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बजट 2017: हकीकत से मुंह फेरने से नहीं बनेगी बात

बिना जीडीपी के अंदाजे के यह तय नहीं किया जा सकेगा कि सरकार फिस्कल डेफिसिट में और इजाफा किए बिना कितना पैसा खर्च कर सकती है.

Arun Kumar

इस साल का आम बजट बेहद खास होगा क्योंकि यह ऐसे वक्त पर आ रहा है जब देश की अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही है. अर्थव्यवस्था के लिए यह संकट अपनेआप पैदा नहीं हुआ, बल्कि यह नोटबंदी के गलत फैसले के कारण हुआ है.

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मंदी के हालात में आ रहा है बजट

नोटबंदी के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी के हालात पैदा हो गए हैं. पूरी अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता का माहौल है. यह नहीं पता कि मंदी के हालात कब तक जारी रहेंगे और इसका असर कितनी दूर तक जाएगा.

बजट बनाने के लिए जीडीपी के बारे में कुछ आइडिया होना जरूरी है, तभी रेवेन्यू कलेक्शन के बारे में अनुमान लगाए जा सकेंगे और इसके टारगेट तय किए जा सकेंगे.

बिना जीडीपी के अंदाजे के यह तय नहीं किया जा सकेगा कि सरकार फिस्कल डेफिसिट में और इजाफा किए बिना कितना पैसा खर्च कर सकती है.

नोटबंदी के विपरीत असर को समझे सरकार

दूसरी ओर, सरकार फिस्कल डेफिसिट को कम करने के लिए प्रतिबद्ध है. इससे खर्चों पर लगाम लगना तय है. ऐसा खासतौर पर गरीबों के लिए और सोशल सेक्टर पर खर्च में कमी के तौर पर दिखाई दे सकता है.

सरकार शुरू से नोटबंदी के विपरीत परिणामों से इनकार करती आ रही है. यह चीज बजट में भी दिखाई दे सकती है.

ऐसे में बजट का निर्माण गलत धारणाओं के आधार पर किया जा सकता है. इसका मतलब होगा कि बजटीय गणित गलत होगा और इससे आने वाले वक्त में समस्याएं और बढ़ेंगी.

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डेफिसिट बहुत अधिक हो सकता है. अगर ऐसा हुआ तो क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां देश की रेटिंग को डाउनग्रेड कर सकती हैं. इससे अर्थव्यवस्था या सोशल सेक्टर के लिए कॉस्ट बढ़ जाएगी. कैपिटल एक्सपेंडिचर (पूंजीगत खर्चे) में कटौती के लिए सरकार को मजबूर होना पड़ सकता है. और अगर ऐसा हुआ तो मंदी का दौर और गहरा हो जाएगा.

बजट में अगर अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात को सही तरह से नहीं समझा गया तो नोटबंदी की समस्याएं कई गुना बढ़ जाएंगी.

इकोनॉमी के परफॉर्मेंस का पता नहीं

बजट का निर्माण आने वाले पूरे साल के लिए होता है. इसका निर्माण अर्थव्यवस्था के मौजूदा प्रदर्शन के मुताबिक होता है. लेकिन, 2016-17 में इकोनॉमी का परफॉर्मेंस कैसा रहा, यह अभी साफ नहीं है.

8 नवंबर तक इकोनॉमी कैसी थी, यह पता है, लेकिन इसके बाद की तस्वीर साफ नहीं है. भारत के मुख्य सांख्यिकीय अधिकारी ने कहा है कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है.

ऐसे में क्या प्रोजेक्शन मौजूदा फाइनेंशियल ईयर 2016-17 के औसत के आधार पर किए जाने चाहिए. लेकिन, ये हालिया ट्रेंड या 8 नवंबर के बाद के हालात को दर्शाने वाले आंकड़े नहीं होंगे.

नोटबंदी का असर नए वित्तीय वर्ष यानी 2017-18 में भी जारी रहने वाला है. इकनॉमी के 8 नवंबर के पहले जैसी स्थिति में पहुंचने में लंबा वक्त लग सकता है, क्योंकि इनवेस्टमेंट में गिरावट आई है.

पूरे आंकड़े मौजूद नहीं

इसके अलावा, बजट को एक महीने पहले पेश किया जा रहा है. इसका मतलब यह है कि पूरे 2016-17 के आंकड़े हमारे पास नहीं होंगे.

इससे मौजूदा वित्त वर्ष और अगले वित्त वर्ष दोनों के लिए बजटीय गणनाओं में अनिश्चितता रहेगी. नोटबंदी के बाद दिसंबर तक के दो महीनों के आंकड़े रेवेन्यू प्रोजेक्शन के लिए पर्याप्त नहीं होंगे. ऐसे में बजटीय प्रावधानों में बड़ी गड़बड़ियां दिखाई दे सकती हैं.

बजट में अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद समस्याओं का हल निकालना होगा और अर्थव्यवस्था को एक दिशा देने की कोशिश करनी होगी. इकोनॉमी को आगे बढ़ाने के लिए नई नीतियों का सहारा लेना पड़ेगा और अतिरिक्त खर्चे करने पड़ेंगे.

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पैसा कहां से आएगा?

प्रधानमंत्री पहले ही गरीबों के लिए कई राहत उपायों का ऐलान कर चुके हैं. इनमें हाउसिंग और किसानों के लिए उपाय किए गए हैं. लेकिन, नए खर्चों के लिए बजटीय आवंटन करने होंगे. हालांकि, यह साफ नहीं है कि इन आवंटनों के लिए पैसा कहां से आएगा. ऐसे में बजट में रेवेन्यू बढ़ाने के उपाय करने होंगे.

सरकार को उम्मीद थी कि उसे ब्लैकमनी के खुलासे से अतिरिक्त फंड मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. ऐसा लग रहा है कि कालाधन रखने वाले ज्यादातर लोगों ने अपना पैसा नई करेंसी में बदल लिया है.

कैसे होगा टैक्स कलेक्शन में इजाफा?

खातों में जमा हो चुकी रकम को काला नहीं माना जा सकता है. इनकम टैक्स विभाग के लिए इतने सारे खातों को खंगालना आसान नहीं होगा. ब्लैकमनी के आरोप में पकड़े जाने वाले लोगों पर आरोप साबित कर पाना भी आसान नहीं होगा.

उत्पादन और प्रॉफिट पर चोट पहुंची है. रेगुलर टैक्स कलेक्शन में गिरावट आएगी. ऐसा तब होगा जबकि सरकार कह रही है कि मौजूदा फिस्कल के शुरुआती 7 महीनों में करों में बड़ा इजाफा हुआ है.

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में इजाफा हुआ है. लेकिन, क्या यह बढ़ोतरी आगे भी जारी रहेगी? यह मानना बड़ी भूल होगी कि चूंकि टैक्स कलेक्शन में बढ़ोतरी हुई है, ऐसे में यह आगे भी बढ़ेगा. हमें यह समझना होगा कि नोटबंदी के पहले के और बाद के हालात में बड़ा फर्क है.

असंगठित सेक्टर पर नोटबंदी की बड़ी चोट

नवंबर 2016 में तेज ग्रोथ दिखाने वाले आईआईपी के आंकड़ों का इस्तेमाल यह मानने में नहीं किया जा सकता कि दिसंबर और जनवरी में भी ऐसा ही होगा. इसमें असंगठित सेक्टर को ध्यान में नहीं रखा जाता है, जिसके बूते 40 फीसदी अर्थव्यवस्था टिकी हुई है. नोटबंदी की सबसे बड़ी चोट असंगठित सेक्टर पर ही पड़ी है.

अलग-अलग एजेंसियों के हालिया सर्वेक्षण बता रहे हैं कि कारोबारी संभावनाओं में बड़ी गिरावट आई है.

नोटबंदी से पैदा हुई मुश्किलों को देखते हुए खर्चे बढ़ाने की जरूरत होगी. यह खर्च कैपिटल और सोशल सेक्टर पर बढ़ाना होगा ताकि इकनॉमी में रफ्तार आ सके. इसके अलावा प्राइवेट सेक्टर के निवेश में आई कमी की भी भरपाई करनी होगी और लोगों की दिक्कतें दूर करनी होंगी.

मनरेगा के तहत डिमांड में पहले ही बड़ी तेजी आई है. इन खर्चों को किस तरह से पूरा किया जाएगा?

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कैसे पूरे होंगे लोकलुभावन वादे?

पहले सरकारें ऐसा करती रही हैं कि बजट में उन्होंने ज्यादा खर्चे दिखाए और बाद में फिस्कल डेफिसिट टारगेट को पूरा करने के लिए इन खर्चों में कटौती कर दी. यूपीए के दूसरे शासनकाल में 5 साल के दौरान करीब 6.5 लाख करोड़ रुपये के खर्च की कटौती कर दी गई.

यह बजट नोटबंदी के साये में आ रहा है. इसके अलावा 5 राज्यों में चुनाव भी इसी दौरान होने हैं. इनमें सबसे यूपी का चुनाव है.

फाइनेंस मिनिस्टर की स्पीच का पहला हिस्सा हमेशा से समाज के सभी वर्गों के लिए वादों से भरा होता है. इस साल ऐसा होने के आसार और ज्यादा हैं.

लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि नोटबंदी के बाद के हालात में सरकार इन वादों के लिए संसाधन कहां से जुटाएगी? या ये सिर्फ वादे ही रहेंगे जो कभी पूरे नहीं होंगे?

बाहरी सेक्टर को मैनेज करना होगा

बजट बनाने वालों के सामने एक बड़ी बाहरी अनिश्चितता है. विदेशी पूंजी के देश से बाहर जाने और अमेरिका में ब्याज दरों के बढ़ने के डर से बाहरी सेक्टरों में अनिश्चितता बनी हुई है.

ऐसे में बाहरी सेक्टरों को भी नोटबंदी के हालात में संभालना होगा. यह काम आसान नहीं होगा.

प्रत्यक्ष करों में बड़े सुधार की जरूरत है. जीएसटी के लागू होने में कई दिक्कतें हैं और इसे नोटबंदी के असर के खत्म होने तक टाल दिया जाना चाहिए. समस्याओं को और बढ़ाने की जरूरत नहीं है.

नोटबंदी से पहले ही राज्य अपनी कमाई में गिरावट को लेकर चिंतित हैं. जीएसटी के आने से इनकी दिक्कतें और बढ़ जाएंगी. इनसे टैक्स कलेक्शन के मोर्चे पर और दिक्कतें बढ़ेंगी.

आखिर में, इस साल का बजट कई आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना कर रहा है. समस्याओं को अगर सही तरीके से नहीं पकड़ा गया तो इसके गुणा-भाग में बड़ी गड़बड़ियां देखने को मिल सकती हैं. अगर हकीकत से मुंह फेरा गया तो हमें कहीं ज्यादा बड़ी मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इकनॉमिक स्टडीज के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और द ब्लैक मनी इन इंडिया के लेखक हैं)