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सीबीआई VS सीबीआई: देश की प्रशासनिक व्यवस्था में गहरी जड़ें जमा चुकी बीमारी के लक्षण हैं

अब ये विवाद केवल सीबीआई प्रमुख पर गलत काम करने के आरोपों तक सीमित नहीं है. अब देश की कई अहम संस्थाएं भी इस झगड़े में बराबर की शरीक हो चुकी हैं

Ajay Singh

सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के बीच छिड़े गृह युद्ध ने 'बनाना रिपब्लिक' जुमले को दोबारा चलन में ला दिया है. बनाना रिपब्लिक यानी वो देश जहां हालात बेकाबू हों. राजनीतिक उठा-पटक का दौर हो. समाज में हिंसा का बोल-बाला हो. नागरिकों के बीच असमानता बढ़ रही हो. अमेरिकी लेखक ओ हेनरी ने 'बनाना रिपब्लिक' जुमले को ईजाद किया था. ओ हेनरी ने 1904 में अपनी किताब कैबेजेस एंड किंग्स में मध्य अमेरिकी देश होंडुरस के हालात को देखते हुए उसे बनाना रिपब्लिक की उपाधि दी थी.

हालांकि अभी तो हम ये बिल्कुल नहीं कह सकते कि भारत में वैसे ही हालात हैं. लेकिन 1980 के दशक के आखिरी दिनों में जो सियासी हालात थे, तो लोग मजे में उस वक्त देश को बनाना रिपब्लिक कहने लगे थे. वो दौर था राजीव गांधी की हुकूमत का. राजीव गांधी अक्सर अपने भाषणों में कहा करते थे, 'हमें भारत को... बनाना है.' आज की तारीख में हिंदुस्तान भले ही 'बनाना रिपब्लिक' के दर्जे में ना आता हो, लेकिन देश का निजाम जिस तरह से चल रहा है, उससे हालात खतरनाक होने के साफ संकेत मिलते हैं. यूं लगता है मानो लड़खड़ाता चल रहा मुल्क अब गिरा कि तब गिरा.


सीबीआई के आला अधिकारियों के बीच छिड़ी जंग खुलकर सामने आ चुकी है. जांच एजेंसी की टीमें अपने ही अधिकारियों के ठिकानों पर छापे मार रही हैं, अपने ही अधिकारी को गिरफ्तार कर रही हैं. जांच एजेंसी के दो सबसे सीनियर अधिकारी एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं. ये देश की प्रशासनिक व्यवस्था में गहरी जड़ें जमा चुकी बीमारी के ही लक्षण हैं.

बात यहीं तक रहती तो भी गनीमत थी. हालात ये हैं कि तमाम सरकारी संस्थाएं एक-दूसरे से खुलेआम जंग छेड़े हुए हैं. सीबीआई बनाम प्रवर्तन निदेशालय बनाम सीबीडीटी (केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड) बनाम रॉ (रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग) बनाम खुफिया ब्यूरो (आईबी)...लिस्ट बहुत लंबी है. इस जंग में सीवीसी कभी रेफरी तो कभी मूक दर्शक की भूमिका में दिखता है. आपसी रंजिश और झगड़े से सभी के खात्मे का ये सटीक नुस्खा है. हम ने देश की राजधानी की सड़कों पर इसकी नुमाइश उस वक्त देकी, जब सीबीआई चीफ आलोक वर्मा के सुरक्षाकर्मी, खुफिया ब्यूरो के अधिकारियों को जासूसी के आरोप में घसीटते हुए दिखे.

अब ये विवाद केवल सीबीआई प्रमुख पर गलत काम करने के आरोपों तक सीमित नहीं है. अब देश की कई अहम संस्थाएं भी इस झगड़े में बराबर की शरीक हो चुकी हैं. यूं लगता है कि पूरी हुकूमत एक माफिया की तरह काम कर रही है. जहां पर जंगल का कानून ही चलता है. यानी जो सबसे मजबूत होगा, वही बचेगा, बाकी सारे मारे जाएंगे.

इसी कड़ी में हम ने देखा था कि लखनऊ में एक पुलिसवाले ने सरेआम एक एपल कंपनी के अधिकारी को मामूली वजह से गोली मार दी थी. ये इस बात की मिसाल है कि किस तरह प्रशासनिक संस्थाएं बेकाबू हो रही हैं. या इसकी एक मिसाल मेरठ में तब देखने को मिली जब एक कॉलगर्ल के साथ आए नशे में झूमते पुलिस इंस्पेक्टर को एक होटल वाले ने बुरी तरह पीटा. ये होटल मालिक बीजेपी का नेता भी है. मेरठ के इस होटल मालिक और लखनऊ के उस पुलिसवाले को इस बात का यकीन था कि वो ये जुर्म कर के भी बच निकलेंगे.

आखिर ऐसे हालात कैसे बन गए?

इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें वक्त के पहिए को पीछे घुमाना होगा. इसकी शुरुआत तब से हुई, जब भारत के नेताओं ने सत्ता के लिए सिद्धांतों की तिलांजलि दे दी. जबकि महात्मा गांधी ने बिना किसी सिद्धांत के सत्ता पर काबिज होने को सात पापों में महापाप बताया था.

सत्ता के लिए सिद्धांतों की बलि देने का मतलब ही है अपराधीकरण? इसकी शुरुआत इंदिरा गांधी के सत्ता में आने से हुई थी, जब राजनीति का अपराधीकरण शुरू हुआ. इंदिरा ने अपने बेटे संजय की जरिए कई बदनाम अपराधियों, दलालों और भ्रष्टाचारी लोगों को बढ़ावा दिया. उनके इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का बोल-बाला था, जिनके किरदार हमेशा शक के घेरे में रहते थे. ऐसे लोगों ने राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा दिया, उसे जायज ठहराया. हालात उस वक्त बेकाबू हो गए, जब इंदिरा ने इमरजेंसी लगा दी.

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1976 में संजय गांधी के इशारे पर अंडरवर्ल्ड के बदनाम शख्स डाकू सुंदरलाल का एनकाउंटर उस वक्त राजनीति के अपराधीकरण की पराकाष्ठा थी.

राजनीति में अपराध की ये घुसपैठ केवल सियासी दलों और चुनावों तक सीमित रही हो, ऐसा नहीं है. इंदिरा गांधी ने सत्ता का खूब दुरुपयोग किया. नतीजा ये हुआ कि आपराधिक मानसिकता, हुकूमत की नसों में समा गई. इंदिरा गांधी ने सत्ता के दुरुपयोग से अपने बाद आने वाली सरकारों को भी रास्ता दिखाया कि किस तरह संविधान और लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं. किस तरह नियम-कायदों को धता बताई जा सकती है, उनसे पार पाया जा सकता है.

अगर आपराधिक राजनीति केवल इंदिरा तक सीमित होती, तो 1977 के चुनावों में उनकी हार के बाद ये हालात बदले भी जा सकते थे. लेकिन हमने देखा था कि 1977 के चुनावों के बाद चौधरी चरण सिंह जैसे नेता, इंदिरा के बताए रास्ते पर चल रहे थे. आपराधिक बर्ताव को राजनीति की मुख्यधारा में ला रहे थे. चरण सिंह ने इंदिरा गांधी को फर्जी मामलों में फंसाने की कोशिश की, जबकि प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की बिल्कुल भी इसकी इच्छा नहीं थी.

मोरारजी देसाई नैतिकता से भरपूर सिद्धांतवादी नेता थे. वो सियासी विरोधियों से इस तरह से निपटने में यकीन नहीं रखते थे.

संजय गांधी के साथ पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी

1980 में जब इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई, तो बदले और आपराधिक राजनीति का नया दौर देखने को मिला. इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई तो उनके इर्द-गिर्द फिर से वही लोग मंडराने लगे, जिनके किरदार हमेशा से शक के दायरे में रहे थे.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी सत्ता में आए, तो उनकी साफ-सुथरी छवि और ऐतिहासिक बहुमत से लोगों में उम्मीद बंधी. ऐसा लगा कि अब राजनीति की गंदगी साफ होगी. नया दौर शुरू होगा. मगर हुआ इसका उलटा. राजीव गांधी ने आपराधिक राजनीति को न सिर्फ बढ़ावा दिया, बल्कि उसे एक नई ऊंचाई पर ले गए.

जब राजीव गांधी का नाम बोफोर्स घोटाले में आया, तो राजीव ने अपना असली रंग दिखाना शुरू किया, उन्होंने जांच एजेंसियों को अपने सियासी विरोधियों के पीछे लगा दिया. राजीव के निशाने पर केवल सियासी विरोधी नहीं, बल्कि मीडिया के लोग भी थे, जो उनके खिलाफ खबरें लिख रहे थे.

सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात तो ये थी कि अपने सियासी विरोधी वी.पी सिंह को फंसाने के लिए राजीव गांधी ने प्रवर्तन निदेशालय का दुरुपयोग किया. वीपी सिंह को सेंट किट्स के मामले में फंसाने की कोशिश की गई. उस वक्त बोफोर्स घोटाले को लेकर प्रचार कर रहे वीपी सिंह भारत के सबसे बड़े मिस्टर क्लीन नेता के तौर पर उभरे. लेकिन, 1989 के चुनाव से पहले वीपी सिंह का 'पर्दाफाश' करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय ने कुछ फर्जी दस्तावेजों की मदद से ये दावा किया कि वीपी सिंह और उनके बेटे अजय सिंह ने विदेशी जरियों से सेंट किट्स से एक खाते में पैसा हासिल किया है. सेंट किट्स एक केरीबियाई द्वीप है. उस वक्त उसे टैक्स चोरों का स्वर्ग कहा जाता था. जांच के दौरान ही चुनाव हुए. नतीजे वीपी सिंह के हक में गए. उसके बाद कांग्रेस भी सेंट किट्स मामला भूल गई.

प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक रहे केएल वर्मा को बताया गया

प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह ने मामले की जांच शुरू कराई. जांच में पता चला कि छल-प्रपंच और झूठ-कपट से उन्हें फंसाने में न केवल प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी शामिल थे, बल्कि राजीव सरकार के कई मंत्री भी थे. उनमें उस वक्त के विदेश मंत्री पीवी नरसिम्हा राव और विवादित धर्मगुरू चंद्रास्वामी शामिल थे. जांच से पता चला कि राव ने अमरीका में तैनात भारतीय राजनयिकों को मजबूर किया कि वो वीपी सिंह को फंसाने वाले फर्जी दस्तावेजों को सही बताएं. राजीव गांधी के इशारे पर वीपी सिंह को बदनाम करने की इस साजिश का सूत्रधार उस वक्त प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक रहे केएल वर्मा को बताया गया.

जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने इस साजिश के सबूत मिटाने की कोशिश की. उन्होंने सीबीआई की मदद से तथ्यों को छुपाने और सबूत मिटाने की कोशिश की. उस वक्त मामले की जांच को सही दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहे अधिकारी एनके सिंह को अचानक उनकी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया.

राजनीतिक आकाओं के अपने सियासी हित साधने के लिए सरकारी संस्थाओं के दुरुपयोगी ऐसी अनगिनत मिसालें मिलती हैं. हैरान करने वाली बात ये है कि हुक्मरान चाहे किसी भी पार्टी या विचारधारा के रहे हों, किसी ने भी हालात बदलने की कोशिश नहीं की.

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हम अगर पिछले कुछ सालों में नियुक्त किए गए सीबीआई प्रमुखों या ईडी के अधिकारियों की फेहरिस्त पर नजर डालें, तो इस नतीजे पर आराम से पहुंच सकते हैं. ज्यादातर अधिकारियों का दामन बेदाग नहीं था. जैसे कि एच.डी देवगौड़ा के राज में जोगिंदर सिंह को सीबीआई प्रमुख बना दिया गया. वो बोफोर्स घोटाले के दस्तावेज लाने के लिए बड़े शोर-शराबे के बीच जेनेवा गए. लेकिन किसी वजह से जांच अटक गई.

पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह

जब 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता में आए, तो उन्हें इन मुश्किल हालात का सामना करना पड़ा. वाजपेयी को खबर लगी कि उस वक्त प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख एम के बेजबरुआ, बिना सरकार को बताए हुए एक केंद्रीय मंत्री और एक कानूनविद् के खिलाफ कार्रवाई करने वाले थे. इसकी वजह पेशेवर नहीं, बहुत निजी थी. वाजपेयी ने बिना एक पल भी झिझके बेजबरुआ को बर्खास्त कर दिया. इस फौरी कार्रवाई से एक बड़ा संकट टल गया.

वाजपेयी ने दोबारा सही समय पर अपनी निर्णय क्षमता का परिचय उस वक्त दिया, जब नौसेना के प्रमुख एडमिरल विष्णु भागवत को बर्खास्त कर दिया गया. भागवत के खिलाफ कार्रवाई बात को ज्यादा बिगड़ने से पहले ही कर दी गई. सरकार ने भागवत को इसलिए बर्खास्त किया था क्योंकि खबर ये थी कि वो नौसेना की खुफिया शाखा को रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की जासूसी में लगाने वाले थे. नौसेना प्रमुख को हटाने का ये काम बड़ी तेजी और दृढ़ता से किया गया था.

लेकिन, वाजपेयी के बाद हमने सरकारी संस्थाओं का बड़े पैमाने पर अपराधीकरण होते देखा. यूपीए सरकार ने सीबीआई, आईबी, सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय का दुरुपयोग अपने सियासी विरोधियों को परेशान करने के लिए किया. सीबीआई प्रमुख का चुनाव उनके सरकार के इशारे पर नाचने को तैयार होने के आधार पर होता था, न कि उनकी पेशेवर काबिलियत की बिनाह पर.

सीबीआई निदेशक के तौर पर ए.पी सिंह और रंजीत सिन्हा का जैसा बर्ताव रहा वो इस बात की सटीक मिसाल है कि किस तरह सरकारी संस्थाओं का सियासी दुरुपयोग किया गया. ये बात आम थी कि ए.पी सिंह और रंजीत सिन्हा कांग्रेस नेता अहमद पटेल के घर पर बैठकें करते थे. वहां तय होता था कि किसी खास मामले की जांच किस दिशा में ले जानी है.

जिन्न बोतल ही नहीं, शिकंजे से भी बाहर हो गया!

रंजीत सिन्हा ने तो सीबीआई को तब और गर्त में गिरा दिया, जब वो कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में पेश करने से पहले उसे मंजूरी के लिए कानून मंत्री अश्वनी कुमार के पास लेकर गए. उनके कार्यकाल में ही 2013 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आर.एम लोढ़ा ने सीबीआई को 'पिंजरे में बंद तोता' कहा था. जब रंजीत सिन्हा रिटायर हुए, तो उनके सरकारी आवास की विजिटर बुक में ऐसे लोगों के नाम पाए गए, जो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में आरोपी थे. तब सुप्रीम कोर्ट को सीबीआई को अपने ही निदेशक रहे शख्स के खिलाफ जांच करने का आदेश देना पड़ा था.

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शुरुआत में राजनेताओं ने सरकारी संस्थाओं का दुरुपयोग और अपराधीकरण केवल सत्ता में बने रहने, भ्रष्टाचार छुपाने, सहयोगियों को डराने-धमकाने (याद कीजिए कि किस तरह यूपीए के राज में मुलायम और मायावती के खिलाफ जांच एजेंसियां कभी आगे तो कभी पीछे चलती थीं) के लिए किया. लेकिन, ये तजुर्बा बुरी तरह नाकाम हुआ. जिन्न बोतल ही नहीं, शिकंजे से भी बाहर हो गया. तमाम एजेंसियों के प्रमुखों के अपने-अपने खेल थे. वो लगातार नियम-कायदों और सिस्टम को ठेंगा दिखाते हुए एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध छेड़े रहे.

अब सुप्रीम कोर्ट को बताया जा रहा है कि सीबीआई में फिरौती और वसूली का रैकेट चल रहा है. ये रैकेट तो सितंबर 2016 में उसी वक्त उजागर हो गया था जब एक सीबीआई अफसर ने बेगुनाह आईएएस अफसर बी के बंसल को इतना धमकाया और परेशान किया कि बंसल और उनके परिवार के तीन सदस्यों ने खुदकुशी कर ली.

मजे की बात ये है कि जांच एजेंसियों और ऐसी संस्थाओं के अपराधीकरण के सब से बड़े शिकार तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह रहे हैं. उन्हें मालूम है कि किस तरह सरकारी जांच एजेंसियां लोगों को परेशान करती हैं. यूपीए सरकार के दौरान अमित शाह को फर्जी आरोपों की वजह से काफी वक्त जेल में रहना पड़ा था. उन्हें अपने राज्य से ही तड़ीपार कर दिया गया था. मनमोहन सिंह की सरकार ने मोदी को तमाम पुलिस एनकाउंटरों में फंसाकर उन्हें राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में आने से रोकने की पुरजोर कोशिश की थी.

मोदी के सत्ता में आने के बाद ये उम्मीद थी कि अहम सरकारी संस्थाओं से ऐसे लोगों की सफाई की जाएगी, कि हालात बेहतर हों. लेकिन अनिल सिन्हा (2014) और आलोक वर्मा (2017) जैसे लोगों को सीबीआई प्रमुख बनाकर एनडीए सरकार ने साबित कर दिया कि वो भी यूपीए सरकार के ही रास्ते पर चल रही है.

जिस तरह से इन सरकारी एजेंसियों के बीच की जंग को जारी रहने दिया गया, उससे इन संस्थाओं में नैतिकता बहाल करने की सारी उम्मीदें टूट गईं.

हुकूमत के बिखरते जाने का ये सिलसिला केवल जांच एजेंसियों और संगठनों तक सीमित नहीं है, बल्कि सरकार के दूसरे अंगों में भी ऐसा फैल गया है कि मामला अराजकता की तरफ बढ़ रहा है. इस साल हमने देखा कि देश की सब से बड़ी अदालत के चार सब से सीनियर जज प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए देश से मुखातिब हुए. उन्होंने हुकूमत के अंगों की आने वाले भविष्य की भयावाह तस्वीर पेश की. ऐसा लगा कि ऊंचे पदों पर बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां हो रही हैं. लेकिन, इन जजों ने जिस तरीके से ये बात सामने रखी, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती.

यूं तो हम 'बनाना रिपब्लिक' बनने से अभी काफी दूर हैं. लेकिन, यकीनन हम उस दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं. ये भी बहुत खतरनाक है.