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'माहौल' से लेकर ओपिनियन पोल तक सब बीजेपी की जीत का इशारा देते हैं

बुधवार को गुजरात चुनाव की तारीख का ऐलान हुआ जबकि नतीजे 18 दिसंबर को आएंगे, ये पहले ही बता दिया गया था

Sanjay Singh

अपने किस्म का यह इकलौता अवसर होगा, जब गुजरात चुनाव के नतीजे की तारीख 18 दिसंबर का पहले ही पता चल गया और मतदान की तारीखों के लिए लगभग दो हफ्ते इंतजार करना पड़ा.

12 अक्टूबर को चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा की थी. फ़र्स्टपोस्ट की एक खबर में यह बात छपी थी, इसमें लिखा गया था- 'जिस वजह से चुनाव आयोग की पहल कौतूहल का विषय बन गई है वो ये है कि अब प्रदेश को (अच्छे से, और करीब-करीब) पता है कि गुजरात चुनाव के नतीजों की घोषणा कब होगी. यह 18 दिसंबर को हो सकती है जब हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों की घोषणा होगी और इस तरह गुजरात का चुनाव (संभवत: दो चरणों में) 10 से 16 दिसम्बर के बीच कभी भी हो सकता है.'


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अब जबकि चुनाव आयोग ने घोषणा कर दी है कि गुजरात में चुनाव दो चरणों में 9 दिसंबर और 14 दिसंबर को होंगे, तो चुनाव कार्यक्रम में देरी के आयोग के अधिकार पर नई दिल्ली में बड़ी अकादमिक बहस की गुंजाइश बढ़ गई है. गुजरात मुद्दे पर राजनीतिक रणक्षेत्र बिल्कुल अलग है और इसके अलग मायने पहले ही निकाले जा चुके हैं.

चुनाव आयोग की चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से एक दिन पहले एक-दूसरे से बिल्कुल अलग दो दिलचस्प चीजें हुई हैं. बीजेपी के लिए दोनों लाभकारी हैं.

पहला है अहमदाबाद के पांच सितारा होटल उम्मेद में राहुल गांधी से चुपके से मिलने जाते पाटीदार नेता हार्दिक पटेल का वीडियो फुटेज, जो ताज की प्रॉपर्टी है. इसका देश भर में मीडिया के जरिए प्रसारण हुआ.

हालांकि राहुल गांधी का पटेल जाति के उभरते नेता हार्दिक पटेल से मुलाकात में कुछ भी गलत नहीं है (पाटीदार अनामत आंदोलन समिति- PAAS) चाहे वे किसी मुद्दे पर चर्चा करें या चुनावी गठबंधन या फिर विलय. लेकिन, इससे हार्दिक के उस दावे की पोल खुल जाती है जिसमें वे लगातार कहते रहे थे कि वे बहुत व्यस्त हैं और उनके पास राहुल से मिलने का समय नहीं है.

उम्मेद होटल में उनके प्रवेश और बाहर निकलने (ढंके हुए चेहरे के साथ) के फुटेज और एक अन्य फुटेज में उन्हें रूम नंबर 224 में प्रवेश करते हुए दिखाए जाने के बाद, जहां माना जाता है कि राहुल गांधी ठहरे हुए थे, हार्दिक ने दावा किया कि वे दूसरे कांग्रेस नेताओं से मिले, राहुल से नहीं. लेकिन ये वीडियो हार्दिक के दावों को झुठलाते हैं.

तब से ये वीडियो फुटेज (दो किस्तों में- एक सोमवार की देर शाम और दूसरा मंगलवार को) लगातार सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों में प्रसारित होते रहे. प्रिंट और डिजिटल मीडिया ने भी इसे उठा लिया. हार्दिक का ज्यादातर समय अपनी स्थिति साफ करने में ही बर्बाद हुआ कि उन्होंने राहुल गांधी से मुलाकात की या नहीं.

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हार्दिक पाटीदार आंदोलन से उभरे नेता रहे हैं जो सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के लिए संघर्ष करता रहा है. महत्वपूर्ण ये भी है कि कांग्रेस, और खासकर राहुल गांधी ने अब तक गुजरात में पाटीदार समुदाय के लिए आरक्षण पर अपना रुख साफ नहीं किया है.

पाटीदारों के लिए आरक्षण का वादा करना राहुल के लिए आसान नहीं होगा. अगर वे ऐसा करते हैं तो हाल में बड़ी संख्या में अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस से जुड़ने वाले अल्पेश ठाकुर की स्थिति ओबीसी नेता के रूप में खुद उनके ही समुदाय में डांवाडोल हो जाएगी. (यहां तक कि वे पहले से ही कांग्रेसी हैं, कांग्रेस की टिकट पर नगर निगम चुनाव लड़े और उनके पिता कांग्रस के जिलाध्यक्ष हैं.)

सरकारी कोटा के लिए लड़ने वाले हार्दिक और पाटीदार समुदाय के खिलाफ संघर्ष करके ही अल्पेश ने अपनी साख बनाई है. अगर हार्दिक सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस उपाध्यक्ष के साथ मुलाकात को स्वीकार करते हैं तो यही तर्क उनकी बी मुश्किलें बढ़ाता है.

वीडियो खुलासा का अर्थ हार्दिक के लिए नई समस्या है. पीछे मुड़कर देखें तो वर्तमान में गुजरात कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी के पिता माधव सिंह सोलंकी ने 1985 में क्षत्रिय (ओबीसी समेत), हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों को लेकर KHAM समीकरण तैयार किया था. इस तरह पटेल समुदाय को राजनीतिक रूप से अलग-थलग व निष्प्रभावी बनाया था.

गुजरात में पटेल और दूसरी सवर्ण समुदाय की जातियों ने एक साथ कांग्रेस छोड़ दी थी और बीजेपी की ओर आकर्षित हुए थे. हार्दिक अब पहिए को उल्टा घुमाने की कोशिश कर रहे हैं, या फिर अपने समुदाय को अपने बूते 180 डिग्री उलटना चाह रहे हैं. अभी ये पता नहीं है कि व्यापक तौर पर पटेल समुदाय इस कदम को स्वीकार करेगा या नहीं.

राहुल-हार्दिक मुलाकात पर चुटकी लेते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि 'कांग्रेस और कांग्रेसी वेष बदले हुए हैं' और चूकि वे (हार्दिक) ‘बहुरूपिए’ की एक्टिंग कर रहे हैं इसलिए उन्हें चुपके से मुलाकात करनी पड़ी. 'आधी रात को हुई यह घटना स्कैंडल के सिवा कुछ नहीं है.'

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एक दिन पहले जो दूसरी दिलचस्प घटना हुई वह है इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया के ओपिनियन पोल. यह बताता है कि गुजरात में पिछले 22 सालों से सत्ता में रहने के बावजूद बीजेपी को एंटी इनकम्बेंसी का सामना नहीं करना पड़ रहा है. इतना ही नहीं आधुनिक गुजरात की पहचान रहे नरेंद्र मोदी के भारतीय प्रधानमंत्री बनने की घटना को भी गुजरात के लोग गौरव के रूप में देखते हैं. सर्वे का अनुमान है कि तीन कथित युवा तुर्क हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवानी से जुड़ने के बावजूद कांग्रेस को कड़ी पराजय और बीजेपी को जोरदार जीत मिलने जा रही है.

बीजेपी के खिलाफ पटेलों के गुस्से को पिछले दो चुनावों में मीडिया ने जिस तरीके से बढ़-चढ़ कर दिखाया गया था वैसा ही 2017 में भी हो रहा है. 2012 में पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी के असंतुष्ट नेता केशुभाई पटेल को पटेल समुदाय के बड़े नेता के रूप पेश किया गया था और उन्हें नरेंद्र मोदी विरोधी ताकतों के केंद्र के तौर पर दिखाया गया था.

हालांकि आधिकारिक रूप से केशुभाई ने कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाया था लेकिन वे मोदी विरोधियों के आकर्षण का केन्द्र बने हुए थे. केशुभाई ने गुजरात परिवर्तन पार्टी की घोषणा की थी, लेकिन जब नतीजे आए तो साबित ये हुआ कि वे पटेल समुदाय या किसी और समुदाय के वोटिंग पैटर्न पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाए.

2007 में बीजेपी के असंतुष्ट नेता कांशीराम राणा, सुरेश मेहता, गोर्धन जडाफिया, कानू कलसरिया और केशुभाई पटेल ने मोदी का विरोध करने के लिए हाथ मिला लिए थे, लेकिन एक बार फिर नतीजे ने साबित किया उन्हें मतदाताओं ने कोई तवज्जो नहीं दी.

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तब कांशीराम राणा ने दावा किया था कि वही असली ओबीसी नेता हैं जो जातियों और समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनके दावे के अनुसार इनकी संख्या राज्य में मतदाताओं का 50 फीसदी थी. लेकिन वे ओबीसी सदस्यों का नेतृत्व करने में विफल रहे. समुदाय व्यापक तौर पर मोदी और बीजेपी के पीछे इकट्ठा दिखा.

कभी भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन करने वाली उमा भारती ने भी शुरू में गुजरात में मोदी का विरोध किया था, लेकिन बाद में उन्होंने अपना रुख बदल लिया और बीजेपी का समर्थन करने लगीं. तब भी मीडिया जगत में चुनाव के दौरान उबाल आ गया था. शोहराबुद्दीन शेख और कौसर बी के मुठभेड़ को भी मीडिया ने अलग ही रंग दिया ताकि मोदी के खिलाफ वोटों को लामबंद किया जा सके. लेकिन, वह भी अंतिम रूप से गलत साबित हुआ.

सवाल ये है कि दिसंबर 2017 क्या 2002, 2007 और 2012 से किसी भी मायने में अलग होगा?