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कठपुतली की भूमिका में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल, संस्थानों को बर्बाद कर रही है BJP

मलिक के इस कदम के केंद्र में अहम राजनीतिक और संवैधानिक मसले हैं. कानूनी और संवैधानिक तौर पर मलिक कह सकते हैं कि वह विधानसभा को भंग करने के अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे में हैं

Suhit K. Sen

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने दो 'बॉस' के लिए अपनी मर्जी से कठपुतली की भूमिका निभाई है, जिनका सपना भारत को पूरी तरह से विपक्षमुक्त कर चलाना है. अगर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के अनुचित लेकिन स्पष्ट जुमले का इस्तेमाल करें तो ऐसा कहा जा सकता है. मलिक ने राज्य में नई सरकार बनाने के लिए तीन पार्टियों द्वारा एकजुट होकर दावा पेश करने के कुछ ही घंटों के भीतर विधानसभा को भंग कर दिया.

महबूबा के फैक्स और फोन को नजरअंदाज करते रहे मलिक


चूंकि बीजेपी-पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) सरकार भंग हो गई थी, लिहाजा जम्मू-कश्मीर विधानसभा को निलंबित स्थिति में रखा गया था और इस साल जून में राज्य में राज्यपाल शासन लगाया था. मलिक मुख्यमंत्री और राज्य की कैबिनेट की सलाह पर विधानसभा भंग करने की सिफारिश करने को लेकर बंधे हुए नहीं थे, क्योंकि सरकार का अस्तित्व नहीं था.

उन्होंने दिल्ली या दूसरे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आदेश पर जल्दबाजी में इसको लेकर फैसला किया. विधानसभा को भंग किए जाने के कारण पीडीपी को सरकार बनाने का अवसर से वंचित होना पड़ा. राज्य विधानसभा को भंग करने से पहले राज्यपाल ने पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती द्वारा फैक्स की गई चिट्ठी को भी कबूलने से मना कर दिया. सहयोगी पार्टी बीजेपी द्वारा सहयोग वापस लिए जाने से पहले तक महबूबा मुफ्ती राज्य की मुख्यमंत्री थीं. मलिक ने महबूबा से फोन पर बात करने तक से मन कर दिया और ऐसे में पीडीपी को इस चिट्ठी को ट्वीट करने पर मजबूर होना पड़ा.

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मलिक के इस कदम के केंद्र में अहम राजनीतिक और संवैधानिक मसले हैं. कानूनी और संवैधानिक तौर पर मलिक कह सकते हैं कि वह विधानसभा को भंग करने के अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे में हैं. हालांकि, मलिक और दिल्ली में बैठे उनका ध्यान रखने वालों ने जिस काम को अंजाम दिया, उसे 'सत्ता की आड़ में छल' या सत्ता या 'ताकत का दुरुपयोग' कहा जाता है. इसका मुख्य तौर पर मतलब यह है कि वैधानिक तौर पर उपलब्ध अधिकार का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन इसका उपयोग जिस मकसद से किया गया है, वह वैध या कानूनी नहीं है.

पहले केंद्र सरकार को भेजनी चाहिए थी इस संबंध में रिपोर्ट

अगर राज्यपाल ने यह सोचा होगा कि राज्य की संवैधानिक मशीनरी चरमरा गई है, तो उन्हें विधानसभा भंग करने की सिफारिश के लिए केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजनी चाहिए. यही सामान्य प्रक्रिया है. यहां तक कि अगर राज्य को अवैध तरीके से राष्ट्रपति शासन के दायरे में लाया जाता है (जैसा कि मौजूदा मामले में हुआ है) , तो भी आम तौर पर केंद्र सरकार राज्यपाल की तरफ से गड़बड़ी की रिपोर्ट भेजने का इंतजार करती है.

ऐसा लगता है कि इस मामले में किसी तरह की रिपोर्ट नहीं मांगी गई या लिखित में नहीं दी गई. बहरहाल, यहां कहने का मतलब यह है कि अगर मलिक विधानसभा को भंग करना चाहते थे, तो उन्हें राज्यपाल का पद संभालने के बाद ही अगस्त में इस संबंध में सिफारिश कर देनी चाहिए. या फिर उनके पूर्ववर्ती एन. एन. वोहरा को ऐसा कर देना चाहिए था. वास्तव में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला समेत पर्याप्त लोगों ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश की थी.

विधानसभा भंग करने की टाइमिंग से पूरी तरह साफ है कि मलिक किसी के आदेश पर इस दिशा में आगे बढ़े (अपनी इच्छा से या फिर मजबूरन), जिसका मकसद राज्य में सरकार गठन को रोकना था, क्योंकि यह बीजेपी के आकलन के प्रतिकूल होता.

बिहार, गोवा और मणिपुर के मामलों से भी खुलती है सत्ताधारी पार्टी की पोल

जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग कर मलिक ने जाहिर तौर पर पहले के उन मामलों को भी नजरअंदाज कर दिया, जिसे बीजेपी के उनके आकाओं ने बाकी जगहों पर अंजाम दिया. उदाहरण के तौर पर हम बिहार की बात करते हैं. राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड) और कांग्रेस ने 2015 में राज्य के विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल की और इसके बाद इन पार्टयों के महागठबंधन की सरकार बनी.

महज दो साल बाद जुलाई 2017 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और बीजेपी नेताओं ने सांठगांठ कर लिया और इसके बाद कुमार ने मुख्यमंत्री पद स इस्तीफा देते हुए महागठबंधन तोड़ दिया. कुछ ही घंटों के बाद नीतीश कुमार ने अपनी नई सहयोगी पार्टी बीजेपी के साथ फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. इस बेहद गैर-सैद्धांतिक राजनीतिक तिकड़बाजी को हरी झंडी दिखाने में राज्यपाल के स्तर पर किसी तरह का मलाल नहीं नजर आया.जाहिर तौर पर यह 2015 के जनादेश के साथ खुल्लमखुल्ला धोखे का मामला था.

इसके बाद गोवा और मणिपुर का मामला लेते हैं. गोवा में कांग्रेस ने राज्य की कुल 40 विधानसभा सीटों में से 17 पर जीत हासिल की थी और भारतीय जनता पार्टी को 13 सीटों पर कामयाबी मिली थी. बीजेपी ने 9 विधायक अपने पक्ष में कर लिए. पार्टी महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी और गोवा फॉरवर्ड पार्टी के तीन-तीन विधायकों को अपने पाले में करने में सफल रही, जबकि 3 निर्दलीय विधायकों को भी समर्थन के लिए तैयार कर लिया. कुल 22 विधायकों के समर्थन की सूची के साथ उसे गोवा में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया और उसने सरकार बनाई. चुनाव के बाद हुए इस अवसरवादी गठबंधन को लेकर किसी तरह की आपत्ति नहीं जताई गई.

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मणिपुर में कांग्रेस ने कुल 60 में से 28 सीटें जीती थी, जकि 21 सीटों पर जीतने में कामयाब रही थी. कांग्रेस के निर्वतमान मुख्यमंत्री इबोबी सिंह ने चुनाव के बाद उभरकर सामने आई सबसे बड़ी पार्टी के नेता के तौर पर राज्य में सरकार बनाने का दावा पेश किया था. उनका दावे को नजरअंदाज कर दिया गया और भारतीय जनता पार्टी को तिकड़बाजी और दांव की राजनीति को आजमाने के लिए पर्याप्त मौका दिया गया. बीजेपी ने आखिरकार नेशनल पीपुल्स पार्टी (4 विधायक), लोक जनशक्ति पार्टी, तृणमूल कांग्रेस (एक विधायक), एक कांग्रेस विधायक और निर्दलीय विधायकों के समर्थन की मदद से सरकार बना ली. विचित्र बात यह रही कि कांग्रेस के इस विधायक पर दल-बदल कानून के प्रावधान भी नहीं लागू हुए. बीजेपी की तरफ से नियुक्त राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला इस अवसरवादी गठबंधन की अस्थिरता या स्थिरता को लेकर बिल्कुल चिंतित नजर नहीं आईं.

BJP-PDP गठबंधन को लेकर राज्यपाल के मन में क्यों नहीं उठा सवाल?

जम्मू-कश्मीर के सिलसिले में अगर तथ्यों की बात करें तो जब पीडीपी और बीजेपी ने गठबंधन सरकार बनाने का फैसला किया तो इस अवास्तविक गठबंधन के बारे में राज्यपाल की तरफ से किसी तरह का सवाल नहीं उठाया गया. अगर आप अपना थोड़ा दायरा बढ़ाएंगे, तो आप पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच कॉमन आधार पा सकते हैं.

दोनों कश्मीरी पार्टियां हैं; दोनों विशेष तौर पर कश्मीरी हित और स्वायत्ता की बात करती हैं; दोनों बीजेपी के जम्मू संबंधी हिंदुत्व एजेंडे को खतरा जैसा मानती हैं और उनका सामाजिक आधार में भी एक तरह की समानता है. पीडीपी और कांग्रेस का गठबंधन पहले रह चुका है. हालांकि, जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल ने राज्य में किस तरह से इस बात की कल्पना कर पीडीपी और बीजेपी की सरकार बनाने की अनुमति देने का फैसला किया था कि दोनों पार्टियां मिलकर 'स्थिर' सरकार दे सकती हैं. जाहिर तौर पर पीडीपी और बीजेपी विचारधारा और व्यवहार के तौर पर एक-दूसरे के ठीक विपरीत हैं. यह कल्पना संदेह पैदा करती है.

अब केंद्र सरकार के अवतार में बीजेपी और श्रीनगर में उसके मौजूद लोग पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन की स्थिरता को लेकर चिंताएं जता रहे हैं. एक अखबार ने खबर दी है कि केंद्र सरकार इस गठबंधन को जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक हालात के लिए नुकसानदेह मानती है. हालांकि, असली वजह कुछ और है और कई खबरें केंद्र सरकार और बीजेपी के इस खोखले दावे की पोल खोल रही हैं. वास्तव में बीजेपी और केंद्र सरकार को इसकी चिंता इसलिए थी, क्योंकि राज्य मे सरकार गठन संबंधी नई व्यवस्था बीजेपी को किनारे कर देती और सज्जाद लोन का इस्तेमाल कर पीडीपी विधायकों, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस को अपने पाले में कर राज्य में सरकार बनाने का रास्ता बंद हो जाता.

कांग्रेस को भले ही कोसे BJP, लेकिन इंदिरा गांधी की कार्यशैली की याद दिलाता है यह सब कुछ

इस पूरी प्रक्रिया में बीजेपी द्वारा लगातार संस्थानों को तार-तार करने का सिलसिला जारी है. औपनिवेशक राज का एक गैर-जरूरी अवशेष-राज्यपाल का पद भारत सरकार के 1935 के कानून के तहत अस्तित्व में आया था, जिसका मकसद उस वक्त की निर्वाचित प्रांतीय सरकारों पर निगरानी रखना था. इस बात में कोई शक नहीं है कि पिछले कुछ समय से इस पद का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो गया है.

सबसे पहले इंदिरा गांधी ने उन राज्य सरकारों को अपदस्थ करने के लिए इस पद का दुरुपयोग किया, जिन्हें वह पसंद नहीं करती थीं. उन्होंने 1970 में चरण सिंह सरकार को जबरन अपदस्थ कर दिया, जबकि उनके पास जनसंघ, कांग्रेस (संगठन) और संगठन सोशलिस्ट पार्टी का समर्थन था. यह शायद उस वक्त अपवादस्वरूप घटना थी. हालांकि, 1980 में दोबारा केंद्र की सत्ता में लौटने के बाद गांधी ने कई राज्य सरकारों को हटाने के लिए संवैधानिक प्रावधानों को धड़ल्ले से दुरुपयोग किया.

बीजेपी की तिकड़बाजी पर इंदिरा गांधी के काम करने की शैली की गहरी छाप है. इस मामले में अब क्या होगा, यह अभी तक साफ नहीं है. राज्यपाल के इस फैसले के खिलाफ कोई शख्स अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है और इसे तर्कसंगत कदम माना जाएगा. मुमकिन है कि कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस अपनी बारी आने के लिए और 6 महीने तक इंतजार करने का फैसला कर संतुष्ट हो जाएं, जब राज्य विधानसभा के चुनाव कराने होंगे. हालांकि, मलिक के जरिये बीजेपी को राज्य की बागडोर संभालने की इजाजत देने को संयमित या विनम्र सोच माना जाना चाहिए.

सामान्य तौर पर कहें तो जम्मू-कश्मीर की स्थिति एक बार फिर एक चीज साबित करती है- बीजेपी जितना ही इंदिरा कांग्रेस (खास तौर पर 1980 के दशक के मामले में) की तरह बनती जाती है, भारतीय जनता पार्टी के ऊंटपटांग प्रवक्ता उतना ही शोर मचाकर कांग्रेस और उसकी ऐतिहासिक विरासत को कोसते हैं. ये प्रवक्ता कभी इस तथ्य की तरफ ध्यान नहीं देना चाहते हैं कि कांग्रेस इस बोझ से काफी हद तक मुक्त हो चुकी है.