लखनऊ में शुक्रवार आधी रात को एपल के अधिकारी विवेक तिवारी की निर्मम हत्या पर पूरा देश सदमे और गुस्से में है. वर्दी में अपराध के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार की जीरो-टॉलरेंस नीति का प्रदर्शन करते हुए दोनों आरोपी पुलिस कॉन्स्टेबल- प्रशांत चौधरी, जिसने गोली चलाई और उसके बीट के साथी संदीप कुमार को शनिवार शाम नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. बर्खास्तगी को सही ठहराते हुए, राज्य पुलिस प्रमुख ओपी सिंह ने कॉन्स्टेबल की कार्रवाई को 'आपराधिक कृत्य, हत्या का स्पष्ट मामला' बताया और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि 'यह एनकाउंटर नहीं था.'
इन सपाट बयानों के साथ सरकार ने मामले से किनारा कर लिया, लेकिन यह बयान सरकार की 'ठोक देंगे' फिलॉसफी से उलट है. यह एक युद्धघोष है, जिसने पूरे उत्तर प्रदेश में हजारों प्रशांत चौधरी को उकसाया है और वर्दी वाले गोलीबाज शिकारी बना दिया है. दो कॉन्स्टेबलों के खिलाफ तेजी से कार्रवाई की गई. हालांकि यह जरूरी भी थी, हकीकत में बेलगाम व रास्ता भटक चुके सिस्टम में किसी को निजी तौर पर जिम्मेदार ठहराने की कोशिश है.
आपराधिकता के कई नुमायां मामले हैं, जिन्हें उत्तर प्रदेश सरकार इस मामले में ढकने की कोशिश कर रही है. कॉन्स्टेबल न तो पिस्तौल रखने के लिए अधिकृत होते हैं, ना ही प्रशिक्षित. अपने प्रशिक्षण के दौरान, उन्हें हथियार चलाने के बारे में नहीं बताया जाता है. सवाल उठता है, फिर अपने साथ वे कैसे पिस्तौल लेकर चलते हैं. प्रशांत चौधरी के पास हथियार कैसे पहुंचा इसकी हकीकत आपकी रीढ़ की हड्डियां कंपा सकती है.
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ऐसे हथियार (जो पुलिस थाने के शस्त्रागार में शायद ही कभी उपलब्ध हों) थाना प्रमुख के सबसे पसंदीदा कॉन्स्टेबल को जारी किए जाते हैं. ये पसंदीदा आदमी तब क्षेत्र में शिकार की तलाश के लिए निकलते हैं और अपने रौब से पैसे कमाने के लिए खाकी वर्दी की आड़ में अमानवीय आपराधिकता में शरीक हो जाते हैं. दिलचस्प बात यह है कि, इनमें से किसी भी कॉन्स्टेबल को हथियार चलाने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है. लेकिन वे विंटेज 303 राइफल के बजाय पिस्तौल रखना पसंद करते हैं, क्योंकि यह एक स्टेटस सिंबल है.
योगी सरकार के लिए 'ठोक देंगे' अभियान भस्मासुर साबित हुआ
अपनी बेल्ट में पिस्तौल खोंसे और कानों में गूंजता योगी का मंत्र 'ठोक देंगे' पर वे सचमुच यकीन करने लगते हैं कि उनके पास जान ले लेने का लाइसेंस है. जब से यूपी पुलिस ने हालिया एनकाउंटर-अभियान की शुरुआत की है, तब से उन्होंने राज्य के नागरिकों पर हजारों प्रशांत चौधरी छोड़ दिए हैं. बाकी तय है कि विवेक तिवारी योगी के यूपी में कोई अपवाद नहीं हैं, किसी भी शख्स का यही अंजाम हो सकता है.
जिस लम्हा राज्य पुलिस ने अपना 'ठोक देंगे' अभियान लॉन्च किया था, उसी समय मुझे बुरी स्थिति का अंदेशा हो गया था. जब पुलिस ने मुठभेड़ों में 18 अपराधियों को मार डाला और शान से अपना सीना ठोकने लगे, तभी मैंने चेतावनी दी थी कि यह भस्मासुर है, जो अपने बनाने वाले को ही मारने वापस आएगा.
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लेकिन खुद ही सही गलत का फैसला करने वाले मुख्यमंत्री के मातहत, जिसकी हिंदू आध्यात्मिक मठ के मुखिया के रूप में सत्ता दोगुनी हो जाती है, के शासन में राज्य-अधिकृत पागलपन के इस युग में चेतावनी बेकार है, क्योंकि वह जो कुछ भी करते हैं, उन्हें लगता है कि ईश्वर की इच्छा से करते हैं.
याद करें कि 20 सितंबर को पुलिस ने अलीगढ़ के हरदुआगंज में दो युवकों- मुस्तकीम और नौशाद को गोली मारी थी, और किस तरह पुलिस ने मीडिया को 'लाइव मुठभेड़' रिकॉर्ड करने के लिए बुलाया था. पुलिस ने इस न्यायेत्तर हत्या को न्यायसंगत ठहराने के लिए उनका आपराधिक इतिहास सामने रखा. यह राज्य द्वारा हिंसा की खुलेआम वैधता देने का प्रयास था, जो प्रशांत चौधरी के मामले में भी दिखाई पड़ता है.
क्या इस आपराधिक कृत्य का, जिसने उत्तर प्रदेश शासन को अपराधी बना दिया है, पूरा दोष योगी के सिर पर डालना ठीक होगा? बेशक नहीं. योगी लंबी कहानी का सिर्फ एक अध्याय हैं, जो अस्सी के दशक में वीपी सिंह के समय में शुरू हुई थी. वह चंबल के कुख्यात डाकू गिरोहों के खिलाफ अपनी लड़ाई में हत्या की छूट देने वाले पहले मुख्यमंत्री थे. डकैतों के खिलाफ अभियान चलाने के नाम पर नागरिकों की हत्या ने शासन की संस्कृति में वैधता पाई. वीपी सिंह की मर्दानगी उन्हीं के लिए विनाशकारी साबित हुई.
'ठोक देंगे' की पॉलिसी वीपी सिंह के लिए भस्मासुर बन गया था
जुलाई 1982 में बांदा के पास डकैतों ने उनके भाई की हत्या कर दी, जिसके बाद उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. वीपी सिंह को भस्मासुर ने निगल लिया. लेकिन हिंसा की संस्कृति ने धीरे-धीरे राज्य पुलिस को अपराधी बना दिया, और इस तरह राज्य पुलिस अलीगढ़, हाशिमपुरा, मलियाना और पीलीभीत में सामूहिक हत्याओं में शामिल रही और बच निकली. इस संदर्भ में खासकर परेशान करने वाली बात इस राज्य में लगातार आने वाले हर डीजीपी द्वारा इस प्रवृत्ति के सामने पूरी तरह समर्पण कर देना है.
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यह बताने के लिए एक उदाहरण बताता हूं कि किस तरह पुलिस खुद अंडरवर्ल्ड और गैंगवार का हिस्सा बन गई. 1991 में लखनऊ के पॉश हजरतगंज इलाके में गोलीबारी की एक घटना हुई, जिसमें एक गैंगस्टर वीरेंद्र सिंह पुलिस के हाथों मारा गया. लेकिन यह कहानी का आधा सच था. पूरा सच यह था कि पूर्व मंत्री और गोरखपुर के दबंग नेता हरिशंकर तिवारी के प्रति निष्ठा रखने वाले गैंगस्टर ने वीरेंद्र सिंह पर हमला कराया था. वीरेंद्र सिंह ने हत्यारों से बचने के लिए एक इमारत में शरण ली थी, जहां पुलिस पहुंची और उसे मार डाला. पुलिस ने असल में तिवारी गैंग के किराए के हत्यारे की तरह काम किया.
नब्बे के दशक से, राज्य पुलिस को पूरे राज्य में गिरोहों का मददगार जैसा बना दिया गया है, क्योंकि ज्यादातर गैंगस्टरों ने राज्य विधानसभा या संसद के लिए चुने जाने के बाद राजनीतिक वैधता हासिल कर ली है. यह बात योगी आदित्यनाथ से बेहतर कोई नहीं जानता, जिनकी राजनीति में लोकप्रिय चेहरे के रूप में उभरने की शुरुआत हरिशंकर तिवारी और उनके गिरोह के साथियों के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई से हुई थी. शायद यही कारण है कि वह संगठित अपराध को नियंत्रित करने के लिए एक वैध राजनीतिक उपकरण के रूप में हिंसा के खिलाफ नहीं हैं.
लेकिन वह इस तथ्य से पूरी तरह से अनजान प्रतीत होते हैं कि गोरखनाथ पीठ चलाने और अंडरवर्ल्ड से लड़ने और संविधान की शपथ लेने वाली सरकार की अगुआई करने के बीच पूरी दुनिया बदल जाती है. सरकार की मर्दानगी के प्रति उनके झुकाव ने अनजाने में ही पुलिस को अपराधी बना दिया है, जैसा कि 60 के दशक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला के राज्य पुलिस के चरित्र को लेकर सारगर्भित टिप्पणी में कहा था, “मैं यह बात पूरी जिम्मेदारी के साथ कहता हूं कि देश में ऐसा एक भी कानून-विहीन समूह नहीं है, जिसका अपराध का रिकॉर्ड उस संगठित इकाई के रिकॉर्ड के करीब भी है, जिसे भारतीय पुलिस बल के रूप में जाना जाता है."
प्रशांत चौधरी को बर्खास्त करने से उत्तर प्रदेश के नागरिकों सुरक्षित बनाने के लिए कुछ भी नहीं होगा. इसके बजाय अपराध को खत्म करने के लिए 'ठोक देंगे' वाली फिलॉस्फी में नरमी लाने से शायद अधिक मदद मिलेगी, क्योंकि यही चीज वर्दी पहने इंसानों को राक्षस में बदलने से रोक सकती है.
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