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DUSU-JNUSU चुनाव के नतीजे: क्या युवा बीजेपी सरकार से छिटक रहे हैं?

डीयू में NSUI की जीत ने साफ किया है कि नई पीढ़ी अपने फैसले खुद ले रही है और इसमें उसे कोई हस्तक्षेप पसंद नहीं.

Aparna Dwivedi

दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) छात्रसंघ चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को बड़ा झटका लगा है. उसे छात्रसंघ का अध्यक्ष पद खोना पड़ा है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्रसंघ चुनाव के चारों सीटों पर यूनाइटेड लेफ्ट पैनल (आईसा, एसएफआई और डीएसएफ) ने बाजी मारी है. एबीवीपी को एक भी सीट नहीं मिली.

डीयू छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद पर एबीवीपी का चार साल से कब्जा था. वहीं, कांग्रेस के छात्र संगठन नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) ने जबरदस्त वापसी की है. एनएसयूआई के रॉकी तुसीद और कुणाल सेहरावत ने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पर के लिए करीब 16000 वोटों के साथ जीत दर्ज की है. एनएसयूआई के लिए ये जीत इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि चार साल बाद वो शीर्ष पदों पर चुनाव जीत कर आए हैं.


लेकिन यहां पर एनएसयूआई के जीत से ज्यादा एबीवीपी की हार मायने रखती है. ये पहला चुनाव नहीं है जिसमें बीजेपी का छात्र विंग एबीवीपी चुनाव हारा है.

सिर्फ दिल्ली की बात करें तो देश के दो प्रमुख विश्वविद्यालयों डीयू और जेएनयू में छात्रसंघ चुनाव के लिए एक ही दिन यानी 9 सितंबर को वोट डाले गए थे. राजनीतिक रूप से सक्रिय दोनों विश्वविद्यालयों में करीब 35 उम्मीदवार चुनावी मंच पर उतरे थे.

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जेएनयू में वाम प्रत्याशियों ने आरएसएस समर्थित एबीवीपी के अधिकतर उम्मीदवारों को बड़े अंतर से हराया. इससे पहले भी एबीवीपी राजस्थान विश्वविद्यालय में चुनाव हार चुकी है. खास तौर से तब जब राज्य में बीजेपी की सरकार है. सियासी जानकारों की मानें तो विश्विद्यालय की छात्रसंघ के चुनाव काफी मायने रखते हैं, खास तौर पर डीयू और जेएनयू के चुनाव. यहां पर देशभर से छात्र अपनी पढ़ाई करने आते हैं. इसलिए इन विश्विद्यालयों को नैनो इंडिया भी कहा जाता है. इन छात्रों के रवैए से देश भर में युवा के विचारों की झलक मिलती है.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक देश के 81.45 करोड़ मतदाताओं में 2.31 करोड़ की आयु 18-19 साल की है यानी ये पहली बार वोट देने वाले मतदाता थे, जो कि कुल मतदाता के 2.8 प्रतिशत थे.

हालांकि, छात्रसंघ का चुनाव मुख्य चुनाव से काफी अलग होता है लेकिन छात्रों और युवाओं के रोष को जरूर जतलाता है. अब सवाल ये उठता है कि तीन साल के अंदर ही युवा बीजेपी सरकार से छिटक क्यों रहा है? क्या हैं वो मुद्दे जो युवाओं को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं-

बेरोजगारी

प्रधानमंत्री मोदी ने वादा किया था कि सालाना एक करोड़ रोजगार देंगे लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. अब जब कार्यकाल के मात्र दो साल ही शेष बचे हों, ऐसे में हालात और भी चिंताजनक हो जाते हैं. वर्ष 2027 तक भारत में सर्वाधिक श्रम बल होगा, अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने के लिए रोजगार के मोर्चे पर सफल होना आवश्यक है. युवा बेरोजगारी पर आए एक हालिया सर्वे के मुताबिक, शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की स्थिति कहीं खराब हो चुकी है.

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सर्वे के अनुसार, 18-29 वर्ष आयु वर्ग के युवाओं में बेरोजगारी दर 10.2 प्रतिशत, जबकि अशिक्षितों में 2.2 प्रतिशत है. स्नातकों में बेरोजगारी दर 18.4 प्रतिशत पर पहुंच गई है. भविष्य में ज्यादा-से-ज्यादा शिक्षित युवा कार्यबल में दाखिल होंगे, ऐसे में संतोषजनक नौकरी नहीं मिलने पर असंतोष का बढ़ना लाजिमी है.

भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी

चालू वित्तवर्ष की जून में खत्म हुई तिमाही के दौरान भारत के जीडीपी में गिरावट दर्ज की गई है.पिछली तिमाही के 6.1 फ़ीसदी के मुकाबले बीते अप्रैल से जून की तिमाही में विकास दर घटकर 5.7 फीसदी पर आ गई है. नोटबंदी और जीएसटी की वजह से असंगठित क्षेत्र को जबरदस्त धक्का लगा है. ये भी युवाओं को डरा रहा है.

डिजिटल इंडिया और गाय का गोबर

जहां पर एकतरफ प्रधानमंत्री मोदी ने युवाओं को डिजिटल इंडिया और तेजी से बढ़े भारत का सपना दिखाया वहीं दूसरी तरफ पार्टी और सरकार से जुड़े लोगों के बयान और रवैए के एकदम उलट हुआ. युवा जहां एक तरफ अपनी संस्कृति से जुड़ना चाहता है वही वो तरक्की के सीढ़ियां भी तेजी से चढ़ना चाहता है. लेकिन गौरक्षक और गाय गोबर की बातें उसे परेशान कर रही है. एक तरफ वो स्वच्छ भारत के अभियान से जुड़ रहा है वहीं वो नया और बेहतर शिक्षा प्रणाली चाहता है. जहां पर शिक्षा सिर्फ पैसा कमाने का साधन ना बने. पढ़ाई को प्रोफेशनल तरीके से पढ़ाया जाए ताकि रोजगार का प्रशिक्षण और अवसर दोनों को मिले.

सरकार की नीतियों का ढंग से पालन

सरकार की युवा समर्थित नीतियां भी युवाओं को परेशान कर रही हैं. एक तरफ वो इंडिया एसपिरेशन जैसी नीतियों को ला रहे हैं लेकिन उसका ढंग से लागू ना करने की वजह से युवा निराश है.

लगातार जीत से बेपरवाह बीजेपी और छात्र संघ

बीजेपी की लगातार जीत से भी बीजेपी से जुड़े छात्रसंघ बेपरवाह हो गए. मोदी लहर के नाम पर चुनाव जीतते हुए उन्हें लगा कि अब काम करने की जरुरत नहीं है. शायद इसीलिए वो छात्रों से संवाद नहीं कर पाएं. लेकिन यही उनकी नुकसान कर गया.

दिल्ली यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष पद पर एनएसयूआई की जीत ने कुछ बातें खोल कर रखी. पहला यह कि नई पीढ़ी अपने फैसले खुद ले रही है और इसमें उसे कोई हस्तक्षेप पसंद नहीं. दूसरा- गंदगी चाहें वह किसी भी किस्म की हो, हरगिज पसंद नहीं. खास तौर से दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर एनएसयूआई का कब्जा एबीवीपी के लिए चेतावनी बन कर आई है. चार साल बाद एनएसयूआई को यह मौका मिला, और एबीवीपी को चिंतन करने का.