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कर्नाटक: 'प्रैग्मैटिक' गठबंधन फॉर्मूला कहीं कांग्रेस को खत्म ना कर दे

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि नई पार्टी के सामने वरिष्ठ होते हुए भी अगर आप छोटी भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जाएंगे तो लोग भी आपको गंभीरता से लेना बंद कर देंगे

Aparna Dwivedi

कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (एस) ने सरकार बनाने के लिए अपने मतभेदों को साध लिया. और तो और 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए गठबंधन की घोषणा भी कर दी. कर्नाटक की सत्ता को बीजेपी के हाथों जाने से भी बचा लिया लेकिन इस गठबंधन ने एक बार फिर कांग्रेस पार्टी की कमजोरी को उजागर कर दिया. जब-जब कांग्रेस ने गठबंधन किया तब-तब कांग्रेस ने उस समय तो सत्ता हासिल कर ली लेकिन पार्टी को हाशिए पर खड़ा कर दिया.

कर्नाटक गठबंधन पर ही ध्यान दें तो JDS से ज्यादा सीटें हासिल करने के बावजूद कांग्रेस ने समझौता किया. इस समझौते में उसने मुख्यमंत्री पद के साथ-साथ महत्वपूर्ण मंत्रालय जैसे वित्त, उत्पाद शुल्क, बिजली और लोक निर्माण विभाग जेडीएस को सौंप दिया. कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि पार्टी की तरफ से ये एक साहसिक कदम था. तमिलनाडु  से कांग्रेस नेता माणिक कम टैगोर ने कर्नाटक गठबंधन को समर्थन देते हुए कहा था कि माना जाता है कि कांग्रेस गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका निभाती है, लेकिन हमने यहां पर JDS को नेतृत्व देकर ये भी बताया है कि हम अपने सहयोगियों से बराबर की भूमिका निभाते हैं.


कांग्रेस को 18 में से मात्र चार सीटें मिली

कर्नाटक में धर्मनिर्पेक्षता के नाम किए गए इस समझौते में कांग्रेस इसे बलिदान मान रही है लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि ये बलिदान कांग्रेस को काफी भारी पड़ेगा. बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए पार्टी के समझौते का दूरगामी परिणाम होगा. कर्नाटक में कांग्रेस ने एक बार फिर वही किया जो उसने बिहार और उत्तर प्रदेश में किया था.

हालांकि कांग्रेस इसे इतिहास मानती है, लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि जमीनी तौर पर कमजोर होती कांग्रेस का एक मुख्य कारण गठबंधन है. 2014 से 2018 के बीच के चुनाव पर भी नजर डालें तो सिर्फ लोकसभा की 18 सीटों पर उपचुनाव हुए हैं. इनमें से बीजेपी को तीन सीटों पर जीत हासिल हुई, बाकी में उस राज्य की क्षेत्रीय पार्टी ने जीत हासिल की. कांग्रेस को 18 में से मात्र चार सीटें मिली.

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गठबंधन को लेकर कांग्रेस अधिवेशन में पहले से चर्चा होती रही है.  पहले गठबंधन पर कांग्रेस की एक विचारधारा होती थी जो कि पहले पचमढ़ी अधिवेशन और फिर शिमला अधिवेशन में देखने को मिली- अगर जरूरत पड़ी एक समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के गठबंधन की तो कांग्रेस उसके लिए तैयार है. लेकिन, उसमें कांग्रेस की एक भूमिका होनी चाहिए. निर्णायक भूमिका, मतलब उसके हिसाब से चीजें होना चाहिए.

लेकिन साल 2018 मार्च में कांग्रेस अधिवेशन में गठबंधन को लेकर जो शब्द प्रयोग किया वो था ‘प्रैग्मैटिक’ यानी ‘व्यावहारिक’. और व्यावहारिक गठबंधन के फॉर्मूले के मायने ये भी निकाला जाता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार को रोकने के लिए कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करेगी और अगर वो अग्रणीय भूमिका निभाएंगें तो कांग्रेस उसके लिए भी तैयार है. कर्नाटक विधानसभा में कुछ ऐसा ही गठबंधन देखने को मिला.

इतिहास पर नजर डाले तो दूसरे राज्यों में भी कुछ ऐसा ही नजारा दिख रहा है. बिहार में कांग्रेस 1990 तक प्रमुख राजनीतिक ताकत बनी रही लेकिन मंडल आंदोलन ने बिहार को एक नया नेतृत्व दिया और राष्ट्रीय जनता दल बना कर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को उखाड़ फेंका. 1998 के चुनाव में कांग्रेस ने अपने पुराने राजनीतिक विरोधी से समझौता किया जो कि 1999 और 2004 के लोकसभा और 2005 के विधानसभा चुनाव तक जारी रहा.

कांग्रेस सत्ता के नजदीक रही, लेकिन जनता के बीच अपना वजूद खोती रही. 1998 में कांग्रेस के पास 7.72 फीसदी वोट थे और उसने पांच सीटें जीती थीं. 1999 में वोटर फीसदी और सीट दोनों कम हो गईं. वोट फीसदी 4.78 फीसदी और सीटें मात्र चार मिलीं. 2004 में कांग्रेस ने 4.8% के वोट फीसदी के साथ केवल तीन सीटें जीतीं.

जब कांग्रेस नेताओं को होश आया तो उन्होंने 2009 की लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनावों में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया लेकिन पार्टी को मुंह की खानी पड़ी और 2009 के चुनावों में 40 लोकसभा सीटों में से केवल दो और 2010 के विधानसभा चुनावों में केवल चार सीटें जीत पाए.

एनसीपी महाराष्ट्र में कांग्रेस से बराबरी के स्तर पर आ गई

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि नई पार्टी के सामने वरिष्ठ होते हुए भी अगर आप छोटी भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जाएंगे तो लोग भी आपको गंभीरता से लेना बंद कर देंगे.

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गठबंधन का कुछ ऐसा ही इतिहास महाराष्ट्र में भी देखने को मिला. कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी ने 1999 में गठबंधन किया. तब एनसीपी का महाराष्ट्र के एक भाग यानी पश्चिम महाराष्ट्र में अधिपत्य था. इसलिए वो जूनियर पार्टी के रूप में कांग्रेस के साथ जुड़ी रही, लेकिन बाद में एनसीपी ने कांग्रेस के वोट बैंक विदर्भ, खांदेश और मराठवाड़ा क्षेत्रों में पैठ बनाई. अब एनसीपी महाराष्ट्र में कांग्रेस से बराबरी के स्तर पर आ गई. दोनों दलों में मतभेद हुए और 2014 में दोनों ने अगल-अलग चुनाव लड़ा. कांग्रेस ने 288 सदस्यीय विधानसभा पर 17.9 5% वोट फीसदी के साथ 42 सीटों पर जीत हासिल की और एनसीपी ने 17.24% वोट फीसदी के साथ 41 सीटें जीतीं. लेकिन सरकार बीजेपी की बनी. बीजेपी को पछाड़ने के लिए दोनों दल एक बार फिर इकट्ठे हुए लेकिन कांग्रेस ने पालघर लोकसभा सीट खो दी, जबकि 28 मई के उपचुनाव में एनसीपी भदान-घोंडिया क्षेत्र से जीता लिया.

कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी के वजूद में वापस आ पाएगी

झारखंड और उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस ने यही किया. सत्ता के लिए सत्तारूढ़ क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन किया और बाद में हाशिए पर आ गए. 2014 का चुनाव कांग्रेस ने सबक की तरह नहीं लिया. जहां पर  या तो बीजेपी ने या वहां के क्षेत्रीय दलों ने बाजी मारी. कांग्रेस ने ऐतिहासिक हार का सामना किया.

हाल फिलहाल ममता बनर्जी ने भी कुछ ऐसा ही फॉर्मूला पेश किया था. बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियां मुकाबला कर रही हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, दिल्ली में आम आदमी पार्टी. यानी जिस जिस राज्य में जो क्षेत्रीय पार्टी दमदार है उसके नेतृत्व में बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ा जाएगा. ऐसे में एकजुट विपक्ष को वोट मिलेंगे और वो बीजेपी का मुकाबला करने के लिए काफी होंगे. अंक गणित के हिसाब से ये शानदार प्रस्ताव है लेकिन इससे कांग्रेस के वजूद पर ही सवालिया निशान लग जाएगा.

कांग्रेस का प्रैमैटिक यानी व्यवहारिक गठबंधन फॉर्मूला के हिसाब से चलाया जाए तो कांग्रेस अपनी अग्रणी भूमिका छोड़ने को तैयार है. दबे दबे कांग्रेस के नेता सोनिया मॉडल की भी बात करते हैं यानी आप बिना प्रधानमंत्री बने हुए भी सक्रिय राजनीति में एक बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. लेकिन सोनिया मॉडल को सफल होने के लिए नेता कांग्रेस का होना चाहिए और गांधी परिवार के इतना नजदीकी होना चाहिए कि वो अलग से अपने आप को स्थापित ना करने की कोशिश करे. ऐसे में अगर कांग्रेस व्यावहारिक गठबंधन की तरफ जाती है और प्रधानमंत्री पद के दावेदार चाहे वो मायावती हों या ममता बनर्जी या फिर शरद पवार या कोई अन्य, तो उनको एक मौका देती है. तो क्या फिर कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी के वजूद में वापस आ पाएगी.

सभी क्षेत्रीय पार्टी ये तो कहीं ना कहीं मानती हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस की जरूरत है लेकिन क्या वो कांग्रेस को नेतृत्व देगी और उससे बड़ा सवाल अभी तक कांग्रेस ने राज्यों में भले ही क्षेत्रीय पार्टियों को तरजीह दी हो, पर क्या केंद्र में भी वो ऐसा करेगी ?