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बिहार की राज्यसभा सीटों के पीछे की सियासत बड़ी रोचक है

बिहार में बीजेपी के अलावा दूसरी पार्टियां 2019 के हिसाब से अपना-अपना गणित लगा रही हैं

Amitesh

बिहार में राज्यसभा की सभी सीटों पर उम्मीदवारों का निर्विरोध चुना जाना तय हो गया है. 23 मार्च को 6 सीटों पर हो रहे चुनाव के लिए 6 उम्मीदवारों ने ही पर्चा दाखिल किया है. ऐसे में चुनाव की जरूरत नहीं होगी. नामांकन पत्रों की जांच के बाद सबके नाम की घोषणा कर दी जाएगी.

राज्यसभा के लिए चुनाव में जेडीयू की चार और बीजेपी कोटे के दो सांसदों की जगह खाली हो रही थी. जेडीयू सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह, किंग महेंद्र, अनिल सहनी और अली अनवर का कार्यकाल खत्म हो रहा था. जबकि बीजेपी कोटे से दो केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद और धर्मेंद्र प्रधान का कार्यकाल खत्म हो रहा था.


लेकिन, बदले हुए माहौल में संख्या बल के हिसाब से इस बार जेडीयू कोटे से सिर्फ दो और बीजेपी कोटे से सिर्फ एक ही सदस्य दोबारा चुनकर आ सकते हैं. जबकि आरजेडी कोटे से दो और आरजेडी के सहयोग से कांग्रेस का एक सांसद चुना जा सकता है.

जेडीयू का दांव

हालांकि कयास इस बात के लगाए जा रहे थे कि कांग्रेस के कुछ विधायकों को अपने पाले में लाकर या क्रॉस वोटिंग कराकर जेडीयू छठी सीट पर कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है. लेकिन, ऐसा हो न सका. अब बिना किसी लड़ाई के सभी उम्मीदवार अपनी-अपनी पार्टी के कोटे से राज्यसभा पहुंचेंगे.

पहले बात जेडीयू की करें तो जेडीयू ने इस बार फिर से किंग महेंद्र और वशिष्ठ नारायण सिंह को राज्यसभा भेजने का फैसला किया है. यानी जेडीयू कोटे के दोनों सांसदों की फिर से इंट्री होगी. किंग महेंद्र जहानाबाद से आते हैं. जेडीयू सूत्रों के मुताबिक, पैसे वाले किंग महेंद्र पार्टी के लिए भी मददगार माने जाते हैं. लिहाजा बाकी नेताओं पर फिर से उन्हें तरजीह दे दी गई है. जबकि वशिष्ठ नारायण सिंह जेडीयू के बिहार अध्यक्ष हैं. नीतीश कुमार के करीबी वशिष्ठ बाबू को नीतीश कुमार ने फिर से राज्यसभा भेजकर जातीय समीकरण साधने की कोशिश की है. किंग महेंद्र भूमिहार जाति से जबकि वशिष्ठ बाबू राजपूत समुदाय से आते हैं. नीतीश ने काफी उहापोह के बाद भी सवर्ण उम्मीदवारों को ही राज्यसभा भेजने का फैसला किया.

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इसके अलावा अली अनवर अब शरद यादव के साथ जा चुके हैं. जिसके कारण कार्यकाल खत्म होने के कुछ दिन ही पहले उनकी सदस्यता रद्द की जा चुकी है. उन्हें जेडीयू से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया है, जबकि विवादों में रहे अनिल सहनी को दोबारा जगह नहीं दी गई है.

बीजेपी ने अपने कोटे से केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को फिर से राज्यसभा भेजा है. जबकि बीजेपी कोटे के दूसरे मंत्री धर्मेंद्र प्रधान इस बार मध्यप्रदेश शिफ्ट कर दिए गए हैं.

आरजेडी की नई राजनीति

बात अगर आरजेडी की करें तो आरजेडी की तरफ से दो उम्मीदवारों के जीतने की उम्मीद थी. इस मुद्दे पर महामंथन चल रहा था. रांची की जेल में लालू यादव भले ही बंद हैं. लेकिन, उनसे सलाह-मशविरा भी हुई. कयासबाजी का दौर भी खूब चला. लेकिन, जब उम्मीदवारों का नाम सामने आया तो साफ हो गया कि परिवार और पार्टी में लालू के छोटे बेटे तेजस्वी की ही चल रही है.

पार्टी के भीतर तमाम दिग्गज मुंह ताकते रह गए और बाजी मार गए वही जिन्हें तेजस्वी की पसंद कहा जाता है. पार्टी में जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह और शिवानंद तिवारी को लेकर भी चर्चा थी. लेकिन, किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ. पार्टी के प्रवक्ता मनोज झा को पार्टी ने टिकट थमा दिया है. मनोज झा के जरिए आरजेडी पूरे मिथिलांचल क्षेत्र में ब्राम्हण मतदाताओं को साधना चाहती है. मनोज झा भ्रष्टाचार से लेकर हर मोर्चे पर लालू यादव का खुलकर बचाव करते रहे हैं. दिल्ली में आरजेडी के चेहरे के तौर पर उभर कर मीडिया में अपनी बात प्रमुखता से रखने वाले मनोज झा को राज्यसभा भेजने का फैसला कर अपने आलोचकों और पार्टी के भीतर विरोध करने वालों का मुंह बंद कर दिया है.

आरजेडी ने दूसरी सीट पर अशफाक करीम को उम्मीदवार बनाया है. करीम सीमांचल इलाके के कटिहार से आते हैं. इस वक्त उनका कटिहार मेडिकल कॉलेज भी चल रहा है. वोट बैंक को अपने साथ जोड़े रखने के लिए आरजेडी की तरफ से दो में से एक सीट पर किसी मुस्लिम उम्मीदवार को ही राज्यसभा जाना था. लेकिन, यहां भी खींचतान कम नहीं थी.

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सीवान से आरजेडी के बाहुबली नेता और पूर्व सांसद शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब के नाम की भी चर्चा थी. दरभंगा से पूर्व सांसद और केंद्रीय मंत्री रह चुके एम ए फातमी का भी नाम सियासी फिजाओं में तैर रहा था. लेकिन, यहां भी पुराने सारे समीकरण और कयासों को दरकिनार कर आरजेडी ने शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े अशफाक करीम को राज्यसभा भेजने का फैसला किया.

इन फैसलों से साफ लग रहा है कि आरजेडी भी अपने-आप को बदलने मे लगी है. इसका श्रेय तेजस्वी यादव को ही दिया जा रहा है. वरना परिवार के लोगों और पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर नए लोगों को आगे नहीं किया गया होता.

अब क्या करेगी कांग्रेस

उधर कांग्रेस के खाते में भी एक सीट आई है. इस सीट पर भी कांग्रेस ने अखिलेश प्रसाद सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया है. अखिलेश प्रसाद सिंह बिहार और केंद्र में आरजेडी कोटे से मंत्री रह चुके हैं. लेकिन, लालू यादव से अनबन के बाद वो लोकसभा चुनाव 2014 से पहले अलग होकर कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर जब अशोक चौधरी मौजूद थे तो उस वक्त भी अखिलेश प्रसाद सिंह के अध्यक्ष बनने को लेकर चर्चा चल रही थी. लेकिन, पार्टी के भीतर बगावत शांत करने के लिए अशोक चौधरी को हटाकर कौकब कादरी को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया. बाद में अशोक चौधरी ने जेडीयू का दामन थाम लिया था.

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अशोक चौधरी के जेडीयू में शामिल होने के बाद से ही कांग्रेस के सवर्ण विधायकों के पार्टी से अलग होकर जेडीयू के साथ जाने को लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं. ऐसे में भूमिहार जाति के अखिलेश प्रसाद सिंह को राज्यसभा भेजने का कांग्रेस का फैसला पार्टी के सवर्ण विधायकों को एकजुट रखने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.

कांग्रेस बिहार में अपने-आप को फिर से खड़ा करने की कोशिश में है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को लग रहा है कि सवर्ण मतदाताओं के साध कर आगे बढ़ा जा सकता है.