाकों के बीच दूरी कम होगी. लेकिन गठबंधन हुए चार साल का अरसा बीत गया और इस दरम्यान दूरी कम होने के बजाय बढ़ी है और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर है. बीजेपी के लिए ऐसे हालात माफिक बैठते हैं. जम्मू में एकमुश्त हिन्दू वोट उसकी झोली में दिख रहे हैं जबकि कश्मीर में मुस्लिम वोटों को क्षेत्रीय दलों के बीच बंट जाना है.

ध्रुवीकरण

लेकिन यह कहना कि बीजेपी को इस ध्रुवीकरण का अगामी विधानसभा चुनावों में फायदा होगा, दरअसल तनिक जल्दबाजी कहलाएगा. पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने मोदी-लहर पर सवार होकर इलाके में 25 सीट जीती थीं. लेकिन हाल के महीनों में पीडीपी के साथ गठबंधन के कारण कांग्रेस ने बीजेपी पर अक्सर आरोप जड़ा है कि वो राष्ट्रविरोधी ताकतों के साथ हाथ मिला रही है. साथ ही पार्टी ने इलाके के सीमावर्ती हिस्सों में अपनी मौजूदगी दर्ज की है जबकि सत्ता मे आने के वक्त तक ये हिस्से बीजेपी का गढ़ हुआ करते थे.

यह भी पढ़ें:

कश्मीर सीरीज पार्ट-2: कश्मीर की राजनीति में नए नेता का उदय, सज्जाद लोन से पीडीपी और नेशनल कॉफ्रेंस दोनों ही डरे हुए हैं

बीजेपी 2014 से ही गुर्जर और बकरवाल समुदाय के खिलाफ बिना रुके नफरत फैलाने पर उतारु है. इस समुदाय के लोग जाड़े के दिनों में अपने मवेशियों के साथ इलाके में आते हैं और सूबे के स्थायी निवासी हैं. पूर्व मंत्री लाल सिंह ने इसे एक नीति का रूप दिया था. हालांकि यह नीति अस्थायी किस्म की ही रही. लाल सिंह ने वनभूमि पर दशकों से काबिज घुमन्तू समुदाय के लोगों को निकाल बाहर किया था.

मुस्लिम बस्तियों को निशाना

मुफ्ती मोहम्मद ने जम्मू को बीजेपी के रहमो-करम के भरोसे छोड़ दिया और घुमन्तू परिवारों को अतिक्रमण-विरोधी अभियान के तहत जबर्दस्ती निकाल बाहर किया जाता रहा. हाल के सालों में जम्मू विकास प्राधिकरण की यह कहकर आलोचना हुई है कि वो चुन-चुनकर मुस्लिम बस्तियों को निशाना बना रहा है. कठुआ रेप केस में अभियुक्तों की तरफदारी में एक रैली में हिस्सा लेने के कारण लाल सिंह ने इस्तीफा दे दिया था और यही लालसिंह वनभूमि से गुर्जर और बकरवाल समुदाय को उखाड़ भगाने की लड़ाई के अग्रणी मोर्चे पर थे.

इलाके या कह लें पूरे सूबे में बढ़ते तनाव के बीच सिलसिलेवार ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिनमें घुमन्तू समुदाय के परिवारों को भगा दिया गया और उनके डोका (मिट्टी और लकड़ी का बना अस्थायी किस्म का घर) को उपद्रवियों ने आग के हवाले कर दिया.

यह भी पढ़ें:

J&K में चुनाव के लिए केंद्र तैयार है, हमारी सरकार में कोई अनैतिक काम नहीं होगा: राजनाथ सिंह

जम्मू विकास प्राधिकरण (जेडीए) ने अतिक्रमण की जद में आई वनभूमि को वापस लेने का अभियान लगातार जारी रखा और इससे संकट की स्थिति पैदा हुई. तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को आदेश देना पड़ा कि आदिवासी मामलों के मंत्रालय की पूर्व-अनुमति के बगैर जंगलों से किसी को विस्थापित नहीं किया जाएगा.

इसका बाद से तो जैसे जलजला ही आ गया. महबूबा मुफ्ती ने अधिकारियों से कहा, आप सुनिश्चित करें कि अतिक्रमण-विरोधी अभियान में आदिवासी समुदाय के किसी भी सदस्य को परेशान नहीं किया जाएगा. गुर्जर और बकरवाल समुदाय के कुछ सदस्य अतिक्रमण-विरोधी अभियान के दौरान सरकारी एजेंसियों के हाथो अपने साथ हो रहे सौतेलेपन के बरताव से बहुत नाराज थे.

सूबे के दो इलाकों के बीच दशकों से अनबन का माहौल है. लोगों में यह धारणा कायम है कि एक इलाके के नेता दूसरे इलाके के लोगों को सुविधाओं से वंचित रखने की कवायद में जुटे रहते हैं और भेदभाव का बरताव करते हैं. जम्मू अपने को कश्मीरी नेताओं के हाथों उपेक्षा का शिकार मानता है और कश्मीर अपनी बेरोजगारी का दोष जम्मू पर मढ़ता है. सांप्रदायिकता की भावना इस धारणा को और ज्यादा उभारती है. एक इलाके का दूसरे इलाके पर दबदबा है. यह सोच तो दशकों से मौजूद चली आ रही है लेकिन इस सोच की काट की कोई व्यवस्था नहीं बन पाई है.

इलाकों के बीच दूरी

पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच गठबंधन बेशक दोनों इलाकों को एक साथ लाने के मकसद से बना था लेकिन हुआ इसके उलटा और दोनों इलाकों के बीच दूरी बढ़ गई. इस साल कठुआ में हुए बलात्कार और हत्याकांड के बाद हालात और भी ज्यादा संगीन हो उठे. एक तरफ मुस्लिम बहुल कश्मीर पीड़ित के पक्ष में खड़ा दिखा तो दूसरी तरफ जम्मू में लोगों के मन में यह संदेह घर कर गया था कि मामले में लोगों पर झूठे इल्जाम मढ़कर गिरफ्तारी हुई है.

मामले में कुछ अभियुक्तों की तरफ से पैरवी करने वाले वकील अंकुर शर्मा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को सरेआम ‘जिहादी’ बताया था. जम्मू में फेसबुक पर सक्रिय रहने वाले पत्रकारों ने सांप्रदायिक तेवर वाली कहानी गढ़ी जो सच्चाई से बहुत दूर थी और इससे कुछ मायनों में स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ी. हाल के सालों में कश्मीर-विरोधी कथानक ने बड़े खुले और शर्मनाक ढंग से मुस्लिमों को खुराफाती बताने वाली मुहिम का रूप ले लिया है.

कठुआ के बलात्कार और हत्याकांड के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाले जम्मू के माहौल में हिन्दू दक्षिणपंथी जमात के राजनेता और कार्यकर्ता अपने मतलब की गोटी लाल करने में लगे हैं. ऐसे में माहौल नई रंगत ले रहा है. वहीं सूबाई और लोकसभा चुनाव के ऐन पहले सियासी मंजर को लेकर इबारत साफ दिखाई देने लगी है. सूबे में आबादी की बसाहट ही कुछ इस तरह की है कि बीजेपी और कुछ अन्य दलों के नेताओं के लिए इलाके के लोगों के मन में जहर घोलना आसान हो जाता है और पूरा माहौल जहरीला बन जाता है.

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भले ही बीजेपी के लिए पहले के वक्तों में फायदेमंद साबित हुआ हो लेकिन राजनीति के विश्लेषकों का मानना है कि इस बार के चुनाव में शायद ऐसा ना हो. नेशनल कॉफ्रेंस चनाब और जम्मू के कुछ हिन्दू बहुल जिलों में फायदे की स्थिति में है. एक राजनेता जिसने मंत्री रहते हुए कठुआ-कांड के समय भाषण दिया था वो भी अब बीजेपी के खिलाफ है. जम्मू में बीजेपी के राजनेताओं में सबसे मुखर चेहरा लाल सिंह थे लेकिन उन्होंने अब अपनी पार्टी बनाने की सोची है और खुलकर कह रहे हैं कि यह पार्टी ‘डोगरा स्वाभिमान और संगठन’ के लिए काम करेगी. ऐसे में जम्मू में हालात बीजेपी के लिए खिलाफ भी जा सकते हैं.

जैसे कश्मीर में सज्जाद लोन विकास की बात करके जनता की नब्ज पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं. उसी तरह जम्मू में लाल सिंह भी विकास की ही बात के सहारे चुनावी नैया पार लगाने की जुगत में हैं. वे लोगों को अपने पक्ष में मोड़ने के ख्याल से यह भी कह रहे हैं कि जम्मू की कीमत पर कश्मीर के साथ तरजीही बर्ताव हो रहा है, जम्मू के साथ भेदभाव बरता जा रहा है. उनकी बातों का असर वोट में तब्दील हो पाता है या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन राजनीति के पंडितों का मानना है कि बीजेपी को इसका भारी घाटा उठाना पड़ सकता है. कठुआ-मामला अब अपने अंतिम चरण में है. बीजेपी और लाल सिंह दोनों ही इस हादसे का इस्तेमाल अपनी सांप्रदायिक राजनीति को अलाव सुलगाने में करेंगे और यह इस आग में पूरा सूबा दहक सकता है.