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बिहार: RJD की जीत के हीरो सिर्फ तेजस्वी नहीं, कहानी कुछ और भी है

लालू की गैरहाजिरी में तेजस्वी ने कुछ और फैसले लिए हैं जिसमें उनकी परिपक्वता झलक रही है और उनके लिए ये चुनाव निर्णायक सिद्ध हो सकते हैं

Amitesh

बिहार में दो विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए, दोनों का परिणाम आया तो दलों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया. जिसकी जो सीट थी उसी के खाते में गई. लेकिन इसे महज सहानुभूति वोटों का परिणाम बताकर हार को झुठलाया नहीं जा सकता. बीजेपी के नेता तो ऐसा ही कर रहे हैं.

अररिया लोकसभा सीट आरजेडी सांसद तस्लीमुद्दीन के निधन के कारण खाली हुई थी, लेकिन उनकी जगह उनके बेटे सरफराज आलम ने जीत दर्ज की. जहानाबाद विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में दिवंगत आरजेडी विधायक मुद्रिका यादव के बेटे सुदय यादव को भारी जीत मिली, जबकि भभुआ विधानसभा सीट पर बीजपी के युवा विधायक आनंद भूषण पांडे के निधन के बाद उनकी पत्नी रिंकी रानी पांडे को जीत मिली.


पहली नजर में ये तो सहानुभूति वोट का असर दिख रहा है जैसा बीजेपी के नेता दावा कर रहे हैं. लेकिन इस बात को भी नहीं भूलना होगा कि महागठबंधन से अलग होने के बाद जेडीयू और बीजेपी के साथ आने के बाद यह पहला चुनाव है. जहां आरजेडी को बड़ी बढ़त मिली है.

बिन लालू तेजस्वी का जलवा!

जुलाई 2017 में आरजेडी से अलग होकर फिर से बीजेपी के साथ मिलकर नीतीश कुमार ने सरकार बनाई थी, उसके बाद से ही इसे जनादेश का अपमान बताकर नीतीश सरकार में डिप्टी सीएम रहे अब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने बिहार भर में अपने पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया था.

इस बीच लालू यादव ने अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को आगे कर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. शायद लालू को चारा घोटाले के मामले में जेल जाने को लेकर अंदाजा पहले से ही रहा होगा.

यहां तक कि भ्रष्टाचार के मामले में तेजस्वी यादव समेत परिवार के दूसरे लोगों पर भी आरोप लगे हैं. लेकिन, लालू का चारा घोटाले से जुड़े कई मामलों में जेल जाने के बावजूद तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी को मिली जीत बड़ी जीत  है.

लालू के जेल जाने से हुआ फायदा?

इसके पहले भी लालू यादव चारा घोटाले के मामले में जब जेल गए हैं तो आरजेडी को इसका सीधा फायदा ही हुआ है. सहानुभूति वोटों के अलावा लालू यादव की पार्टी के कैडर और ज्यादा एकजुट होकर मजबूती के साथ उनके साथ खड़े दिखे हैं. इस बार भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है.

एक बार फिर आरजेडी के साथ ‘माय’ यानी मुस्लिम-यादव का समीकरण पूरी तरह से जुड़ गया है. यहां तक कि मुस्लिम समुदाय के भीतर नीतीश कुमार ने जिस तरह पिछड़े मुसलमानों को लुभाने के लिए पसमांदा समाज को अलग कर उसे अपने साथ काफी हद तक जोड़ा था. अब बीजेपी के साथ आने के बाद वो पसमांदा समाज भी उनसे छिटकता नजर आ रहा है.

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आरजेडी की कोशिश ‘माय’ समीकरण के अलावा पिछड़े और अति पिछडे तबकों और दलितों में फिर से अपनी पुरानी साख को वापस लाने की है. नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनने के बाद पिछड़ों में अति पिछडा और दलितों में महादलित बनाकर इस समुदाय को अपने साथ कर लिया था.

इस सोशल इंजीनियरिंग के दम पर ही बिहार में जेडीयू-बीजेपी ने 2010 के विधानसभा चुनाव में एकतरफा जीत दर्ज की थी. लेकिन, एक बार फिर से तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी इस सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को तोडकर एनडीए को हराने की कोशिश कर रही है.

आरजेडी के पास मुस्लिम और यादव को जोड़कर 30 फीसदी वोट बैंक पहले से ही है. विपरीत हालात में भी आरजेडी के साथ कमोबेश यह तबका जुड़ा रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को अपने साथ लाकर तेजस्वी ने बड़ा दांव खेला है.

हालाकि जीतनराम मांझी एनडीए के भीतर उतने प्रभावी नहीं रहे थे. लेकिन, उनके आरजेडी के साथ जाने से सांकेतिक तौर पर ही सही आरजेडी को फायदे की उम्मीद थी. चुनाव परिणाम में इसका असर दिख भी रहा है.

महागठबंधन का बढ़ेगा कुनबा?

आरजेडी महागठबंधन को और मजबूत करने में लगा है. 2019 के चुनाव से पहले आरजेडी के साथ कांग्रेस, जीतनराम मांझी और शरद यादव भी साथ दिख रहे हैं. उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी को भी अपने पाले में लाने की कोशिश में आरजेडी लगी हुई है. अगर ऐसा हुआ तो फिर आरजेडी के नेतृत्व में महागठबंधन के कुनबे और जेडीयू-बीजेपी-एलजेपी के एनडीए गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर होगी.

लालू यादव के जेल में रहते हुए यह चुनाव हुआ था. लेकिन, इस दौरान लालू की गैरहाजिरी में तेजस्वी ने कुछ और फैसले लिए हैं जिसमें उनकी परिपक्वता झलक रही है.

राज्यसभा चुनाव के लिए भी पार्टी के कई कद्दावर नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाकर तेजस्वी ने उनके नेतृत्व में बदलते आरजेडी का संकेत दे दिया है. यानी अब पार्टी में नए लोगों के लिए जगह होगी. सभी कयासों के बाद मनोज झा और अशफाक करीम को राज्यसभा भेजना इसका एक नमूना है.

उपचुनाव परिणाम के क्या हैं मायने?

बात अगर अररिया लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव की करें तो यहां आरजेडी की तरफ से सरफराज आलम चुनाव मैदान में थे. 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी तीनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, जिसमें आरजेडी को जीत मिली थी.

उस वक्त तस्मीमुद्दीन को 4,07,978 वोट मिले थे. जबकि बीजेपी के प्रदीप सिंह को 2,61,474 वोट और जेडीयू के विजय मंडल को 2,21,769 मिले थे. यानी बीजेपी और जेडीयू के वोटों को जोड दिया जाए तो यह पलडा बीजेपी का भारी दिखता है. लेकिन, इस फॉर्मूले के बावदूद बीजेपी के प्रदीप सिंह को उपचुनाव में हार का सामना करना पडा है. यानी बीजेपी औऱ जेडीयू के साथ आने के बावजूद   गठबंधन कामयाब नहीं हो सका.

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अररिया में लगभग 40 फीसदी तक मुस्लिम आबादी है. इसके अलावा यादव वोटर की तादाद भी यहां अच्छी खासी है. लिहाजा आरजेडी यहां भारी पड़ गई. न ही जेडीयू के वोट भी ठीक तरीके से बीजेपी उम्मीदवार को ट्रांसफर हो पाया और न ही दूसरी पिछडी-अतिपिछडी जातियों को गोलबंद करने के लिए बीजेपी का हिंदुत्व कार्ड ही चल पाया.

उधर, जहानाबाद विधानसभा के उपचुनाव में आरजेडी की 35 हजार के करीब मतों से जीत बहुत बड़ी जीत है. दिलचस्प है कि इस सीट पर आरजेडी उम्मीदवार सुदय यादव ने जेडीयू के पूर्व एलएलए अभिराम शर्मा को हराया है. जेडीयू की हार के पीछे एनडीए के भीतर की कलह दिख रही है.

पहले तो इस सीट पर दावेदारी को लेकर खींचतान हुई. पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त यह सीट आरएलएसपी के खाते में गई थी. लेकिन, उस वक्त आरएलएसपी के प्रवीण सिंह को हार का सामना करना पडा था. उपेंद्र कुशवाहा इस सीट पर फिर दावा कर रहे थे. दूसरी तरफ, कुशवाहा की पार्टी में अरुण कुमार गुट इस सीट पर दावा कर रहा था.

जहानाबाद से सांसद अरुण कुमार इस वक्त कुशवाहा से अलग हो चुके हैं. लिहाजा वो हर हाल में कुशवाहा को सीट नहीं दिए जाने पर अड़े हुए थे. इन दोनों की लड़ाई में यह सीट फिर से जेडीयू को दे दी गई. इस सीट पर नहीं चाहते हुए भी जेडीयू को चुनाव लड़ना पड़ा था. शायद यह बीजेपी की रणनीति थी जो हार और जीत दोनों स्थिति में जेडीयू को साझीदार बनाना चाहती थी.

लेकिन जेडीयू के खाते में सीट जाने के बावजूद इस सीट पर एनडीए के बीच खींचतान जारी रही. जेडीयू ने इस सीट पर सांसद अरुण कुमार को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया. उन्हें चुनाव प्रचार में भी नहीं बुलाया गया. इसका असर भी चुनाव के दौरान दिखा.

दूसरी तरफ, जीतनराम मांझी ने इसी दौरान एनडीए छोड़कर आरजेडी के साथ जाने का फैसला कर लिया. मांझी भी जहानाबाद की सीट पर अपनी पार्टी का दावा कर रहे थे.

अब सबकी नजरें बिहार में उपेंद्र कुशवाहा पर होंगी. क्या कुशवाहा को इस हार के बाद एनडीए में और तरजीह मिलेगी. अगर ऐसा नहीं हुआ तो कुशवाहा के भी आरजेडी के साथ जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

एनडीए के लिए आई ओपनर?

बिहार में उपचुनाव में हार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और बीजेपी के लिए भी आंखें खोलने वाली हैं. यह हार तब हुई है जब नीतीश कुमार फिर से बीजेपी के साथ हो चले हैं. रामबिलास पासवान भी बीजेपी के ही खेमे में हैं. फिर भी हार होना और हार का अंतर बड़ा होना जमीनी स्तर पर हो रही हलचल को दिखाता है.

सुशासन और विकास के नाम पर सियासत करने वाले नीतीश कुमार को फिर से अपनी सुशासन बाबू वाली उस छवि को भी ठीक करनी होगी. सोशल इंजीनियरिंग के अपने फॉर्मूले को भी दुरुस्त करना होगा.

हालांकि लोकसभा चुनाव में अभी भी एक साल का वक्त बचा है. उपचुनावों की तुलना अगले लोकसभा चुनाव से करना बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन, राजनीति में संकेतों का महत्व होता है. ऐसे में बिहार में बीजेपी-जेडीयू को उपचुनावों से मिले संकेतों को पकड़ने की जरूरत है. महज सहानुभूति वोटों से तीनों सीटों पर चुनाव परिणाम को जोड़कर नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है.