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यूपी चुनाव में सबको चौंका सकती है बीएसपी

बीएसपी को लेकर कई बार एक ‘माॅयोपिक’ किस्म का दृष्टिकोण भी मीडिया एवं अनेक चुनाव विश्लेषकों में रहा है.

Badri Narayan

उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव के संदर्भ में इधर मीडिया हवा कुछ ऐसी बही है कि जो बहुजन समाज पार्टी अपने सामाजिक समीकरण एवं जातीय आंकड़ों के कारण जमीनी स्तर पर उत्तर प्रदेश में सत्ता की सबसे प्रबल दावेदार मानी जा रही थी, वह तीसरे नम्बर की तथा अपनी चुनावी संभावना के लिए पिछली पायदान पर गिनी जाने लगी है.

यह तो पहले भी सिद्ध हो चुका है कि मीडिया जगत में बीएसपी को लेकर सिम्पैथी का भाव कभी नहीं रहा है. बीएसपी को लेकर कई बार एक ‘माॅयोपिक’ किस्म का दृष्टिकोण भी मीडिया एवं अनेक चुनाव विश्लेषकों में रहा है.


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साथ ही बीएसपी के वोटर अमूमन कम वोकल समुदायों से आते हैं. अर्थात् या तो वे बोलते नहीं है, बोलते हैं तो बहुत कम बोलते हैं और वे कई बार स्ट्रेटेजिक स्टेटमेंट देते हैं.

ऐसे में चुनाव समीक्षक, राजनीतिक विश्लेषक एवं सेफोलाॅजिस्ट बीएसपी के चुनावी परफाॅरमेंस का अनुमान लगाने में प्रायः गलतियां करते रहे हैं. अनेक विधानसभा चुनाव के परिणामों में बीएसपी को समझने में हमारी असफलता देखी एवं महसूस की गई है.

बीएसपी जमीन पर अभी है सत्ता की दावेदार 

आगरा में बीएसपी के समर्थक (पीटीआई)

मैंने जितना फील्डवर्क किया है और अपने ढंग से चुनावी परिदृश्य को समझने की कोशिश की है, उससे तो लगता है कि बीएसपी अभी भी जमीनी स्तर पर सत्ता में दावेदारी की मजबूत लड़ाई लड़ रही है.

बीएसपी का चुनावी गणित इस बात पर केंद्रित है कि उम्मीदवार अपने साथ अपनी जाति एवं सामाजिक समुदाय के बड़े प्रतिशत का वोट लाएंगे. उस वोट के साथ उक्त विधान सभा में दलित जो बीएसपी का आधार वोट है, जुड़ जाएगा.

वोटों का यह सम्मिलन अन्य सामाजिक समूहों के साथ मिलकर एक जिताऊ समीकरण तैयार करेगा. बीएसपी की शक्ति अपने आधार समूह के वोटों का पूरी तरह ट्रांसफर है, जो शायद ही किसी राजनीतिक दल के पास है.

दूसरा बीएसपी ने एक वर्ष पहले अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे. ये उम्मीदवार तब से अपने अपने क्षेत्रों में सक्रिय रहे हैं. जबकि अन्य दलों ने अभी अपने उम्मीदवार घोषित किए हैं.

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ऐसे में चुनावी ताने-बाने को समझते हुए हमें ध्यान में रखना होगा कि उम्मीदवार के चुनावी तैयारी का इस जनतंत्र में कोई तो मतलब होता ही होगा. अगर किसी भी वायस मे मुक्त होकर अगर विधान सभा क्षेत्रों के उम्मीदवारों का अगर सही आंकलन करें तो यह जाहिर होगा कि प्रायः विधान सभा क्षेत्रों में बीएसपी ने मजबूत उम्मीदवार उतारे हैं.

बीएसपी का इस विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग का आधार दलित मुस्लिम गठबंधन है. यह ठीक है कि गठबंधन ज्यादा कारगर होता अब नहीं दिख रहा है.

कांग्रेस-एसपी गठबंधन के बनने के बार मुस्लिम मतों का बहाव बीएसपी की तरफ होने से रुका है. उनका झुकाव कई क्षेत्रों में कांगेस-एसपी की तरफ दिख रहा है.

बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग 

बीएसपी ने भी इन चुनावों में मुसलमानों को रिझाने की कोशिश की है

फिर भी इससे बीएसपी की चुनावी संभावना को पूरी तरफ क्षीण नहीं माना जाना चाहिए. बीएसपी अपने मुस्लिम उम्मीदवारों के माध्यम से मुस्लिम मतों के एक हिस्से में सेंध लगा रही है.

मायावती आरक्षण के मुद्दे को भी इस चुनाव में भंजा रही हैं. आरएसएस के मीडिया प्रभारी श्री एम.के. वैद्य के जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दिए गए ‘आरक्षण की समाप्ति सम्बन्धी’ मीडिया द्वारा प्रसारित किए गए बयान का सहारा लेकर मायावती जी बीजेपी को आरक्षण विरोधी साबित कर रही हैं.

मायावती बीजेपी के विरुद्ध दलितों के साथ साथ ओबीसी और अति पिछड़ों को भी बीएसपी की ओर आकर्षित करना चाहती हैं. ओबीसी और अति पिछड़ों में बीजेपी के प्रति बढ़ते मोह को वे आरक्षण के अस्त्र से भंग करना चाहती है.

आरक्षण के अस्त्र को बिहार विधान सभा चुनाव में लालू यादव, नीतीश कुमार, कांग्रेस के महागठबंधन ने आरएसएस और बीजेपी के खिलाफ सफल ढंग से इस्तेमाल किया था.

देखना यह है कि मायावती कितने सफल ढंग से उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ‘आरक्षण के अस्त्र’ का इस्तेमाल कर पाती हैं. साथ ही यह भी देखना है कि मायावती मुस्लिम मतों का कितना प्रतिशत अपने ओर खींच पाती हैं .

साथ ही वे ओबीसी और अति पिछड़ों में वे कितना भीतर प्रवेश कर पाती है. यह भी देखना है कि इस चुनाव में जो ब्राह्मण मतदाता 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती को मतदान कर चुका है, क्या उसका एक हिस्सा फिर से मायावती को इस चुनाव में वोट करता है या नहीं.

इन सब अगर-मगर के बीच भी मेरा मानना है कि कि बीएसपी को नजरअंदाज मत कीजिए. बीएसपी में हमें चौंका देने की शक्ति अभी भी बाकी है.