राहुल गांधी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष हैं. पढ़े-लिखे हैं. देश के सबसे मशहूर राजनीतिक घराने से नाता रखते हैं. भारत के कोने-कोने में घूमते हैं. समर्थकों की भीड़ में जाकर उनसे मिलते हैं. व्यक्तित्व शालीन है. सार्वजनिक जीवन में मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं और निजी हमलों का जवाब ना देने की बात बार-बार दोहराते हैं. लेकिन इतना सब होने के बावजूद वे `पप्पू’ हैं.
अपनी इमेज के साथ राहुल गांधी की जंग लगातार जारी है. इस जंग में वे कई बार मजबूती से डटे हुए नज़र आते हैं. लेकिन बार-बार पिटते भी दिखाई देते हैं. सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और बीजेपी के मीडिया सेल का व्यवस्थित कैंपेन अपनी जगह है. लेकिन अगर इन्हे हटा दें तब भी भारत के वोटरों को एक बड़ा तबका राहुल गांधी को विश्वसनीयत नहीं मानता है. उनकी छवि एक ऐसे राजनेता की है, जो गलती से राजनीति में आया या लाया गया. उसके पास अपनी कोई राजनीतिक समझ नहीं है. वह चुनाव के दौरान प्रकट होता है, भाषण देता है और चुनाव के बाद लंबे समय के लिए कहीं गायब हो जाता है.
मोटे तौर पर देखें तो राहुल गांधी की दो बड़ी समस्याएं नज़र आती हैं. कंसिस्टेंसी और कम्युनिकेशन. कंसिस्टेंसी का मतलब निरंतर सक्रियता से है. 2014 के चुनावी नतीजों के बाद राहुल गांधी एक तरह से परिदृश्य से गायब हो गए. कायदे से उन्हें लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करना चाहिए था. लेकिन उनकी जगह मल्लिकार्जुन खड़गे को लोकसभा में पार्टी का नेता बनाया गया.
शुरुआती तीन साल में राहुल केंद्र सरकार की नीतियों को लेकर उसे घेरने में पूरी तरह नाकाम रहे बल्कि यह कहना चाहिए कि इसकी कोशिश करते भी नज़र नहीं आए. लेकिन यूपी चुनाव के बाद से स्थिति बदलनी शुरू हुई और गुजरात के आते-आते राहुल ने बता दिया कि उनकी सक्रियता में कोई कमी नहीं है और वे कांग्रेस को फ्रंट से लीड करने को तैयार हैं. लंबी छुट्टियां लेने वाले नेता की अपनी छवि तोड़ने के लिए उन्होने बताना शुरू किया कि वे विदेशी दौरे पर किसलिए और कितने वक्त के लिए जा रहे हैं. अपनी मां सोनिया गांधी के मेडिकल चेकअप के लिए जाते वक्त भी राहुल ने ट्वीट किया था.
कम्युनिकेटर के तौर पर नाकाम होते राहुल
गुजरात से लेकर कर्नाटक तक के चुनावी सफर में राहुल गांधी ने कंसिस्टेंसी से जुड़े सवालों का जवाब बखूबी दे दिया है. लेकिन बतौर कम्युनिकेटर उनकी समस्याएं बरकार हैं. गुजरात के कैंपेन के दौरान `शाह जादा खा गया’ और जीएसटी यानी `गब्बर सिंह टैक्स’ जैसे उनके वन लाइनर खूब हिट हुए थे. ऐसे में कई लोगों को लगा था कि राजनीति में दशक भर से ज्यादा समय की सक्रियता ने राहुल गांधी में आत्मविश्वास भर दिया है और अब उन्हें बोलना आ गया है. ट्विटर पर भी राहुल गांधी के फॉलोअर तेजी से बढ़े और दावा किया गया कि वे अपने ट्वीट्स खुद लिखते हैं. लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता बदलती इमेज के बीच अपनी रैलियों में राहुल लगातार कुछ ना कुछ ऐसा बोलते रहे, जिसे लेकर उनका मजाक उड़ा.
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बतौर कम्युनिकेटर राहुल गांधी की समस्या क्या है, यह समझने से पहले उनकी भाषण शैली पर गौर करना होगा. हमें याद रखना चाहिए कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी की तरह स्वभाविक वक्ता नहीं है. वे लालू यादव की तरह अपनी शैली वाले वक्ता भी नहीं हैं, जिसकी बातें समाज के किसी खास तबके के लोगों को बहुत ज्यादा अपील करती हो. राहुल एक इलीट माहौल में पले-बढ़े ऐसे राजनेता हैं, जिसे अपनी हिंदी सुधारने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी है.
राहुल गांधी ने मेहनत की है. इसका नतीजा यह है कि अब वे बिना पर्ची के भाषण देते हैं. प्रेस कांफ्रेंस में भी अब वे पहले हिंदी में बोलना पसंद करते हैं. वे अलग-अलग कार्यक्रमों देश की आम जनता के साथ सीधा संवाद करते हैं और आड़े-टेढ़े सवालों का जवाब देने में भी नहीं हिचकते. इसके बावजूद उनके भाषण में भाषा का स्वभाविक प्रवाह नहीं है.
अपनी अलग-अलग रैलियों में वे कुछ जाने-पहचाने वाक्य बार-बार दोहराते हैं, जिससे लगता है कि उनका संवाद स्वभाविक नहीं है बल्कि वे याद किया गया भाषण दे रहे हैं. अगर भाषण शैली में मौलिकता नहीं है, लोगो को बांधे रखने की क्षमता की कमी है तो ऐसे में इसकी भरपाई `कंटेट’ से की जा सकती है. लेकिन राहुल गांधी यह काम भी बहुत अच्छी तरह नहीं कर पा रहे हैं. समस्या तब बढ़ जाती है, जब राहुल प्रधानमंत्री की मोदी की शैली अपनाकर उन्हें मात देने की कोशिश करते हैं.
मोदी की पिच पर राहुल बोल्ड
भाषण देने के मामले में प्रधानमंत्री मोदी अपने तमाम विरोधियों से मीलों आगे हैं. उनकी संवाद शैली में थियेटर वाला मेलो ड्रैमेटिक इंपैक्ट है. वे शब्दों की आत्मा समझते हैं. आवाज में उतार-चढ़ाव पैदा करते हैं और अपने व्यंग्य बाण बिल्कुल सही मौके पर छोड़ते हैं. राहुल ने जब भी मोदी शैली अपनाने की कोशिश की वे क्लीन बोल्ड हुए.
किसी चुनावी रैली में राहुल ने वोटरों को समझाने का प्रयास किया कि प्रधानमंत्री ऐसे सपने दिखाते हैं, जो पूरे नहीं हो सकते. इसके लिए उन्होने एक काल्पनिक कहानी चुनी और कहा `मोदीजी ने आलू के किसानों को कहा ऐसी मशीन लगाउंगा कि इस साइड से आलू डालो, उस साइड से सोना निकलेगा. आलू डालो सोना निकालो’
राहुल ने कहानी प्रधानमंत्री का मजाक उड़ाने के लिए गढ़ी थी लेकिन उल्टे कहानी उन्हीं पर चस्पा हो गई. यह ठीक है कि बहुत से लोगों ने जानबूझकर इस कहानी को राहुल के बयान के रूप में प्रचारित किया लेकिन लोगों ने इसपर यकीन इसलिए किया क्योंकि राहुल अब भी एक खास तरह के इमेज के दायरे में कैद हैं. यह छवि तोड़ना उनकी सबसे बड़ी चिंता है. प्रधानमंत्री मोदी की शैली में भाषण देकर यह काम नहीं हो सकता है.
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राहुल की इमेज कुछ ऐसी है कि उनकी गंभीर बातों को भी बहुत से लोग सीरियसली लेने को तैयार नहीं होते हैं. ओबीसी सम्मेलन के दौरान उन्होंने हुनरमंद मेहनतकश लोगों को भारतीय समाज में उचित जगह ना मिलने का मुद्दा उठाया. यह एक गंभीर विमर्श है लेकिन इसके बदले कोका कोला के संस्थापक के शिकंजी बेचने वाली उनकी बात ज्यादा प्रचारित हुई.
यह सच है कि तथ्यात्मक गलतियां दुनिया के सारे बड़े नेता अपने भाषणों में करते हैं. आप प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों के क्लिप उठाकर देख लीजिए 60 करोड़ के बदले 600 करोड़ वोटर और श्यामजी वर्मा की जगह श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे कई तथ्यात्मक गलतियां मिल जाएंगी. लेकिन मोदीजी के विराट व्यक्तित्व के आगे ये गलतियां दब जाती हैं. लेकिन राहुल गांधी की कहानी अलग है. वे अब भी `पप्पू’ हैं. इसलिए सोशल मीडिया में उनके खिलाफ व्यवस्थित ट्रोलिंग जारी है और मेनस्ट्रीम मीडिया भी उन्हें लेकर उदार नहीं है.
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राहुल गांधी को यह समझना पड़ेगा कि वे सिर्फ मीडिया ही नहीं इस देश के करोड़ो लोगों के रडार पर हैं. मुख्य विपक्षी नेता होने के नाते उनके शब्द ही कीमती नहीं हैं बल्कि बॉडी लैंग्वेज भी बहुत मायने रखती है. दिल्ली में अपनी इफ्तार पार्टी के दौरान पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के सामने उन्होंने जिस तरह प्रधानमंत्री के फिटनेस वीडियो की निंदा की वो यह बताता है कि उन्हें अपने सार्वजनिक व्यवहार को लेकर सजग रहने की ज़रूरत है. ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री मंत्री का मजाक नहीं उड़ाया जा सकता लेकिन सामने पूर्व राष्ट्रपति बैठे तो ऐसा करके उन्हे दुविधा में नहीं डाला जाना चाहिए था.
नाकामियों के बीच से निकलता रास्ता
राहुल गांधी अपनी इमेज को लेकर औरों से शिकायत नहीं कर सकते. उन्हें अपना रास्ता खुद बनाना पड़ेगा. मोदी की इमेज भाषणों से जादू पैदा करने वाले राजनेता की है. इसका काउंटर नैरेटिव भाषण ना देकर संवाद करने वाले राजनेता की हो सकती है. मोदी एक लार्जर दैन लाइफ इमेज वाले नेता हैं. राहुल गांधी इसके उलट एक ऐसे लो प्रोफाइल राजनेता की छवि अख्तियार करें जो अपनी आवाम के लिए आसानी से उपलब्ध है और सबकी बात सुनने को तैयार है तो इसका बेहतर असर होगा.
बड़ी-बड़ी रैलियों के बदले छोटे समूहों के साथ संवाद बनाने का रास्ता शायद ज्यादा मुफीद है. राहुल की इस तरह की कोशिशें ज्यादा प्रभावी रही हैं. मध्य-प्रदेश की पुलिस फायरिंग में मारे गए किसान परिवार से मुलाकात हो या फिर गुजरात में रोड शो के दौरान गाड़ी रोककर जनता से मिलना. बहुत कुछ ऐसा है जो वोटरों के बीच एक अलग असर पैदा करता है. लोगो को लगता है कि राहुल गांधी उतने अनाड़ी भी नहीं हैं, जितना उनके बारे में प्रचारित किया जाता रहा है.
राजनीति की एक कड़वी सच्चाई यह है कि दुनिया हमेशा जीतने वालों की शान में कसीदे पढ़ती है और हारने वाले में उसे कमियां ही कमियां नज़र आती हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए जीती थी और इसका सेहरा राहुल गांधी के सिर बंधा था. राहुल समर्थकों में इस कदर गुरूर आ गया था कि उन्हें सीधे प्रधानमंत्री बनाने की मांग करने लगे थे. खुद राहुल भी विजेता वाले ओवर कॉन्फिडेंस से सराबोर थे. लेकिन उसके बाद हालात इस कदर बदले कि राहुल गांधी हार का पर्याय बन गए.
2014 के बाद से विधानसभा चुनावों में हार के अंतहीन सिलसिले ने मीडिया और आलोचकों को राहुल गांधी की शख्सियत का पोस्टमार्टम करने का भरपूर मौका दिया. छवि इस कदर बिगड़ी कि साझा विपक्ष उन्हें अपना नेता मानने में हिचकिचा रहा है. दूसरी तरफ बीजेपी हर हाल में कोशिश कर रही है कि 2019 का चुनाव किसी तरह मोदी बनाम राहुल हो जाए.
सवाल ये है कि राहुल गांधी के लिए आगे का रास्ता क्या है? संभावित गठबंधन के तमाम दलों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उन्हें क्या करना होगा? जवाब बहुत सीधा है. आनेवाले विधानसभा चुनावों में उन्हें कांग्रेस को जिताना होगा. राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस किस तरह का प्रदर्शन करती है, इसी बात से राहुल गांधी और कांग्रेस का भविष्य तय होगा.
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)