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बाबर-हुमायूं विवाद : अपने फायदे के लिए नया इतिहास रचने की कवायद

आज समाज में जिस तरह से कट्टरता अपनी जड़ें जमाती जा रही है, तब हमें इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की बजाय उससे सबक लेने की जरूरत है

Mahendra Saini

राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष मदन लाल सैनी के इतिहास ज्ञान पर पिछले 2 दिन से सोशल मीडिया पर काफी कुछ कहा और लिखा जा रहा है. बाबर और हुमायूं को लेकर उनकी टिप्पणी पर अब खुद उन्होने सफाई भी दे दी है. सैनी के मुताबिक उन्हें मालूम है कि इतिहास की किताबों में क्या लिखा है क्योंकि वे खुद इतिहास के छात्र रहे हैं. सैनी की समझ से ये मीडिया है जिसने छोटी सी बात का बतंगड़ बना दिया.

बहरहाल, हम सैनी के 'बाबरनामा' की गहराई में नहीं जाना चाहते. ये अब पुरानी बात हो गई है. लेकिन एक बात है, जिसे सैनी को ट्रोल करने के चक्कर में सबने नजरअंदाज कर दिया. गलती से ही सही, लेकिन बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष ने मौजूदा दौर में इतिहास का जिक्र कर क्या हमें सोचने को मजबूर नहीं किया है.


आमतौर पर मानविकी विषयों के महत्व को नजरअंदाज कर हम सिर्फ विज्ञान को महत्व देते हैं क्योंकि ये प्रयोग और सिद्धांत आधारित है. लेकिन मुझे लगता है कि इतिहास अकेला विषय है जिसके जरिए हम अपने भूतकाल से सीख लेकर भविष्य को संवार सकते हैं, बशर्ते ये तथ्यों पर आधारित हो और इसे अपने-अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा न गया हो.

'मानव बलि' के बावजूद बयान शर्मनाक

बहरहाल, इतिहास से मिलने वाले सबक से भविष्य देखने से पहले मौजूदा घटनाक्रम पर एक नजर डालने की जरूरत है. अलवर में पिछले 3 साल में 3 से ज्यादा कथित गौ-तस्करों की जान जा चुकी है. हर बार भीड़ ने इन्हे पीट-पीट कर मार डाला. कुछएक मामलों में पुलिस और इन कथित गौ-तस्करों के बीच मुठभेड़ भी हुई है. हालिया समय में राजस्थान में ऐसी पहली घटना NH-8 पर बहरोड़ के पास पहलू खान की मौत के रूप में हुई थी.

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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनने के बाद होना तो ये चाहिए था कि सरकार इससे सबक लेती और भीड़ की हिंसा या गाय के नाम पर जानलेवा दादागीरी रोकी जाती. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सख्त रवैये के बावजूद रकबर खान की मौत के बाद भी हमारे नेताओं के बयानों पर गौर कीजिए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इंद्रेश कुमार कहते हैं कि गाय का मांस खाना बंद कर दें तो लिंचिंग भी रुक ही जाएगी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कहते हैं कि बीजेपी सरकार बूचड़खाने बंद नहीं करती तो न जाने कितनी लिंचिंग होती.

Photo Source: News-18

बाबर ने क्यों कहा- गौकशी न करना

कश्मीर के इतिहासकार कल्हण ने कहा था कि इतिहास लेखन वह विधा है जिसमें तथ्यों और सत्य का समावेश होता है. इतिहास के पिता कहे जाने वाले हेरोडोट्स ने भी कहा था कि इतिहासकार को विचार आधारित लेखन से बचना चाहिए और ये आने वाली पीढ़ियों पर छोड़ देना चाहिए कि वे लेखन आधारित विचार बना पाएं. लेकिन आज हम क्या देख रहे हैं कि हर शख्स ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी सुविधानुसार तोड़ने-मरोड़ने लगा है.

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बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष मदन लाल सैनी ने जो कहा उसमें ऐतिहासिक रूप से गलतियों की भरमार तो थी ही, वो पूरा सच भी नहीं था. सैनी ने उसमें अपनी सुविधानुसार कई बातें जोड़ दी थी मसलन स्त्री और ब्राह्मण के सम्मान की बात. हालांकि इस पर विवाद है लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बाबर ने हुमायूं को गौकशी से तौबा करने, बहुसंख्यक हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखने और मध्यम मार्ग की बात समझाई थी.

राजस्थान विश्वविद्यालय में इतिहास के शोधार्थी रामानंद यादव के मुताबिक वास्तव में बाबर एक दूरदर्शी शासक था. उसने भारत के 4 बड़े युद्धों के बाद समझ लिया था कि क्यों यहां की जनता अपने शासकों का साथ नहीं देती.

बाबर ने जिस दौर में भारत में प्रवेश किया था, वो लोदी काल था. सिकंदर लोदी और इब्राहिम लोदी कट्टर सुल्तान थे. इन्होने सबको साथ लेकर चलने के अफगानी राजत्व सिद्धांत को त्याग दिया था. यही वजह है कि जनता का उनके साथ प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं था. यही बात बाबर ने हुमायूं को समझाने की कोशिश की थी.

बाबर ने कहा था कि चूंकि हिंदुओं के लिए गाय पवित्र है. इसलिए हुमायूं को लंबे समय तक शासन करने के लिए गौकशी के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए. तब के शासकों ने हिंदू भावनाओं का सम्मान नहीं किया था. यही वजह थी कि सल्तनत में हर 20-30 साल बाद पुराने वंश का खात्मा और नए वंश का उदय होता गया. लेकिन बाबर की सीख को अकबर ने अपने ढंग से सुलह-ए-कुल (सर्व धर्म सम्भाव/धर्मनिरपेक्षता) की नीति में तब्दील किया तो मुगल वंश का मजबूत आधार तैयार हो सका. जब औरंगजेब कट्टरता की तरफ बढ़ा तो मुगल सत्ता को भी बिखरने में समय नहीं लगा.

और भी हैं बयान बहादुर यहां!

मदन लाल सैनी ने अब खुद को इतिहास का विद्यार्थी बताकर सारा दोष मीडिया के मत्थे मढ़ने की कोशिश की है. वैसे हालिया समय में ये कोई अनोखी बात नहीं रह गई है जब बड़े नेताओं ने इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा हो. राजस्थान का ही मामला देखें तो खुद शिक्षामंत्री वासुदेव देवनानी एक से ज्यादा बार ऐसा कर चुके हैं. देवनानी के मुताबिक अकबर की सेना कभी महाराणा प्रताप को हरा ही नहीं पाई थी. कई राजपूत संगठन जहां इतिहास में दर्ज अकबर-जोधा के रिश्ते को नकारते हैं वहीं, सिर्फ सूफी साहित्य में दर्ज रानी पद्मिनी-अलाउद्दीन खिलजी प्रसंग को सच मानने पर जोर भी देते हैं.

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव देव की मानें तो इंटरनेट महाभारत काल से भारत मे मौजूद था. मानव संसाधन राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह के मुताबिक डार्विन का मानव विकास का सिद्धांत ही गलत है. आदमी का पूर्वज कभी बंदर था ही नहीं. पिछले महीने उत्तर प्रदेश के बीजेपी विधायक संजय गुप्ता ने बिजली चोरी का पूरा इल्जाम मुसलमानों के सिर मढ़ दिया. मध्य प्रदेश के बीजेपी विधायक पन्नालाल शाक्य तो इन सबसे आगे निकल गए. उन्होंने महिलाओं से कहा कि वे बांझ रह जाएं लेकिन ऐसे बच्चों को जन्म न दें जो संस्कारी न हों.

वास्तव में आज समाज में जिस तरह से कट्टरता अपनी जड़ें जमाती जा रही है, तब हमें इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की बजाय उससे सबक लेने की जरूरत है. इतिहास हमारे सामने अशोक महान का उदाहरण पेश करता है. दुनिया में अशोक अकेले ऐसे राजा थे, जिन्होंने जय के बाद भी त्याग कर दिया. हम उस मोहम्मद बिन तुगलक से भी सीख सकते हैं जिसे इतिहासकारों ने विरोधाभासों का संगम कहकर खारिज किया है. इसने कट्टरपंथियों के दबाव के बावजूद उन्हें राज्य की नीति में शरीक नहीं किया. उसने अपने दरबार में मेरिट आधारित नियुक्तियां की.

हम अलाउद्दीन खिलजी से भी सीख सकते हैं जो काज़ी से कहता है कि- 'मुझे नहीं मालूम शरीयत में क्या लिखा है. मैं वही करूंगा जो मेरा राजधर्म मुझसे अपेक्षा करता है. मुझे नहीं मालूम मेरे मरने के बाद खुदा मेरा इंसाफ कैसे करेगा. लेकिन मैं वही करूंगा जो मुझे मेरे राज्य के लिए सही लगेगा.'

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)