1977 में गठित मोरारजी देसाई सरकार 1979 में गिर गई थी. गिरने के कारणों की चर्चा करते हुए मधु लिमये ने तब कहा था कि देसाई सरकार में किसी यादव या राजपूत को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया गया था.
जबकि उत्तर भारत में इनकी बड़ी आबादी है. कांग्रेस विरोधी आंदोलनों में ये जातियां आगे रही हैं. याद रहे कि मोरारजी सरकार के खिलाफ और चरण सिंह के पक्ष में सबसे पहले मजबूती से आवाज उठाने वालों में प्रमुख राम अवधेश सिंह और हुकुमदेव नारायण यादव थे.
मोरारजी देसाई के बाद चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे. उनको प्रधानमंत्री बनाने में बिहार-उत्तर प्रदेश के यादव सांसदों का सबसे बड़ा योगदान था.
1977 में संभवतः यादवों को नजरअंदाज करके दरअसल मोरारजी देसाई देश के प्रथम प्रधानमंत्री की राह पर ही चल रहे थे.
यूपी-बिहार में कांग्रेस पिछड़े वर्ग के दलों की वैशाखी के सहारे
आजादी के तत्काल बाद केंद्र में जो सरकार बनी, उसमें किसी यादव नेता को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया गया. पर जब कांग्रेस को आज दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं तो बिहार-उत्तर प्रदेश के यादव और पिछड़ा प्रभाव वाले दल ही उसे ताकत दे रहे हैं.
लालू-नीतीश की मदद से बिहार में इन दिनों कांग्रेस के 27 विधायक हैें. पिछली विधानसभा में कांग्रेस के सिर्फ चार विधायक थे.
नीतीश सरकार में कांग्रेस से चार मंत्री भी हैं. हालांकि नीतीश सरकार का बहुमत राजद-जदयू विधायकों से ही पूरा हो जाता है. यदि 1952 में पिछड़ों के प्रति ऐसी ही उदारता कांग्रेस नेतृत्व ने दिखाई होती तो उसे आज जैसा दुर्दिन नहीं देखना पड़ता.
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उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की मदद से इस बार कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ा सकती है. यदि बहुमत मिला तो सत्ता की भागीदार भी बन सकती है.
इतना ही नहीं,उत्तर प्रदेश की जीत के बाद कांग्रेस पार्टी 2019 में फिर केंद्र की सत्ता की गंभीर दावेदार भी बन सकती है. गत लोकसभा चुनाव में हास्यास्पद हार के बाद कांग्रस को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा था.
पर,उसके कायाकल्प की संभावना बनी भी है तो वह आरक्षण के कारण ताकत पाए दलों के बल पर. जबकि कांग्रेस का इतिहास आरक्षण विरोध का रहा है.
कांग्रेस के दुर्दिन की मुख्य वजह पिछड़ों की उपेक्षा
आजादी के बाद कांग्रेस ने मेरिट के नाम पर सामाजिक न्याय यानी पिछड़े वर्ग के आरक्षण की उपेक्षा की. तब के नेतृत्व ने कभी सोचा भी नहीं होेगा कि उनके उत्तराधिकारी को एक दिन मेरिट के बदले सामाजिक न्याय के आधार पर ताकत पाए दलों और नेताओं की शरण में जाना पड़ेगा.
यही नहीं आजादी के बाद बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़ा बहुल राज्यों में भी कांग्रेस ने पिछड़ों को मुख्य मंत्री तक बनने का मौका नहीं दिया था.
जब भी उसे बहुमत मिला, सवर्ण ही मुख्यमंत्री बने. जबकि आजादी के तत्काल बाद के चुनावों में पिछड़ा सहित लगभग सभी जातियों के कमोबेश मतदाता कांग्रेस को वोट देते थे.
बिहार में कांग्रेस के दारोगा प्रसाद राय 1970 में मुख्यमंत्री बने भी तो तब, जब कांग्रेस के पास सदन में पूर्ण बहुमत नहीं था. तब मिलीजुली सरकार बनानी थी. कांग्रेस को 1972 में बहुमत मिल गया तो केदार पांडेय मुख्यमंत्री बना दिए गए.
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दरअसल आजादी के बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री ने जातीय आधार पर जनगणना बंद करा दी थी.
जबकि अंग्रेजों के जमाने में ऐसा होता था. जातीय जनगणना पिछड़ों की मांग रही है.
साथ ही जवाहर लाल ने 27 जून 1961 को मुख्यमंत्रियों को लिखा कि जाति या समुदाय के आधार पर किसी को आरक्षण नहीं दिया जा सकता है क्योंकि प्रतिभा और गुणवत्ता प्रभावित होगी.
अगर कांग्रेस ने दिया होता पिछड़ों को मौका
1990 के मंडल आरक्षण विवाद के समय भी आरक्षण समर्थकों ने कांग्रेस की भूमिका को संदेह की नजरों से देखा. उसके बाद से बिहार-उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपनी सरकार नहीं बना सकी. इस बीच पिछड़ों ने अपना नेता खड़ा किया.
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यदि कांग्रेस ने 1952 में ही पिछड़ों के बीच से शालीन, ईमानदार और समझदार नेताओं को देश भर में उभारा होता तो कांग्रेस का भी भला होता और पिछड़ों का भी. संभवतः उनके उत्तराधिकारी भी आज के अधिकतर पिछड़ा नेताओं से बेहतर होते.
पर अब तो कांग्रेस के हाथों में कुछ भी नहीं. अब तो कांग्रेस बिहार व उत्तर प्रदेश के पिछड़ा वर्ग के नेताओं की पिछलग्गू बनने को अभिशप्त है.
चाहे भविष्य में देश व पार्टी के लिए उसका जो भी नतीजा हो. ऐसा आजादी के बाद के कांग्रेसी नेताओं की अदूरदर्शिता के कारण हुआ.
हालांकि इसी तरह की अदूरदर्शिता आज के कुछ पिछड़ा वोट बैंक आधारित दल भी प्रर्दिर्शत कर रहे हैं. उन्हें भी अपने आधार वोट से ऊपर उठकर सोचना होगा. उनके सामने कांग्रेस का इतिहास और वर्तमान है.