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गुजरात चुनाव 2017: 'ब्रांड मोदी' को बार-बार भुनाने की रणनीति में जोखिम भी है

अगर बीजेपी हारती है, तो ये मोदी के खिलाफ वोट माना जाएगा. उन्हें गुजराती अस्मिता से जोड़कर देखने के दावे को भी चोट पहुंचेगी

Sandipan Sharma

किसी अच्छे फोटोग्राफर की नजर से देखें तो अहमदाबाद का लॉ गार्डन जन्नत दिखेगा. इसके हरे-भरे लॉन, बीच में तालाब, तालाब में खिले नरगिस और कमल के फूल. बगीचे के बड़े-बड़े दरख्तों पर बंदर एक से दूसरी डाल पर कूदते दिखाई देते हैं. तोते अपने लिए दाने चुगते दिख जाते हैं. और भी बहुत सारे परिंदे आप को यहां देखने को मिलेंगे.

तरह-तरह के पेड़-पौधों और जीवों से गुलज़ार बागीचे में विधानसभा चुनाव के चलते कुछ और लोग भी दिखाई देते हैं. ये हैं बीजेपी के कार्यकर्ता, जो ब्रांड मोदी को बेचने में जुटा है. बीजेपी के पास बेचने के लिए शायद यही ब्रांड है. और कुछ नहीं.


ये शख़्स अपनी पहचान छुपाने के लिए सादे कपड़ों में रहता है. वो सुबह के वक्त सैर पर निकले लोग, या योग करने आने वालों और छात्रों से बातचीत की कोशिश करता है. अगर कोई बात करने को राजी हो गया, तो वो उसे मोदी के संदेश सुनाने की कोशिश करता है. ये संदेश वो एक टैबलेट के जरिए सुनाता है.

इसमें मोदी गुजरात के लोगों से अपने लिए वोट मांगते हैं. पहले मोदी की उन तस्वीरों का मोंटाज आता है, जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे. फिर उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद की तस्वीरें आती हैं. आखिर में गुजराती में जज्बाती अपील की जाती है कि मोदी का हाथ मजबूत करना है.

ये कार्यकर्ता उन हजारों बीजेपी कार्यकर्ताओं में से एक है, जो लोगों को मोदी का संदेश सुनाते हैं. इन्हीं के जरिए बीजेपी गुजरात विधानसभा चुनाव में अपनी नैया पार लगाने की कोशिश में जुटी है. पार्टी के कार्यकर्ताओं की पूरी फौज, घर-घर, बगीचे-बगीचे, मॉल से मॉल तक अपने नेता के नाम पर प्रचार कर रही है. और ये तैयारी चुनावी मैदान में मोदी के उतरने के पहले की है, जब वो चुनावी जंग की अगुवाई करेंगे.

अहमदाबाद में पीएम नरेंद्र मोदी की रैली के दौरान की तस्वीर

मतदाताओं की नाराजगी को दूर करने की नई गाइडलाइन

सूत्र बताते हैं कि बीजेपी के प्रति नाराजगी की वजह से पार्टी ने कार्यकर्ताओं को नई गाइडलाइन जारी की है. उन्हें लोगों की भीड़ से दूर रहने को कहा गया है. कार्यकर्ताओं को कहा गया है कि वो एक-दो लोगों से अकेले में मिलें. रिहाइशी इलाकों में जाएं. शहरी सोसाइटियों में जाएं. सोसाइटी में वो स्थानीय पदाधिकारियों के साथ ही जाएं.

उन्हें कहा गया है कि लोग जीएसटी और नोटबंदी के खिलाफ बोलें तो विनम्रता से मानें कि कुछ कमियां रह गई हैं. आखिर में वो मोदी को समर्थन देने की अपील करें. उनसे कहें कि अगर गुजरातियों ने ही मोदी का साथ छोड़ दिया तो वो देश के बाकी लोगों से कैसे समर्थन मांगेंगे?

फिर कार्यकर्ताओं को लोगों से एक सवाल पूछने को भी कहा गया है. सवाल ये कि अगर आप घोड़े की सवारी करते वक्त गिर जाएंगे, तो क्या गधे की सवारी करने लगेंगे? गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी इस बार घर-घर जाकर प्रचार को मजबूर हुई है. यही इस चुनाव की सबसे बड़ी खबर है.

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पिछले दो दशकों से पार्टी आराम से मोदी के नाम पर चुनाव लड़ती और आसानी से जीतती आई थी. चुनावी हवाबाजी ज्यादा होती थी. लेकिन इस बार पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को जमीन पर उतारने को मजबूर हुई है. बीजेपी को अपनी रणनीति क्यों बदलनी पड़ी, इसकी कई वजहें हैं.

पहली बात तो ये कि मोदी के बाद जिनके हाथ गुजरात की डोर आई, वो उनकी विरासत को आगे नहीं बढ़ा सके. मौजूदा मुख्यमंत्री विजय रमणीकलाल रूपानी की इस चुनाव में कोई हैसियत नहीं. उन्हें मोदी का वारिस कम और जीत के मजे लेने वाला ज्यादा कहा जाता है. राज्य बीजेपी में नेताओं के बीच लड़ाई में वो एक खेमे के नेता भर माने जाते हैं. मोदी की बराबरी की तो खैर बात ही नहीं, उन्हें तो ढंग से राज्य का मुख्यमंत्री भी नहीं माना जाता.

दूसरी बड़ी वजह ये है कि कारोबारी, किसान, पाटीदार, दलित और युवा बीजेपी से नाराज हैं. पिछले कई सालों में पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है कि ये लोग अपनी गुजराती पहचान से ऊपर उठकर वोट करने को राजी दिख रहे हैं.

वो अपनी समस्याओं के बारे में बात कर रहे हैं. वो गुजराती से ज्यादा अपने-अपने समुदायों की बातें और उनकी दिक्कतों के बारे में बातें कर रहे हैं. ये नाराजगी राहुल गांधी के चुनाव प्रचार में दिखती है. राहुल की रैलियों में काफी भीड़ जुट रही है. कई जगह तो लोगों ने बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी बात रखने तक से रोक दिया.

जमीनी स्तर पर लोगों के जज्बात भुनाने में जुटी है बीजेपी

आज से कुछ महीनों पहले तक ये बात सोचना भी मुमकिन नहीं था. मगर आज मोदी के गढ़ में लोग राहुल गांधी को सुनना चाहते हैं. बहुत से गांवों और शहरी बस्तियों में लोगों ने बैनर लगाकर बीजेपी को अपने यहां से दूर रहने की चेतावनी तक दे डाली है. कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जब बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लोगों ने खदेड़ दिया. उन्हें बोलने नहीं दिया.

अब बीजेपी को उम्मीद है कि लोगों से निजी तौर पर बात करके, उनकी शिकायतें दूर करके, अकेले में अपनी गलतियां मान कर वो वोटर को अपने लिए वोट करने के लिए मना लेगी. बड़ी रैलियों में अभी भी पार्टी उसी जुमलेबाजी से काम चला रही है, जिनके दम पर वो चुनाव जीतती आ रही थी. लेकिन जमीनी स्तर पर पार्टी मोदी को लेकर लोगों के जज्बात भुनाने में जुटी है.

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बीजेपी को उम्मीद है कि इस रणनीति से वो अपना गढ़ बचाने में कामयाब रहेगी.

बीजेपी को लगता है कि घर-घर जाकर लोगों से बात करना उसके लिए बड़ी कामयाबी लाएगा. वजह ये कि जमीनी स्तर पर कांग्रेस के पास इस रणनीति के मुकाबले कुछ नहीं है. अपनी जमीनी रणनीति को कामयाब बनाने के लिए बीजेपी ने कई केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा है, जो घर-घर जाकर लोगों से मिल रहे हैं.

अहमदाबाद में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष घर-घर जाकर पार्टी के लिए वोट जुटाने की कोशिश कर रहे हैं फोटो पीटीआई

इसके अलावा बीजेपी सोशल मीडिया पर मैं हूं विकास, मैं हूं गुजरात और मोदी हैं ना जैसे अभियान भी चला रही है. बहुत से लोगों को लगता है कि बीजेपी की ये रणनीति चुनाव जिताने में कारगर साबित होगी. लोगों को ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि आम गुजराती, मोदी को अपने राज्य के गौरव और पहचान के तौर पर देखता है. उनकी कामयाबी से खुद को जोड़ता है. ऐसे में गुजरात के लोग अपने प्रधानमंत्री को नीचा दिखाएंगे, इसकी उम्मीद कम लगती है.

लेकिन मोदी का नाम बार-बार भुनाने की बीजेपी की रणनीति में बड़ा जोखिम भी है. अगर बीजेपी हारती है, तो ये मोदी के खिलाफ वोट माना जाएगा. उन्हें गुजराती अस्मिता से जोड़कर देखने के दावे को भी चोट पहुंचेगी. पार्टी को तो इससे जबरदस्त सदमा लग सकता है.

अगर ऐसा होता है तो लंगूर और तोते तो अहमदाबाद के लॉ गार्डेन में उधम मचाते रहेंगे. लेकिन उनकी आवाज से मुकाबला कर रही नई आवाज जरूर खामोश हो जाएगी.