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योगी का इस्तीफा मांगने वाले पूर्व नौकरशाहों की मंशा में बीजेपी को 'यूपीए इफेक्ट' क्यों दिखता है?

पत्र की ज्ञात- अज्ञात पृष्ठभूमि को देखते हुए एक अंदेशा ये भी होता है कि पूर्व नौकरशाहों की राष्ट्रीय चिंता में योगी-विरोधी अफसरों का मर्म भी तो कहीं छिपा नहीं है?

Kinshuk Praval

सोशल मीडिया पर इन दिनों यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के खिलाफ पूर्व नौकरशाहों के एक समूह का पत्र वायरल हो रहा है. देश के 83 पूर्व नौकरशाहों ने इस पत्र के जरिए सीएम योगी से इस्तीफा मांगा है. इनका आरोप है कि सीएम योगी आदित्यनाथ किसी राज्य में धर्मांधता और कट्टरता फैला रहे हैं. पूर्व नौकरशाहों ने ये भी आरोप लगाया कि योगी सरकार ने संविधान के मौलिक सिद्धांतों और नीति को तबाह करके रख दिया है.

सीएम योगी पर संगीन आरोप लगाने वाले 83 पूर्व नौकरशाहों में पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन और सुजाता सिंह शामिल हैं तो इसी पत्र में सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय और हर्ष मंदर, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग और योजना आयोग के पूर्व सचिव एन सी सक्सेना के भी हस्ताक्षर हैं.


योगी के खिलाफ लिखे पत्र में एक दस्तखत शिव शंकर मेनन का भी है जो कि पूर्व एनएसए रहे हैं और अब इस पद पर अजित डोवाल है. पूर्व नौकरशाहों का लंबा-चौड़ा प्रशासनिक अनुभव रहा है. किसी ने विदेश तो किसी ने देश में बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी का पद संभाला है.

लेकिन जैसे योगी के बुलंदशहर हिंसा पर बदलते बयानों पर सवाल उठाए जा सकते हैं वैसे ही इन पूर्व नौकरशाहों के पत्र की मंशा पर भी सवाल उठते हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट से बुलंदशहर हिंसा पर संज्ञान लेने की अपील और सीएम योगी का इस्तीफा मांगने वाला पत्र क्या राजनीति से प्रेरित नहीं माना जा सकता? क्या पूर्व नौकरशाहों के अभियान में किसी विचारधारा का प्रभाव नहीं दिखता?

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83 पूर्व नौकरशाहों के समूह ने पत्र में लिखा है कि घृणा और विभाजन की राजनीति के खिलाफ मुहिम में एकजुट होने की जरूरत है. सवाल उठता है कि जब यूपी में पूर्व की अखिलेश सरकार के वक्त मुजफ्फरनगर के दंगे भड़के थे तब बौद्धिक स्तर पर विरोध की मशाल क्यों बुझी हुई थी? क्या इसकी एक वजह ये भी थी कि सरकारी पदों पर तब आसीन रहने की वजह से दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं भी प्रशासन की चूक नहीं बल्कि राजनीतिक दलों और धार्मिक कट्टरताओं की साजिश दिखाई देती थी?

इन 83 पूर्व नौकरशाहों ने यूपी में पदों पर आसीन नौकरशाहों से अपील की है कि वो निष्पक्ष और निर्भीक रह कर फैसला लेने में डिगे नहीं. सवाल उठता है कि जब ये पूर्व नौकरशाह अपने पदों पर आसीन रहे तब इन्होंने क्या ऐसी मिसाल कायम की?

Photo Source: ANI

बुलंदशहर हिंसा बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और किसी भी ऐसी हिंसक घटना की पूर्व में हुई किसी घटना के साथ तुलना भी नहीं की जा सकती. लेकिन ऐसी घटनाओं को देखने का नजरिया सरकार बदलने से बदला भी नहीं जाना चाहिए. जो निंदनीय है उसकी निंदा निष्पक्ष रह कर करने की जरूरत है. चाहे वो राजनीतिक दल हों या फिर नौकरशाह.

सरकारें आती हैं और चली जाती हैं. लेकिन ब्यूरोक्रेसी एक स्थाई सिस्टम है जिससे देश चलता है. कहा भी जाता है कि ब्यूरोक्रसी राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र निर्माण की ज्यादा बड़ी भूमिका निभाती है. लेकिन इसका ये मतलब भी कतई नहीं कि नौकरशाही राजनेताओं पर एक तरफ तमाम आरोप मढ़ती रहे तो दूसरी तरफ खुद को पाक-साफ बताते हुए ये दावा करे कि वो किसी विचारधारा का समर्थन नहीं करती और न प्रभावित है.

अब पूर्व नौकरशाहों के पत्र पर जाहिर तौर पर सियासी पारा भी चढ़ना था. बीजेपी ने आरोप लगाया है कि पत्र लिखने वाले यूपीए सरकार के दौर के नौकरशाह हैं जिसमें कई लोग यूपीए की चेयरमैन सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं.

ऐसे में पूर्व नौकरशाह कितना भी कहें कि वो किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित नहीं हैं बल्कि देश और समाज को बदलने के लिए एक मुहिम का हिस्सा हैं तो उनकी मंशा पर राजनीतिक सवाल तो उठेंगे ही.

सीएम योगी आदित्यनाथ पर यूपी में दो बड़ी जिम्मेदारी हैं. पहली सूबे में कानून व्यवस्था तो दूसरी संकल्प-पत्र के विकास के वादों को पूरा करना. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नौकरशाह के साथ सरकार का तालमेल बेहद जरूरी है. लेकिन ये ट्यूनिंग एकदम से बन भी नहीं सकती. इसमें वक्त लगता है. लंबे समय में ही एक मजबूत प्रशासनिक टीम आकार ले पाती है.

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यूपी में 14 साल बाद बीजेपी की सरकार आई है. 14 साल से सूबे में एसपी-बीएसपी की बारी-बारी से सरकार रही. जाहिर तौर पर सत्ता में लगातार रहने वाली पार्टियों के प्रति अधिकारियों की निजी हित के चलते राजनीतिक निष्ठा भी गहरी हो जाती है. सत्ता के इस मर्म को समझने के बावजूद सीएम योगी ने एक प्रयोग किया. यूपी की सत्ता संभालने के बाद सीएम योगी ने शुरुआत में मुख्य सचिव और डीजीपी को न बदलकर एक संदेश देने की कोशिश की.

लेकिन जब अफसरों की कार्यशैली पर फर्क नहीं पड़ा तो बाद में केंद्र से यूपी काडर के अफसर भी बुलाने पड़ गए. लंबे समय से कुर्सी पर डटे अधिकारियों से सहयोग न मिलने पर कई अफसरों को इधर से उधर किया गया. ऐसे में इस पत्र की ज्ञात- अज्ञात पृष्ठभूमि को देखते हुए एक अंदेशा ये भी होता है कि पूर्व नौकरशाहों की  राष्ट्रीय चिंता में योगी-विरोधी अफसरों का मर्म भी तो कहीं छिपा नहीं है?