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वीपी सिंह और चंद्रशेखर की प्रतिद्वंद्विता ने बनाया था लालू को सीएम

‘चक्रव्यूह’ में फंसे लालू के उत्थान की कहानी सुनना दिलचस्प होगा

Surendra Kishore

वीपी सिंह और चंद्रशेखर के बीच की भारी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण ही लालू प्रसाद 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बन सके थे. पर जब एक बार बन गए तो मंडल और मंदिर आंदोलनों ने लालू को राजनीति का महाबली बना दिया. इन आंदोलनों का लालू ने साहसपूर्वक राजनीतिक लाभ उठाया.

आरक्षण विरोधियों का लालू प्रसाद ने जमकर सड़कों पर भी प्रतिवाद किया. उधर मंदिर आंदोलन के नेता एलके आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार करवाया. जेपी आंदोलन ने लालू प्रसाद को सिर्फ सांसद बनाया था, लेकिन मंडल आंदोलन ने उन्हें समाज के करोड़ों लोगों के लिए मसीहा बना दिया. रथ यात्री आडवाणी को गिरफ्तार करवा कर लालू प्रसाद ने अपने लिए मुसलमान वोट बैंक पक्का कर लिया.


हालांकि अंततः लालू प्रसाद अपनी इन उपलब्धियों को संभाल नहीं सके. अब महाबली और पिछड़ों के एक हिस्से के मसीहा अपने ही बनाए ‘चक्रव्यूह’ में फंस गए हैं .ऐसे में एक बार फिर लालू के उत्थान की कहानी सुनना दिलचस्प होगा.

देवीलाल और शरद यादव ने की थी लालू की मदद 

कुल मिलाकर लालू के राजनीतिक उत्थान में देवीलाल, शरद यादव, चंद्रशेखर, मंडल आंदोलन और आरक्षण आंदोलन का हाथ रहा. याद रहे कि बोफोर्स घोटाला विरोधी आंदोलन की पृष्ठभूमि में 1989 में लोकसभा और 1990 में विधानसभा के चुनाव हुए थे.

कर्पूरी ठाकुर जब बिहार के समाजवादी आंदोलन के शीर्ष नेता थे तब लालू प्रसाद की हैसियत एक अगंभीर विधायक से अधिक नहीं थी. पर 1988 में कर्पूरी ठाकुर के असामयिक निधन के बाद देवीलाल और शरद यादव ने लालू प्रसाद को उनका उत्तराधिकारी बनवा दिया. लोक दल के विधायकों को लालू के नाम पर राजी करवाने में शरद यादव को दिक्कतें आई थीं.

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उन दिनों देवीलाल बिहार लोक दल को हर तरह से मदद करते थे. शरद यादव देवीलाल के करीबी थे. देवीलाल ने बिहार का जिम्मा शरद यादव को दे रखा था. बिहार विधानसभा चुनाव के बाद सवाल जनता दल के विधायकों का नेता चुनने का था. तब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार सांसद थे. नीतीश तब लालू के पक्ष में थे. लालू और नीतीश ने अपने गुट के 106 लोगों को विधानसभा का टिकट दिला दिया था. उनमें से 68 जीत गए. याद रहे कि बाद में लोक दल जनता दल में शामिल हो गया था.

पूर्व मुख्य मंत्री रामसुंदर दास तत्कालीन प्रधान मंत्री वीपी सिंह और केंद्रीय मंत्री अजित सिंह के करीबी थे. उधर देवीलाल और शरद यादव लालू यादव को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते थे. लालू प्रसाद के लिए पृष्ठभूमि देवीलाल-शरद यादव की जोड़ी ने विधानसभा के टिकट के बंटवारे के समय ही बनवा दी थी. 1990 में 325 सदस्यीय बिहार विधान सभा में जनता दल के विधायकों की संख्या 122 थी.

पर्दे के पीछे से चंद्रशेखर का खेल 

केंद्र में बीजेपी और वामपंथियों के समर्थन से 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनी थी. बिहार में भी जनता दल की सरकार बनवाने में बाहर से बीजेपी का समर्थन मिलने ही वाला था और मिला भी .

चंद्रशेखर ने जब देखा कि यदि रामसुंदर दास और लालू प्रसाद के बीच नेता पद के लिए सीधा मुकाबला होगा तो दास जीत जाएंगे. इससे दिल्ली में वीपी सिंह की राजनीति मजबूत होगी. इसलिए चंद्रशेखर ने अपने एक खास विधायक रघुनाथ झा को खड़ा करा कर मुकाबले को त्रिकोणात्मक बना दिया. इस मुकाबले में किसी के पक्ष में खुलकर न तो वीपी सिंह आए थे और न ही चंद्रशेखर. पर सब जानते थे कि कहां से क्या राजनीति हो रही है.

वीपी सिंह और चंद्रशेखर के बीच के राजनीतिक छाया युद्ध में लालू प्रसाद जीत गए. मतों की गिनती के बाद किसे कितने वोट मिले, इसकी आधिकारिक घोषणा तो नहीं हुई, पर अनधिकृत रूप से जो पता चला, उसके अनुसार लालू को 58, रामसुंदर दास को 54 और रघुनाथ झा को 14 मत मिले. यानी रघुनाथ झा यदि उम्मीदवार नहीं होते तो दास की जीत तय थी क्योंकि जिन विधायकों ने रघुनाथ झा को वोट दिए थे, उनमें से अधिकतर लालू विरोधी थे.

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जनता दल विधायक दल के चुनाव के तत्काल बाद लोगों ने लालू प्रसाद और धनबाद जिले से चर्चित विधायक सूर्यदेव सिंह को गले मिलते देखा. सूर्यदेव सिंह चंद्रशेखर के खास थे. बाद में रघुनाथ झा लालू मंत्रीमंडल में शामिल भी हो गए. अब भी झा लालू प्रसाद के दल में हैं. हालांकि बीच में वे इधर-उधर होते रहे.

हाल में रघुनाथ झा ने भी स्वीकार किया कि 1990 में लालू प्रसाद को जितवाने के लिए ही वह विधायक दल के नेता पद के चुनाव में खड़े हुए था. मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद ने शुरुआती दिनों में तो अपनी अच्छी मंशा का परिचय दिया था. पर मंडल आंदोलन और मंदिर आंदोलन से काफी मजबूत हो जाने के बाद वह किसी की परवाह नहीं करने लगे.

ऐसे हुए लालू निरंकुश 

1991 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता दल की बिहार में भारी जीत के बाद तो लालू निरंकुश हो गए. उन्हें लगा कि वह कुछ भी करके बच सकते हैं.

लालू देवीलाल को धृतराष्ट्र कहने लगे. चंद्रशेखर के बारे में एक बार लालू ने कह दिया कि ‘दाढ़ी बढ़ा कर घूमते रहते हैं.’ शरद यादव ने जब लालू का नया रूप देखा तो उन्होंने जनसत्ता में लिखे अपने लेख में यह माना कि लालू को मुख्यमंत्री बनाना उनकी गलती थी.

पटना हाई कोर्ट ने कहा कि बिहार में जंगलराज चल रहा है. सबसे लापरवाह लालू प्रसाद ने अपनी कार्यनीति तय की. यादव-मुसलमान-दलितों का वोट बैंक बनाया.

केंद्र सरकार इंदिरा आवास योजना के तहत राज्यों को पैसे दे रही थी. लालू ने तय किया कि मुसलमानों की सुरक्षा की व्यवस्था कर देनी है. दलितों के लिए इंदिरा आवास बनवा देना है. यादवों को सत्ता का लाभ पहुंचाते रहना है. वैसे भी लालू के सत्ता में आने से पहले तक यादवों को देश की आजादी का कोई खास लाभ नहीं मिल सका था.

लालू ने तय किया कि सामान्य विकास तभी शुरू करना है जब यादव भी राजपूत-भूमिहारों की तरह पहले अमीर हो जाएं. अभी करने से सरकारी विकास का लाभ सवर्ण उठा लेंगे.

लालू पर प्रतिपक्ष यह आरोप लगाने लगा कि 42 प्रतिशत मतों की ताकत के बल पर वह मनमानी कर रहे हैं. चारा घोटाला सामने आया. लोअर कोर्ट से लालू को सजा भी हुई है. मामला हाईकोर्ट में अपील में है. चारा घोटाले को लेकर ही कुछ और केस चल रहे हैं.

इस बीच रेल मंत्री रहते हुए उन्होंने और उनके परिवार ने जो कुछ किए, उसको लेकर जांच एजेंसियां सक्रिय हो गई हैं. इन गंभीर मामलों को लेकर अब पूरे लालू परिवार का राजनीतिक भविष्य अनिश्चित हो गया है.

लालू यादव यूपीए-1 की सरकार में रेल मंत्री रह चुके हैं (फोटो: रॉयटर्स)

अपनी परेशानियों के लिए लालू खुद हैं जिम्मेदार 

इससे बिहार के पिछड़ों और कमजोर वर्ग के लोगों के एक वर्ग में निराशा है. भले लालू प्रसाद ने खुद के और अपनी पत्नी के शासन काल में आम पिछड़ों की माली हालत सुधारने के लिए कोई ठोस काम नहीं किया हो, लेकिन सवर्ण सामंती धाक वाले बिहार में लालू ने पिछड़ों को सीना तान कर चलना जरूर सिखा दिया. उससे सामाजिक बराबरी की दिशा में राज्य आगे बढ़ा.

लालू के कमजोर होने के बाद सामंती धाक से एक हद तक राहत पाए पिछड़ों का क्या होगा, यह एक बड़ा सवाल है. लालू प्रसाद जैसे नेता के बनने में दशकों लगते हैं.अभी तो उनका कोई विकल्प नजर नहीं आता.

यह जरूर कहा जा सकता है कि लालू प्रसाद की मौजूदा परेशानियों के लिए खुद लालू ही जिम्मेदार हैं. पूरे परिवार को आर्थिक संपन्नता के मजबूत किले में सुरक्षित करने के लोभ में लालू परिवार दलदल में फंस गया जिससे निकलना कठिन है.

अगले लोकसभा चुनाव तक लालू परिवार के खिलाफ मामलों की जांच बहुत आगे बढ़ चुकी होगी. उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कड़ा रुख है, उससे वे यदि पीछे हटेंगे तो अगले लोकसभा चुनाव में क्या मुंह लेकर मतदाताओं के पास जाएंगे?

कुछ लोग महान पैदा होते हैं. कुछ लोग अपनी मेहनत से महान बनते हैं. कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है. जिन पर थोप दी जाती है, वे उस महानता को बहुत दिनों तक ढो नहीं पाते. लालू प्रसाद इनमें से तीसरी श्रेणी के नेता साबित हो रहे हैं. देखना है कि अब आगे क्या होता है!