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फास्ट ट्रैक कोर्ट में दागी नेताओं के खिलाफ इंसाफ मिलना मुश्किल!

यदि प्रभावशाली नेताओं के खिलाफ मुकदमों की जल्दी निष्पक्ष सुनवाई होने लगे तो राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण की प्रक्रिया रुक सकती है

Surendra Kishore

राज्य के बाहर की अदालतों में सुनवाई के बिना माननीयों के खिलाफ अपने राज्य में चल रहे मामलों में न्याय पाना संभव हो पाएगा? प्रभावशाली आरोपियों की ओर से गवाहों पर पड़ने वाले भारी दबाव की खबरों के बीच इस बात को लेकर आशंकाएं पैदा की जाती रही हैं.

वैसे केंद्र सरकार के इस ताजा निर्णय से लोगबाग खुश हैं जो राजनीतिक के अपराधीकरण से दशकों से पीड़ित या परेशान रहे हैं. ताजा निर्णय विशेष अदालतों के गठन को लेकर है. याद रहे कि जे.जयललिता के खिलाफ जारी मुकदमों पर अदालती कार्रवाई तार्किक परिणति तक इसलिए भी पहुंच पाई क्योंकि सुनवाई तमिलनाडु के बदले कर्नाटक हुई थी.


गवाहों का सुरक्षा बड़ा मुद्दा

ऐसे अन्य अनेक मामले सामने आते रहते हैं. न्यायिक प्रक्रियाओं के जानकार लोग बताते हैं कि हत्या और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप जिन माननीयों के खिलाफ अदालतों में लंबित हैं, उन मामलों का राज्य से बाहर स्थानांतरित किया जाना या गवाहों के लिए सुरक्षा की पक्की व्यवस्था करना जरूरी है. अमेरिका और कुछ अन्य देशों में गवाहों की सुरक्षा की पक्की व्यवस्था की जाती है. उससे उन देशों को कानून का शासन कायम करने में सुविधा होती है.

याद रहे कि अमेरिका में 8500 गवाहों और उनके 9900 परिजनों को संयुक्त राज्य मार्शल सेवा सुरक्षा देती है. मार्शल सेवा के सुरक्षा गार्ड यह काम 1971 से ही कर रहे हैं. इस देश के सुप्रीम कोर्ट ने कई बार भारत सरकार से कहा कि वे गवाहों की सुरक्षा की कोई पक्की व्यवस्था करे. उससे पहले विधि आयोग भी गवाहों की सुरक्षा की सिफारिश कर चुका है.

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इसके बावजूद यहां अभी कुछ नहीं हो सका है. नतीजतन हमारे देश में आम अपराध के मामलों में करीब 45 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा मिल पाती है. हत्या के मामलों में तो यह प्रतिशत बहुत ही कम है. प्रभावशाली लोगों के खिलाफ शुरू किए गए मामलों में आम तौर पर गवाह बीच में ही अपने पिछले बयानों से पलट जाते हैं. या फिर विवेचना पदाधिकारियों को प्रभावित कर लिया जाता है. नेताओं के प्रभाव क्षेत्र से बाहर स्थित अदालतों में सुनवाई होने पर नतीजे में फर्क देखा गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले को पलटा

नार्को, लाई डिटेक्टर और ब्रेन मैपिंग टेस्ट को मई, 2010 मेें सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर अवैध घोषित कर दिया था कि इससे व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का हनन होता है. डी.एन.ए.टेस्ट के लिए नमूने संबंधित व्यक्ति की इच्छा के खिलाफ नहीं लिए जा सकते. यदि सुप्रीम कोर्ट अपने इस फैसले में विशेष मामलों में छूट दे दे तो सजा दिलाने का प्रतिशत बढ़ जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट जरूरत के अनुसार समय-समय पर अपने निर्णयों पर फिर से विचार करता रहा है. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के तत्काल बाद एटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ जारी मामलों की अलग से सुनवाई के लिए कोई व्यवस्था होनी चाहिए. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने 2 अगस्त 2014 को कहा कि ‘सांसद-विधायक विशिष्ट नहीं हैं. इसलिए उनके मामलों के लिए अलग कोई व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती है.

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लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब जरूरत समझी तो उसने 1 नवंबर 2017 को केंद्र सरकार को यह निदेश दिया कि सांसदों-विधायकों के खिलाफ दर्ज मामलों की एक साल के भीतर सुनवाई करा लेने के लिए वह विशेष अदालतों का गठन करे. केंद्र सरकार यह पहले से ही चाहती थी, इसलिए उसने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट को सूचना दे दी कि इन मामलों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतें गठित की जाएंगी. याद रहे कि इस देश के 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं. उनमें से कुछ के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले वर्षों से लंबित हैं.

जानकार सूत्रों के अनुसार, यदि प्रभावशाली नेताओं के खिलाफ मुकदमों की जल्दी निष्पक्ष सुनवाई होने लगे तो राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण की प्रक्रिया रुक सकती है. कुछ खास राज्यों में कई अपराधी गण इसलिए भी बड़े -बड़े अपराध करते हैं तकि किन्हीं शीर्ष नेताओं की उन पर नजर पड़ जाए और वे उन्हें चुनावी टिकट दे दें. बिहार के एक शीर्ष नेता ने एक बार सार्वजनिक रूप से कहा था कि हम किसी बाघ के खिलाफ बकरी को तो चुनाव मैदान में नहीं उतार सकते. हमको भी तो किसी बाघ की ही तलाश करनी पड़ेगी. बाघ से उनका मतलब बाहुबली -माफिया-जघन्य अपराधी से था.