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यूं ही जातीय हिंसा होती रही, तो बीजेपी के 'हिंदू एकता' प्लान का क्या होगा?

भीमा-कोरेगांव घटना से यह साफ हो गया कि बीजेपी और शिव सेना की हिंदू व मराठी अस्मिता वाली सरकार के बावजूद महाराष्ट्र में हिंदू आपस में ही लड़ रहे हैं. तो क्या मान कर चलें कि बीजेपी जाति और फिकरों की राजनीति में फंसती जा रही है जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ेगा

Anant Mittal

महाराष्ट्र में जातीय जोर आजमाइश ने फिर से भारतीय समाज की गहराती दरारों पर सियासत की रोटियां सेंकने का खेल उजागर कर दिया. भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना की हिंदू और मराठी अस्मिता की रक्षा की दावेदार सरकार के बावजूद महाराष्ट्र में हिंदू आपस में ही लड़ रहे हैं. क्या यह मान लिया जाए कि बीजेपी वृहद हिंदू एकता की बात भले करे मगर उसे स्थापित नहीं कर पा रही अथवा समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता हिंदुओं में जातीय टकराव करवा रही है?

ये लड़ाई महार दलित यानी अनुसूचित जाति के लोगों और मराठों की है। मराठों को भी वर्णक्रम में शूद्र ही आंका जाता है मगर इस लड़ाई में वे ब्राह्मणवाद के प्रतिनिधि हैं. वैसे भी भीमा कोरेगांव युद्ध में 22 महार सैनिकों के साथ ही 16 मराठा, आठ राजपूत, दो मुसलमान और दो भारतीय यहूदी भी बलिदान हुए थे. ऐसे में इसे खाली महारों की जीत का पर्व समझना क्या मराठों की अपने पुरखों के शौर्य से ही नाइंसाफी नहीं है?


वैसे इन दोनों जातियों की जांबाजी का भारतीय फौज पर आज भी सिक्का जमा हुआ है. सेना में बाकायदा मराठा लाइट इंफेंट्री रेजिमेंट और महार रेजिमेंट हैं. मराठा रेजिमेंट ने गोआ, दमण-दीव को 1961 में पुर्तगालियों से आजाद कराया, दूसरे विश्वयुद्ध में इटली में करेन में मोर्चा जीता. वहीं इनका युद्धघोष 'बोल शिवाजी महाराज की जय, हर हर महादेव' ईजाद हुआ. मराठा लाइट इन्फेंट्री रेजिमेंट आमने-सामने की यानी गुत्थमगुत्था लड़ाई में माहिर है. इसमें बघनख बटालियन भी है जो छत्रपति शिवाजी के बघनख का लड़ाई में आज भी इस्तेमाल करते हैं.

महार रेजिमेंट के पास सेना का सर्वोच्च सैनिक सम्मान 'परमवीर चक्र' है. यह देश को दो सेनाध्यक्ष दे चुकी. इनका युद्धघोष,'बोलो हिंदुस्तान की जय' है. बंटवारे के समय, 1962 के युद्ध में लद्दाख बचाने में, 1971 के युद्ध में पंजाब में और 1987 में श्रीलंका में शांति सेना में महार रेजिमेंट ने डटकर लोहा लिया. आजादी से पहले तक महार रेजिमेंट के पहचान चिन्ह में भीमा कोरेगांव का विजय स्तंभ भी शामिल था. आजादी के बाद उसकी जगह खंजर को दे दी गई.

भीमा कोरेगांव युद्ध पेशवा बाजीराव द्वितीय और अंग्रेजों की सेना के बीच एक जनवरी 1818 को हुआ. उसमें पेशवा की अंग्रेजों से कई गुना ज्यादा सेना तथा साधनों के बावजूद महारों और मराठों के डटकर लड़ने से वे हार गए थे. पेशवा ब्राह्मण थे. उसी जीत का जश्न महादलित महार हर साल एक जनवरी को भीमा कोरेगांव में विजय स्तंभ के सामने जमा होकर मनाते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार चूंकि विजय की दूसरी शताब्दी पूरी हो रही थी सो दलित लाखों की संख्या में जमा हुए.

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सुगबुगाहट यह है कि दलितों के शांतिपूर्ण जमावड़े के दो दिन पहले ही संघर्ष की पटकथा लिखी जा चुकी थी. पुणे से करीब 30 किलोमीटर दूर अहमदनगर रोड पर स्थित भीमा कोरेगांव के निकट ही वढू बुदरक गांव है. भीमा नदी किनारे बसे गांव में औरंगजेब ने 11 मार्च, 1689 को तत्कालीन मराठा शासक एवं छत्रपति शिवाजी के बड़े बेटे संभाजी राजे भोसले और उनके साथी कवि कलश की हत्या और अंग-भंग करवा दिए थे.

उसी गांव के महार गोविंद गणपत गायकवाड़ ने मुगल बादशाह की हुक्मउदूली करके संभाजी के क्षत-विक्षत शव को समेटा और सम्मानपूर्वक अंत्येष्टि कर दी. मुगलों ने चिढ़ कर गोविंद की हत्या कर दी तो उनकी समाधि भी लोगों ने सम्मानपूर्वक छत्रपति संभाजी राजे की समाधि के बगल में ही वढू बुदरक गांव में बना दी. इसीलिए गोविंद की समाधि को भी सजाया गया लेकिन 30 दिसंबर, 2017 की रात में साजिशन उसे उजाड़ दिया. कुछ चश्मदीदों ने इसके पीछे मराठों पर असरदार उच्चवर्गीय हिंदू जमात का हाथ बताया.

शायद इसी के जवाब में 31 दिसंबर की शाम भीमा कोरेगांव में पेशवाओं का निवास रहे शनिवारवाड़ा के बाहर यलगार परिषद आयोजित हुई. इसमें बाबासाहेब के पोते प्रकाश अंबेडकर के साथ गुजरात के नवनिर्वाचित दलित विधायक जिग्नेश मेवाणी, दिवंगत रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला और जेएनयू के छात्रनेता उमर खालिद भी शामिल थे. मेवाणी ने बीजेपी और आरएसएस को वर्तमान पेशवा बताते हुए सभी दलों से लामबंद होने को कहा. लेकिन ऐसे बयान तो वे पिछले दो साल से दे रहे हैं फिर भी मेवाणी ओर खालिद पर पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर लिया.

महाराष्ट्र ने संत ज्ञानेश्वर, सावित्री बाई फुले, नामदेव ढसाल, शाहूजी महाराज और डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों के जरिए पूरे देश को जहां सामाजिक बराबरी की नई रोशनी दिखाई वहीं अब जातीय वैमनस्य की आग फैली है. बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ने तो पूना पैक्ट के तहत दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण और भारतीय संविधान के दस्तावेजीकरण में भी प्रमुख भूमिका निभाई.

डॉ. भीमराव अंबेडकर भी महार थे और हिंदुत्व से मोहभंग के बाद उनके साथ नवबौद्ध बननेवाले करीब पांच लाख लोगों में अधिकतर महार ही थे. अंबेडकर पहली बार 1927 में भीमा कोरेगांव स्थित युद्ध स्मारक पर गए थे. उन्हीं की यह उक्ति बताई जाती है कि 'जिस कौम का इतिहास नहीं होता वो शासक नहीं बन पाता'.

इसीलिए अपने बच्चों को प्रेरित करने के लिए अब दलित उन्हें युद्ध स्मारक पर ज्यादा तादाद में लाने लगे हैं. इसके अलावा भी दलित देश भर में अंबेडकर जयंती एवं महापरिनिर्वाण दिवस, संविधान दिवस, मनुस्मृति दहन दिवस, फूलनदेवी की जयंती, कांशीराम जयंती एवं निर्वाण दिवस आदि बड़े पैमाने पर मनाने लगे हैं. सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें और दलितों पर अत्याचार की बातें अब तेजी से फैलती हैं.

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इससे दलित युवाओं में चेतना बढ़ी और वे मुखर विरोध करने लगे. इसीलिए गुजरात में उना दलित उत्पीड़न कांड तथा अब महाराष्ट्र में कोरेगांव हिंसा का इतना व्यापक विरोध हुआ. विरोध की यह चिंगारी गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश तक पहुंच चुकी है. जाहिर है कि बीजेगी नेतृत्व इससे खासा चिंतित है. उसे डर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर बनी वृहद हिंदू एकता का तिलिस्म कहीं 2019 के आम चुनाव से पहले ही छिन्न-भिन्न न हो जाए.

इसके अलावा इसका खामियाजा कहीं इसी साल कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में बीजेपी को चुकाना न पड़ जाए. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को भी यह अहसास है. उन्होंने अपनी सरकार की विफलता पर पर्दा डालने के लिए आनन फानन हिंसा की न्यायिक जांच, युवक की हत्या की सीबीआई जांच, जलाई गई गाड़ियों की भरपाई में मदद और मृतक के परिवार को 10 लाख रुपए हरजाने का ऐलान किया. फिर भी सियासत तेज है और संसद के भीतर और बाहर भाजपा पर विपक्षी दल हमलावर हैं.

सवाल यह है कि लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुआई में दलितों सहित हिंदुओं द्वारा बीजेपी-शिवसेना को बहुमत देने के बावजूद हिंदू आपस में क्यों लड़ने लगे? क्या वृहद हिंदू समाज की एकता के संदेश पर चुनाव जीती बीजेपी जातियों और फिरकों की गोलबंदियों को तोड़ने के बजाए उनमें खुद ही फंस रही है? गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, असम, कर्नाटक, मध्यप्रदेश वगैरह में जातीय गोलबंदी बीजेपी का सिरदर्द क्यों बन रही है? इसका असर गुजरात विधानसभा चुनाव पर भी पटेलों द्वारा बीजेपी को 99 सीटों पर समेट देने से सामने आया.

दलितों के प्रति मराठा युवाओं का आक्रोश कहीं उनसे पढ़ाई-लिखाई और सरकारी नौकरियों में पिछड़ने के कारण तो नहीं पैदा हो रहा? कारण कुछ भी हो मगर महाराष्ट्र जैसे देश के सबसे अमीर राज्य में राजस्थान की तर्ज पर अतीत के गौरव के लिए हिंसा सियासत की बू मार रही है. इससे आजादी के 70 साल बाद भी समाज में दलितों के प्रति व्याप्त भेदभाव का पर्दाफाश हो रहा है. इसे मिटाना हमारी लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकारों के लिए बड़ी चुनौती है.

हालांकि चुनाव तो आज भी जातीय लामबंदियों के नाम पर ही लड़े जा रहे हैं.

विडंबना यह भी है कि राजस्थान में चित्तौड़ की रानी पद्मिनी की महिमा से पद्मावती फिल्म में कथित छेड़छाड़ के विरुद्ध राजपूत करणी सेना के हिंसक विरोध को तो राजपूत नायकों की मूर्तियां लगाकर ठंडा किया जा रहा है. लेकिन दलित जब 200 साल पहले कोरेगांव भीमा युद्ध में अपनी जीत के आत्मगौरव का अहसास अपने युवाओं को करा रहे हैं तो उन्हें राजनीतिक साजिश के तहत माहौल बिगाड़ने पर उतारू बताया जा रहा है.