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बिहार आईएएस विवाद: अफसरों का विरोध क्या प्रशासनिक 'स्टील फ्रेम' में जंग लगने का सबूत है?  

Surendra Kishore

बिहार कर्मचारी चयन आयोग के परीक्षा पेपर लीक कांड में आईएएस अफसर सुधीर कुमार को गिरफ्तार किया गया है. सुधीर कुमार की गिरफ्तारी के विरोध में आंदोलन कर रहे बिहार आईएएस एसोसिएशन ने फैसला किया है कि उसके सदस्य मुख्यमंत्री कार्यालय सहित किसी बड़े दफ्तर से मिले मौखिक आदेश का पालन नहीं करेंगे.

अब सवाल है कि क्या सुधीर कुमार पर सरकार की किसी महत्वपूर्ण हस्ती के मौखिक आदेश का पालन करने के कारण केस हुआ है और उन्हें जेल जाना पड़ गया है.


यदि ऐसा है तो बिहार कर्मचारी चयन आयोग के पूर्व अध्यक्ष सुधीर कुमार ने अब तक यह बात जांच एजेंसी के सामने क्यों नहीं रखी? इसके उलट उन पर जांच एजेंसी को भ्रमित करने का भी आरोप है.

क्या आईएएस एसोसिएशन इस कांड की इसलिए सीबीआई जांच की मांग कर रहा है क्योंकि उसे डर है कि बिहार पुलिस उस बड़ी सरकारी हस्ती पर हाथ नहीं डाल पाएगी?

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यदि ऐसा है तब तो एसोसिएशन की यह मांग सही लगती है. इसके लिए अदालत की शरण भी ली जा सकती है. वैसे भी यदि राज्य सरकार का कोई मंत्री इस घोटाले में शामिल होगा और उसे पुलिस बचाना चाहेगी तो उससे नीतीश सरकार की साख खतरे में पड़ जाएगी.

पेपर घोटाले का किंगपिन बिहार विश्वविद्यालय का अधिकारी ललन सिंह (तस्वीर न्यूज़18 हिंदी)

नीतीश कुमार का स्टील फ्रेम

छवि के प्रति सतर्क नीतीश इसे अच्छी तरह जानते हैं. हालांकि, नीतीश कुमार के काम करने का तरीका और ऐसे पुराने मामलों को देखते हुए लगता है कि यदि कोई बड़ी हस्ती भी इस लीक कांड में शामिल होगी तो उसे जेल जाना ही होगा.

याद रहे कि पुलिस के एक ईमानदार अफसर के नेतृत्व में गठित एसआईटी इस कांड की जांच कर रही है. अब तक कई लोगों की गिरफ्तारी भी हो चुकी है और  पुलिस को अब तक जितने सबूत मिले हैं, वे इन गिरफ्तारियों के लिए पर्याप्त हैं.

वैसे 1983 के चर्चित बाॅबी हत्याकांड को याद करें तो उसमें उल्टा ही हुआ था.

किशोर कुणाल के नेतृत्व में बिहार पुलिस पूरे सबूतों के साथ बड़ी हस्तियों को गिरफ्तार करने ही जा रही थी कि उच्चस्तरीय दबाव से मामला सीबीआई को सौंप दिया गया और सीबीआई ने उन आरोपियों को साफ बचा लिया था.

खैर जो हो, इन दिनों सीबीआई के पूर्व निदेशकों पर जिस तरह के गंभीर आरोप लग रहे हैं, उनसे उस संगठन के बारे में आम लोगों के मन में अब पहले वाली धारणा नहीं रही.

धारणा तो 'स्टील फ्रेम ब्यूरोक्रेसी' के बारे में बिगड़ रही है जो एक विवादास्पद अफसर के पक्ष में पहली बार सड़कों पर उतर आया है.

क्या सचमुच स्टील फ्रेम में पूरी तरह जंग लग चुकी है? क्या संविधान, नियम और कानून के शासन के लिए अब आईएएस अफसरों पर जनता भरोसा नहीं रख सकती है?

याद रहे कि आईसीएस अफसरों को अंग्रेज स्टील फ्रेम कहते थे.

आजादी के बाद कमोबेश वही बात आईएएस अफसरों के बारे में भी कही जाती रही. पर राजनीतिक कार्यपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार से अफसर कब तक अछूते रहते? हालांकि, अब भी सत्ताधारी नेताओं की अपेक्षा बड़े अफसरों में भ्रष्टाचार थोड़ी कम देखी जाती है पर गिरावट जारी है.

बिहार में आईएएस अफसर पहले भी गिरफ्तार होते रहे हैं पर साथ ही कई ऐसे भी अफसर रहे हैं जिन पर कभी कोई दाग नहीं लगा. एसोसिएशन कह रहा है कि सुधीर कुमार की छवि एक ईमानदार अफसर की रही है.

पर प्रतियोगिता परीक्षा पेपर लीक कांड की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल के पास उनके खिलाफ पुख्ता सबूत आ चुके हैं.

याद रहे कि इलेक्ट्रानिक युग में सबूत जमा करना और भी आसान हो चुका है. उनके खिलाफ मिले सबूतों पर फैसला करना तो अदालत का काम है पर यह भी संभव है कि सुधीर का यह पहला कसूर हो.

तो क्या जिसने पहली बार कोई  कसूर किया हो तो उसे माफ कर दिया जाता है?उसे जेल नहीं भेजा जाता है?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के हिमायती रहे हैं

भ्रष्ट अफसरों का इतिहास

क्या एक ताकतवर आईएएस अफसर को जेल से बाहर रखकर सबूतों में छेड़छाड़ करने देने का मौका कोई जांच एजेंसी दे सकती है?

पहली बार 70 के दशक में जब कमिश्नर स्तर के अफसर एन.नागमणि पटना में गिरफ्तार हुए थे तो उस समय भी उनका पहला ही कसूर था. उनपर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप था.

तब आईएएस अफसर एसोसिएशन ने नागमणि की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन नहीं किया था.

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80 के दशक में राज्य में आईएएस अफसर विश्राम प्रसाद और बीके सिंह बारी-बारी से गिरफ्तार हुए. 90 के दशक में तो चारा घोटाले के सिलसिले में चार आईएएस अफसर जेल गये. उन्हें निचली अदालत से सजा भी हुई है, पर एसोसिएशन इतना अधिक तब भी उत्तेजित नहीं था.

आज जब वो गुस्से में है तो उसका एक कारण यह भी बताया जाता है कि भ्रष्टाचार से जिन लोगों को फायदा मिला है उनमें राजनेता ज्यादा हैं, लेकिन सजा ज्यादातर पीड़ित अफसरों को दी जाती है.

चारा घोटाले में गिरफ्तार अफसर हर तरह से बर्बाद हो गये. पर उस घोटाले में शामिल जेल यात्री व सजायाफ्ता नेताओं पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा.

यह समस्या जरूर विचार करने लायक है, लेकिन राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार इस पर खुद आईएएस अफसरों को बहुत पहले अलग से विचार करना चाहिए था.

ऐसा इसलिए क्योंकि उनमें से अनेक लोगों के खिलाफ बहुत पहले से ही यह आरोप लगता रहा है कि, वे राजनीतिक कार्यपालिका से साठगांठ करके अनियमितताएं करते रहे हैं. हालांकि, अब भी यह कहा जा सकता है कि ज्यूडीशियरी को छोड़ दें तो किसी भी अन्य सेवा की अपेक्षा अब भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम है.

आमलोग इस बात से जरूर नाराज  हैं कि जिस सेवा पर प्रशासनिक सदाचार और निष्ठा सुनिश्चित करने की सबसे अधिक जिम्मेदारी है, वही अपने किसी विवादास्पद साथी के पक्ष में सड़कों पर उतर अपनी गरिमा कम कर रहा है.

बिहार की उच्चस्तरीय ब्यूरोक्रेसी में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर 5 फरवरी 1998 को केंद्र सरकार के तत्कालीन ग्रामीण विकास सचिव एनसी सक्सेना ने बिहार के मुख्य सचिव को एक कड़ा पत्र लिखा था. उस पत्र में अफसरों को अपने कामकाज और व्यवहार पर विचार करने को कहा था. क्या अफसरों ने विचार किया?

क्या अफसर इस बात पर कभी विचार करते हैं कि बिहार के पिछड़ेपन और धीमे विकास के लिए सत्ताधारी नेता अधिक जिम्मेदार हैं या अफसर?