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उपचुनाव नतीजे: बीजेपी को नुकसान, विपक्ष को फायदा लेकिन कांग्रेस कहां?

2019 से पहले विपक्ष मजबूत होता दिखाई दे रहा है. लेकिन विपक्षी एकता की धुरी होने के बावजूद देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के भविष्य को लेकर सवाल बरकरार हैं.

Rakesh Kayasth

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी लगातार लोकसभा का तीसरा उप चुनाव हार गई है. इस बात को रेखांकित करना कई वजहों से ज़रूरी है. सबसे बड़ी बात यह है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है. 2014 में भी यह बात साबित हुई थी, जब बीजेपी ने यूपी की 80 में 71 सीटें अपने नाम की थी.

गोरखपुर, फूलपुर और उसके बाद कैराना, बीजेपी जहां भी हारी है, वहां पिछले चुनाव में बड़े अंतर से जीती थी. ये तीनों सीटें हिंदुत्व की राजनीति के लिहाज से बेहद अहम मानी जाती हैं. गोरखपुर सीट पर तो बीजेपी पिछले तीस साल में एक बार भी नहीं हारी थी. फूलपुर उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट थी जबकि कैराना में बीजेपी धार्मिक ध्रुवीकरण के बीच पिछली बार बड़े अंतर से जीती थी.


विपक्षी एकता और रणनीतिक सूझबूझ ने इन तीनों सीटों पर बीजेपी को धूल चटा दिया. चुनावी राजनीति के लिहाज से पिछले कुछ महीने बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी के लिए अच्छे नहीं रहे हैं. ज्यादातर उप-चुनावों में हार का सामना करना पड़ा है. कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी एक तरह से जीतकर भी हार गई. जाहिर है, नए राजनीतिक हालात ने विपक्षी एकता को एक नई संजीवनी दी है. लेकिन फिलहाल बात बदलती परिस्थितियों में कांग्रेस की भूमिका और उसके भविष्य की. 2014 में अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर में पहुंच गई कांग्रेस पार्टी आखिर बदलते हुए राजनीतिक हालात से अपने लिए क्या हासिल कर पाएगी?

2019 `राहुल बनाम मोदी’ होगा या मोदी बनाम मुद्दे?

उप-चुनाव के नतीजे आने के बाद बीजेपी के प्रवक्ताओं ने टीवी डिबेट में एक ही सवाल बार-बार पूछा- विपक्ष बताए कि 2019 के चुनाव में उसका नेता कौन होगा? यह सवाल विपक्ष के लिए शायद उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना बीजेपी के लिए है. उप-चुनावों में हुए नुकसान के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी अब भी निर्विवाद रूप से देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. बीजेपी यही चाहती है कि 2019 का चुनाव किसी भी तरह मोदी बनाम राहुल हो जाए. जब शख्सियतों की लड़ाई होगी तो यकीनन बीजेपी फायदे में रहेगी.

लेकिन विपक्ष `राहुल बनाम मोदी’ किसी भी हालत में नहीं चाहता है. पहली वजह यह है कि विपक्ष के सबसे बड़ा घटक यानी कांग्रेस पार्टी की स्थिति पहले वाली नहीं है. बेशक वह अब भी सबसे बड़ा विपक्षी दल हो लेकिन इस बार क्षत्रपों की भूमिका कहीं ज्यादा अहम है. मायावती, ममता बनर्जी या शरद पवार जैसे क्षत्रप किसी चुनाव पूर्व गठबंधन में राहुल गांधी को अपना नेता स्वीकार करेंगे यह मान पाना कठिन है.

दूसरी वजह यह है कि गुजरात और कर्नाटक में बेहतर कैंपेन के बावजूद राहुल गांधी अब भी उस राजनेता की छवि से दूर हैं, जो आमने-सामने की लड़ाई में मोदी को मात दे सके. कांग्रेस पार्टी भी `राहुल बनाम मोदी’ के खेल में नहीं पड़ना चाहेगी. कांग्रेस और साझा विपक्ष की कोशिश 2019 के चुनाव को `मोदी बनाम मुद्दे’ की लड़ाई बनाने की होगी. विपक्ष का गेम प्लान यही होगा कि आम-सहमति से जनता के सामने एक ऐसा कार्यक्रम पेश किया जाए जो अपील करे और जो एलायंस पार्टनर जहां ताकतवर है, वो वहां मोदी रथ को रोके.

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शख्सियत, मुद्दे और लहर से अलग भारत के चुनावी नतीजे अंकगणित के आधार पर भी तय होते हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण यूपी का उपचुनाव है. एसपी और बीएसपी के हाथ मिलाते ही खेल बदल गया. 2019 से पहले दो सबसे बड़े संभावित सितारे उभर रहे हैं, वे मायावती और अखिलेश यादव हैं. बंगाल में ममता बनर्जी की स्थिति मजबूत है. अगर चंद्रबाबू नायडू यूपीए में शामिल होते हैं तो अपनी शर्तों पर होंगे. ऐसे में कांग्रेस की चुनौतियां दो तरह की हैं. सबसे पहले उसे अपनी जमीन मजबूत रखनी है ताकि गठबंधन के निर्विवाद अगुआ की उसकी हैसियत बनी रहे. दूसरी चुनौती 2019 के चुनाव तक विपक्षी एकता कायम रखने की है.

फिसलती जमीन थामना पहली चिंता

जिक्र कांग्रेस की पहली चिंता का. 2014 के चुनाव के बाद से कांग्रेस के लिए धरातल पर कुछ बदला है? क्या कांग्रेस अपनी पुरानी साख हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ी है? इन दोनो सवालों का जवाब `ना’ में ही होगा. एक-एक करके तमाम राज्य कांग्रेस के हाथ से फिसले हैं. पंजाब की जीत पिछले चार साल की एकमात्र उपलब्धि कही जा सकती है.

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यह ठीक है कि एक नेता के रूप में राहुल गांधी ने पहले के मुकाबले में ज्यादा कंसिस्टेंसी दिखाई है. गुजरात और कर्नाटक के कैंपेन में वे एक मैच्योर नेता के तौर पर उभरे. लेकिन केंद्र में वापसी का दावा मजबूत करने के लिए कांग्रेस को जो `टर्निंग प्वाइंट’ चाहिए था, वह उसे अब तक नहीं मिला है. अगर गुजरात के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आए होते तो कहानी बदल सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. कर्नाटक तक आते-आते यह साफ हो गया कि देश की सबसे पुरानी पार्टी अब भी अपनी वजूद की लड़ाई लड़ रही है. बीजेपी के मुकाबले खड़े होने के लिए उसे पहले अपना वजूद बचाना होगा. इसी चिंता ने कांग्रेस को आधी से कम संख्या वाले जेडीएस को कर्नाटक के सीएम की कुर्सी सौंपने पर मजबूर किया.

मजबूत राष्ट्रीय विकल्प के रूप में खुद को पेश करने का आखिरी मौका कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव हैं. तीनों राज्यों में बीजेपी की सरकार है और जबरदस्त एंटी-इनकंबेंसी की खबरे हैं. चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस को भारी बढ़त मिलती दिख रही है. लेकिन इसके साथ-साथ इन राज्यों में नेतृत्व का संकट भी है. अंदरुनी गुटबाजी और खींचतान की खबरे आम हैं.

इन सबके बीच अगर कांग्रेस मध्य प्रदेश और राजस्थान में सत्ता में लौटने में कामयाब रही तो साझा विपक्ष के सर्वमान्य नेता के तौर पर राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ सकती है. लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस को ढेर सारे समझौतों के साथ 2019 की चुनावी लड़ाई में उतरना पड़ेगा.

क्या सोनिया के नक्श-ए-कदम पर चल पाएंगे राहुल?

भारतीय राजनीति हमेशा से चमकदार व्यक्तित्वों के इर्द-गिर्द घूमती आई है. लेकिन नेताओं का आभामंडल ही सबकुछ नहीं होता है. 2004 का दौर सबको याद होगा. एक तरफ थी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसी करिश्माई शख्सियत. उनके घोषित उत्तराधिकारी लालकृष्ण आडवाणी भी अपने समर्थकों के बीच लौह पुरूष के नाम से पुकारे जाते थे.

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दूसरी तरफ थी, टूटी-फूटी हिंदी में मुश्किल से लिखा भाषण पढ़ने वाली सोनिया गांधी. ताकतवर एनडीए के खिलाफ गठबंधन खड़ा करने की तैयारी चल रही थी. सोनिया गांधी नेताओं के घर-घर घूम रही थीं. अटल-आडवाणी की अपराजेय जोड़ी ने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि यूपीए गठबंधन उनके फीलगुड की हवा निकाल देगा.सोनिया गांधी ने गठबंधन साझीदारों को जिस तरह जोड़े रखा, वह किसी चमत्कार से कम नहीं था. सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी 2018 में वो दोहरा पाएंगे जो 14 साल पहले उनकी मां सोनिया गांधी ने कर दिखाया था?

अपने सिपाहसालारों में घिर राहुल गांधी गठबंधन चलाने के गुर कितनी जल्दी सीख पाएंगे, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता. कर्नाटक संकट के समय सोनिया गांधी जिस तरह `ट्रबल शूटर’ बनकर आईं, उससे यही लगा कि बीमारी और सक्रिय राजनीति से दूरी के एलान के बावजूद उनकी भूमिका कम नहीं हुई है. गठबंधन को लेकर एचडी देवगौड़ा से सीधे बात करने से लेकर तमाम विरोधी पार्टियों को एक मंच पर लाने तक सोनिया गांधी ने जो कुछ किया उसमें भावी राजनीति के संकेत छिपे हैं.

बहुत मुमकिन हैं कि 2019 में राहुल गांधी की भूमिका सिर्फ कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष तक सीमित रहे और सोनिया गांधी यूपीए की अगुआ की भूमिका निभाएं. अगर ऐसा हुआ तो विपक्षी एकता की राह कुछ हद तक आसान हो जाएगी. लेकिन यह सबकुछ सोनिया गांधी की सेहत पर निर्भर होगा, जिसे लेकर लगातार अटकलें चलती रहती हैं.

यह सच है कि बदलते राजनीतिक हालात ने कांग्रेस के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खोले हैं. 2019 के जिस चुनाव को बीजेपी के लिए वॉक ओवर माना जा रहा था, वह एक दिलचस्प लड़ाई में बदलता दिख रहा है. लेकिन कांग्रेस की टक्कर शाह-मोदी की उस जोड़ी से है, जो अपने `आउट ऑफ द बॉक्स’ आइडिया के लिए पहचानी जाती है. एक साल का वक्त बहुत लंबा होता है और देश की मेलो ड्रामैटिक पॉलिटिक्स में चीजें बहुत तेजी से बदल सकती हैं.