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DUSU का दंगल: चुनाव से क्यों दूर रहती हैं लड़कियां?

डीयू की 80 फीसदी लड़कियों और पूर्वोत्तर के छात्रों के बगैर ही चलती है डूसू की छात्र राजनीति

Updated On: Sep 10, 2017 08:47 PM IST

Puneet Saini Puneet Saini
फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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DUSU का दंगल: चुनाव से क्यों दूर रहती हैं लड़कियां?

डूसू चुनाव में 12 सितंबर को चुनाव होंगे. चुनाव की तस्वीर डीयू के नॉर्थ कैंपस में बिल्कुल अलग देखने को मिल रही है. एक कतार में आती एसयूवी जैसे किसी वीआईपी का जलसा आ रहा हो. छात्र नेता के पीछे 40-50 छात्रों का हुजूम बता रहा था कि हर पार्टी प्रचार के लिए धन और बल से पीछे नहीं छूटना चाहती.

सड़कों पर फैले उम्मीदवारों के पर्चे, दीवारों पर बड़े-बड़े पोस्टर बावजूद इसके कुछ कॉलेज इन चुनावों का बहिष्कार करते हैं. कारण पूछने पर एक छात्र ने कहा ‘इन चुनावों में सबसे ज्यादा पैसों की बर्बादी होती है. प्रचार के लिए हजारों रुपए बर्बाद कर दिए जाते हैं. हमें ऐसे चुनाव पसंद नहीं हैं.’

नॉर्थ कैंपस में हिंदू कॉलेज के बाहर NSUI और ABVP के छात्र अपने-अपने उम्मीदवारों के लिए वोट मांग रहे थे. कॉलेज के बाहर खड़े संतरी छात्र नेताओं को किसी भी कीमत पर कॉलेज में प्रवेश करने नहीं दे रहे थे. इसलिए नेताओं ने कॉलेज के बाहर ही प्रचार का अड्डा खोल दिया था कॉलेज से बाहर आने वाले हर छात्र को एक पर्चा दिया जा रहा था. पर्चे में उम्मीदवार की फोटो के साथ एक बैलेट नंबर लिखा था. शायद छात्रों को इससे कुछ नहीं लेना था इसलिए वह पर्चे हाथ में लेते ही रोड पर फेंक रहे थे. आलम यह था कि हजारों की संख्या में पर्चे सड़क पर फैले हुए जो कभी पैरों की नीचे आ रहे थे तो कई गाड़ियां उन्हें रौंदकर आगे निकल रही थीं.

80 प्रतिशत छात्राएं डूसू चुनाव में वोट ही नहीं करती है

डीयू के लिए सबसे बड़ी समस्या वोटर्स की घटती तादाद भी है. पिछले साल हुए चुनाव में सिर्फ 36 प्रतिशत वोटिंग हुई थी. जो 2015-16 के मुकाबले 6 प्रतिशत कम थी. इसकी मुख्य वजह छात्राओं और पूर्वोत्तर के छात्रों की मतदान में घटती भागीदारी है. डीयू में कुल 22 महिला कॉलेज हैं. जिसमें से सिर्फ 5 ही कॉलेज मतदान में हिस्सा लेते हैं. भागीदार करने वाले कॉलेज में आदिति महाविद्यालय, लक्ष्मीबाई कॉलेज, भागिनी निवेदिता कॉलेज, मिरांडा हाऊस और एसपी मुखर्जी कॉलेज का नाम शामिल है. इसका मतलब है कि करीब 80 प्रतिशत छात्राएं डूसू चुनाव में वोट ही नहीं करती है.

आइसा नेता कवल प्रीत कौर से हमने बात की तो उन्होंने बताया ‘NSUI और ABVP जैसी बड़ी पार्टियों में महिलाओं उम्मीदवार काफी प्रतीकवादी है. डीयू की राजनीति पुरुषवादी रही है. जबकि आइसा का एजेंडा है कि महिला कॉलेज को डूसू ज्वाइन करने के लिए हर प्रयास किया जाए.’

पिछले जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में नोटा का बटन आया तो 17,712 छात्रों ने इसका इस्तेमाल किया था. सेंटस्टीफन कॉलेज सिलेबस, फीस और नई कॉलेज ब्रांच खोलने का फैसला स्वंय लेता है. स्टीफन डूसू चुनाव में भी हिस्सा नहीं लेता है. इतना ही नहीं वह दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर एसोसिएशन का भी हिस्सा नहीं है. यह दिल्ली में सबसे पुराने कॉलेज में से एक है. इसकी स्थापना 1881 में की गई थी. अब नतीजा है कि यह डूसू से अलग हो गया है.

पूर्वोत्तर के छात्रों के लिए परेशानी का विषय का डूसू चुनाव

इसके अलावा जो छात्रों को सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है. वह पूर्वोत्तर छात्रों का मुद्दा है. करीब 25,000 छात्र दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं. जबकि इसमें से सिर्फ 5,000 छात्र ही वोट करते हैं. यह आंकड़े पूर्वोत्तर छात्रों के संगठन ने किए हैं. इस संगठन का नाम नॉर्थ ईस्ट स्टूडेंट सोसाइटी (NESSDU) है.

सुब्रतो बोहरा (फोटो: पुनीत सैनी)

सुब्रतो बोहरा (फोटो: पुनीत सैनी)

NESSDU के पूर्व अध्यक्ष सुब्रतो बोराह ने बताया पूर्वोत्तर के छात्रों से यहां दोयम दर्जे के नागरिक वाला बर्ताव किया जाता है. हॉस्टल की बहुत कमी है. चुनाव होते रहते हैं, लेकिन हालत वैसे ही हैं. हॉस्टल की कमी के चलते पूर्वोत्तर के छात्रों को महंगे कमरे बाहर रेंट पर लेने पड़ते हैं.’

सुब्रतो ने बताया ‘ डोनर मिनिस्ट्री ने आखिरी हॉस्टल डीयू में राजीव गांधी हॉस्टल बनाया था, लेकिन उसमें भी कुल 2,500 सीट में से  सिर्फ 1,000 सीट ही बाहरी छात्रों को दी गई थी. पूर्वोत्तर के छात्रों के लिए कोई अन्य हॉस्टल नहीं है.’

आगे बोलते हुए बोराह ने कहा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू भी पूर्वोत्तर से हैं. हम उनके पास भी कई बार अपनी समस्याएं लेकर गए हैं, लेकिन उनकी तरफ से भी कोई खास मदद नहीं की गई. उनके पास इतनी पावर नहीं है कि वो बाहर जाकर हमारी कोई मदद कर सकें.

दिल्ली यूनिवर्सिटी में हर साल छात्र अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जिन कैंडिडेट को चुनते हैं. वहीं कैंडिडेट डूसू में आसीन होने के बाद उम्मीदों को अरमान बनाकर छोड़ देते हैं. चाहे वो महिला सुरक्षा की बात हो या पूर्वोत्तर के छात्रों की समस्या हो कुछ नहीं बदलता. जिसका नतीजा है कि छात्र लगातार वोटिंग से दूर हो रहे हैं.

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