कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण किया. मॉनसून के कहर से इस साल देश के कई राज्य प्रभावित हैं लेकिन उन सूबों को यह सौभाग्य नसीब नहीं हुआ.
अब यहां यह तर्क देना बेमानी है कि प्रधानमंत्री को बाढ़-प्रभावित बाकी राज्यों की फिक्र नहीं है. लेकिन यह कहना भी गलत ना होगा कि गुजरात कई मायनों में प्रधानमंत्री के लिए सभी सूबों का सरताज रहा है, एक ऐसा सूबा जिसकी हिफाजत वे अपना आखिरी किला मानकर जी-जान से करते हैं.
सो, गुजरात में जारी ड्रामे और कांग्रेस में मची भगदड़ को मोदी की नजर में इस सूबे की अहमियत और इसी टेक पर चीजों को लेकर अमित शाह के मन में पक रही योजना के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. इस सूबे को एक रणक्षेत्र के रूप में देखा जाना चाहिए, ऐसा रणक्षेत्र जिसपर दबदबा कायम करने के लिए मोदी और शाह साम-दाम-दंड-भेद यानी अपने जखीरे में मौजूद हर हथियार का इस्तेमाल करेंगे.
यह बात तो अब जगजाहिर है कि गुजरात विधानसभा के चुनाव के चंद माह पहले कांग्रेस के भीतर एकदम से अफरा-तफरी का माहौल है. गुजरात कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता शंकरसिंह वाघेला के बारे में माना जा सकता था कि उनके होने से मोदी और शाह को तगड़ी चुनौती मिलती लेकिन वे पार्टी छोड़ चुके हैं. उनके पीछे रह गए हैं कुछ ऐसे कांग्रेसी विधायक जो कभी भी रंगा सियार साबित हो सकते हैं, पाला बदल सकते हैं.
कांग्रेस के विधायकों को कर्नाटक के एक रिसार्ट में पहुंचा दिया गया है, आशंका यह लगी है कि कहीं बीजेपी इन विधायकों पर भी सेंधमारी ना कर दे. और फिर, गुजरात के रास्ते अहमद पटेल को राज्यसभा में भेजने का कांग्रेस का प्लान भी बड़ी डांवाडोल हालत में है क्योंकि बीजेपी के लिए क्रॉस वोटिंग करने की धमकी देने वाले विधायकों की तादाद बढ़ते जा रही है.
अहमद पटेल की दयनीय दशा फिलहाल कांग्रेस के भीतर मची अफरा-तफरी का सही रूपक हो सकती है. हालत यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सलाहकार यानी वह आदमी जिसने बरसों तक पर्दे के पीछे रहकर कांग्रेस को चलाया है, आज अपने ही गृह-राज्य में कांग्रेस की जीत को लेकर निश्चिंत नहीं है जबकि कुछ दिनों पहले तक संख्याओं का गणित उसके पक्ष में था. यह तथ्य जितना त्रासद है उतना ही प्रहसनात्मक और यह आपको याद दिलाता है कि कांग्रेस कैसे लगातार गर्त में गिरते जा रही है लेकिन अपनी इस गिरावट को रोकने में एकदम नाकाम है.
कांग्रेस के प्रवक्ता और गुजरात से सांसद रह चुके भरत सिंह सोलंकी का दावा है कि बीजेपी ने विधानसभा चुनावों के लिए बहुत ललचाऊ फंदा फेंका है कि हमारे खेमे में आइए, रुपए भी मिलेंगे और चुनाव लड़ने का टिकट भी.
अब कांग्रेस का यह आरोप कोई साबित तो नहीं ही कर सकता कि उसके विधायकों को 15 करोड़ रुपए के एवज में गुजरात में पार्टी बदलने की पेशकश की जा रही है. लेकिन जैसा कि शायर बशीर बद्र के एक शेर में आता है- कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता.
बात चाहे भय की हो या लालच की, प्रलोभन कहिए या फिर सीधे-सीधे पार्टी से मोहभंग की हालत, कोई मजबूरी तो है जो कांग्रेस के विधायक पाला बदल रहे हैं और ठीक-ठीक क्या मजबूरी है यह कांग्रेस के पलटीमार विधायक ही बता सकते हैं.
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विपक्ष को कमजोर करने की बीजेपी की कोशिश
लेकिन कांग्रेस को डावांडोल करने के पीछे बीजेपी की मजबूरी बिल्कुल जाहिर है. इस सिलसिले की पहली बात यह कि यूपी और बिहार में मुंह की खाने के बाद विपक्ष क्या करुं-कहा जाऊं की हालत में आ गया है. यूपी में विपक्ष को चुनावी हार का सामना करना पड़ा तो बिहार में विपक्ष का चेहरा कहलाने वाले व्यक्ति ने विपक्ष का बंटाधार कर दिया. बीजेपी यह सुनिश्चित कर लेना चाहती है कि विपक्ष को एकजुट होने और गुजरात में चुनौती पेश करने का मौका ना मिले.
दूसरी बात यह कि गुजरात में सियासी हालात अब भी अनुमान से परे हैं. दो साल पहले का पाटीदार आंदोलन, उना में हुई हिंसा के बाद भड़का दलितों का आक्रोश, हार्दिक पटेल और जिगणेश मेवाणी जैसे नेताओं का उभार और नोटबंदी तथा जीएसटी के कारण व्यापारी तबके में फैली असमंजस की हालत चुनावों में क्या गुल खिलाएगी, यह जाहिर होना अभी बाकी है.
दो दशकों तक लगातार पटखनी खाने के बावजूद कांग्रेस ने बीजेपी के खिलाफ अपने वोटों का अंतर कम करने में कामयाबी हासिल की है. 2012 में कांग्रेस को बीजेपी से 9 फीसद ही कम वोट मिले थे.
जाहिर है, वोटों के रुझान में हल्का सा भी बदलाव होता है तो वह अगले चुनाव में बीजेपी के लिए भारी पड़ेगा. बीजेपी हरचंद कोशिश कर रही है कि कांग्रेस को सूबे की परिवर्तनशील सियासी परिवेश का फायदा ना मिले.
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विधायकों में मची भगदड़ के लिए खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है
फिलहाल कांग्रेस के विधायकों में भगदड़ मची है तो इस अफरा-तफरी और दुर्दशा के लिए खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है. हमेशा की तरह इस बार भी राहुल गांधी नेतृत्व की ताकत दिखा पाने में नाकाम साबित हुए. असम, गोवा, अरुणाचल प्रदेश और बिहार की मिसाल को सामने रखें तो सामने यही आता है कि राहुल गांधी बार-बार असफल साबित हुए हैं.
वे समय रहते निर्णय लेने और विरोध की आवाजों से निपटने में असफल रहते हैं और इस क्रम में बड़े निरीह नजर आते हैं यानी एक ऐसा नेता जिसे ना तो आगे की राह का पता है ना ही कोई दांव-पेंच आता है. वे वाघेला की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम नहीं कस पाए और बहुत संभव है कांग्रेस को इसकी कीमत गुजरात में हार के रूप में चुकानी पड़े तथा 2019 से पहले विपक्ष को एकजुट करने का अवसर भी हाथ से निकल गया हो.
लेकिन कोई करे तो क्या? आप कैसे उम्मीद लगा सकते हैं कि कोई पार्टी अपने को लील जाने पर आतुर आग को बुझा पाएगी जब इस पार्टी मुख्य रणनीतिकार खुद ही अपनी पूंछ में आ लगाकर चारो तरफ घूम रहा हो.