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जब एक सांसद ने अपने ही बेटे को चुनाव हरवा दिया

जगदानंद ने अपने पुत्र को 'राजद' का टिकट नहीं लेने दिया

Surendra Kishore

वंशवाद विरोधी सांसद जगदानंद ने एक राजनीतिक कार्यकर्ता से अपने पुत्र को 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में हरवा दिया था.

शायद देश के राजनीतिक इतिहास में यह अपने ढंग की अनोखी राजनीतिक घटना है. यह तब हुआ जब जगदानंद का अपना दल 'राजद' घनघोर परिवारवाद के लिए चर्चित रहा है. 'राजद' नेतृत्व चाहता था कि जगदानंद के पुत्र 'राजद' के टिकट पर रामगढ़ से लड़े. 2009 में सांसद बनने से पहले जगदानंद 1985 से लगातार रामगढ़ से जीतते रहे.


लेकिन जगदानंद ने अपने पुत्र को 'राजद' का टिकट नहीं लेने दिया. पुत्र सुधाकर सिंह भाजपा के उम्मीदवार बन गये.

लालू प्रसाद यादव

लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के मंत्रिमंडलों के सबसे महत्वपूर्ण मंत्री रह चुके जगदानंद ने बिहार के कैमूर जिले के रामगढ़ विधानसभा चुनाव क्षेत्र में अपने पुत्र सुधाकर सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को नजरअंदाज करके अपने दल के उम्मीदवार का ही साथ दिया.

जगदानंद राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के अनुयायी रहे हैं

रामगढ़ राजपूत वर्चस्व वाली सीट है. लेकिन वहां उसी साल हुए उप्र चुनाव में जगदानंद ने अपने क्षेत्र के कर्मठ कार्यकर्ता अंबिका यादव को राजद उम्मीदवार बनवाकर जितवा दिया.

जब अगले साल बिहार विधानसभा का आम चुनाव हुआ तो  फिर अंबिका यादव 'राजद' से लड़े और सुधाकर सिंह हार गए.

जगदानंद डॉ.राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के अनुयायी रहे हैं.

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आज के आम चलन के अनुसार रामगढ़ की सीट यदि किसी दूसरे नेता ने छोड़ी होती तो उन्होंने अपने परिवार के किसी सदस्य को उस सीट का अपना उत्तराधिकारी बना दिया होता.

यदि वैसा कोई उम्मीदवार परिवार में उपलब्ध नहीं होता तो अपनी जाति के किसी कार्यकर्ता या नेता को खड़ा कराया होता. लेकिन यह काम जगदानंद ने नहीं किया.

किसी भी प्रमुख राजनीतिक दल ने आजादी के बाद से अब तक किसी यादव नेता को रामगढ़ से उम्मीदवार तक नहीं बनाया था क्योंकि वहां यादव की आबादी निर्णायक नहीं है.

जगदानंद ने काम के बल पर वोट पाया

अन्य अधिकतर मामलों में तानाशाही दिखाने वाले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद जगदानंद का इतना ध्यान जरूर रखते हैं कि उन्हें रामगढ़ ही नहीं बल्कि आसपास के कुछ चुनाव क्षेत्रों के लिए भी उम्मीदवार चुनने की छूट देते हैं. जगदानंद भी लालू प्रसाद के साथ मजबूती से डटे रहते हैं.

प्रचार से दूर रहने वाले जगदानंद की इस पहल का समुचित प्रचार नहीं हुआ.

पर इस घटना ने बता दिया कि आज के दौर में भी कोई नेता चाहे तो अपने क्षेत्र में अच्छा काम करके किसी भी जाति के अपने दल के किसी अच्छे राजनीतिक कार्यकर्ता को विधायक बनवा सकता है.

पिछले कुछ दशकों से कुछ लोगों द्वारा यह धारणा बनाई जा रही है कि भरपूर काला धन के बिना कोई चुनाव नहीं लड़ सकता. क्योंकि अब मतदाता भी वोट देने के लिए पैसे मांगते हैं.जगदानंद ने काम के बल पर खुद वोट पाया और अंबिका यादव को जिताया.

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यह और बात है कि 2015 में अंबिका यादव हार गए.

इस धारणा को पिछले वर्षों बिहार के दो अन्य विधायकों ने भी तोड़ दिया था. जबकि उन दिनों बिहार एक से एक बड़े घोटालों के लिए चर्चित  था.

माले विधायक महेंद्र प्रसाद सिंह 1990 से लगातार तीन बार बगोदर से विधायक रहे. उनके चुनाव में आम लोग और माले पैसे खर्च करते थे.

उसी तरह सीपीएम के वासुदेव सिंह बिहार विधानसभा और विधानपरिषद दोनों सदनों के बारी-बारी से सदस्य रहे.

वासुदेव सिंह और महेंद्र सिंह विधायक रहते हुए रिक्शा से चलते थे

वासुदेव सिंह और महेंद्र सिंह ने मुझे अलग-अलग बताया था कि हमसे वोट के बदले कहीं कोई पैसा नहीं मांगता. हमारा खर्च हमारी पार्टी और आम लोग उठाते हैं.अब दोनों इस दुनिया में नहीं रहे. दरअसल लोग उसी नेता से वोट के बदले पैसे मांगते हैं जिनके बारे में लोगों की यह राय बनती है कि उनके पास काफी पैसे हैं.

वासुदेव बिहार शिक्षक संघ के गेस्ट हाउस में रहते थे. वह 1990 से 2013 तक बारी-बारी से लगातार बिहार विधानसभा और विधानपरिषद के सदस्य रहे.

वासुदेव बाबू कहते थे कि सरकारी आवास या बंगले का खर्च उठाने लायक विधायक का वेतन नहीं है. मकान लूंगा तो अतिथि आएंगे. मैं उनका खर्च कहां से उठाउंगा?

वासुदेव सिंह और महेंद्र सिंह पटना में रिक्शे पर चलते थे. कई बार तो विधान मंडल भवन का संतरी वासुदेव सिंह को गेट पर रोक कर उनसे पास मांग देता था. क्योंकि कल्पना ही नहीं कर पाता था कि अब कोई विधायक रिक्शा पर भी चलता है.