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बाजीराव मस्तानी जैसा 'ग्लैमरस' नहीं स्याह है पेशवाई महाराष्ट्र का जातीय इतिहास

महाराष्ट्र के कोरेगांव में जो हिंसा आज भड़की है उसके बीज बहुत लंबे समय से रखे जा रहे हैं

Updated On: Jan 02, 2018 05:56 PM IST

Animesh Mukharjee Animesh Mukharjee

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बाजीराव मस्तानी जैसा 'ग्लैमरस' नहीं स्याह है पेशवाई महाराष्ट्र का जातीय इतिहास

महाराष्ट्र के कोरेगांव में हिंसा की आंच फैलती जा रही है. ब्रिटिश सेना ने मराठों को हरा दिया था. दलितों का बहुत बड़ा तबका इसका जश्न मनाता है. ऐसा समझा जाता है कि तब अछूत समझे जाने वाले महार समुदाय के सैनिक ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की ओर से लड़े थे. पुणे में कुछ दक्षिणपंथी समूहों ने इस ‘ब्रिटिश जीत’ का जश्न मनाए जाने का विरोध किया था.

हिंदुस्तान में पिछले कुछ समय में इतिहास को लेकर सोच बदली है. लोग लकीर खींचकर हर बात को काले और सफेद में बांटना चाहते हैं. फलां हमारे धर्म या जाति से था तो अच्छा था. लड़ते हुए मारा गया तो महान था. जबकि कोई भी इतिहास एक समय पर समाजशास्त्र होता है. इस समाजशास्त्र के अपने कई पहलू होते हैं.

बाजीराव की कहानी मस्तानी से आगे भी है

इस साल संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्माव(ती/त) को लेकर बड़ा विवाद है. मगर जिस फिल्म में भंसाली ने इतिहास की ऐसी-तैसी की वो बाजीराव मस्तानी है. बाजीराव की मस्तानी के साथ प्रेम कहानी और उनकी वीरता के किस्से सुनने में अच्छे लगते हैं. मगर पेशवाओं का गैर ब्राह्मण जातियों पर किया गया अत्याचार रुह कंपाने वाला है.

सिनेमा के पर्दे पर जब रणवीर सिंह दिख रहे हों तो चीज़ें ग्लैमरस हो जाती हैं. जबकि हकीकत इससे उलट थी. महाराष्ट्र में पेशवा ब्राह्मण थे जो मूल रूप से छ्त्रपति के मंत्री हुआ करते थे. समय के साथ शिवाजी के वंशज कमजोर होते गए और पेशवाओं की मराठा साम्राज्य पर पकड़ बढ़ती गई. इस परिवर्तन ने सबसे पहले छत्रपति शिवाजी के बनाए सिद्धांतों को ताक पर रख दिया.

मसलन पेशवाओं के समय में हारे हुए राज्यों से अनैतिक तरीकों से बेहिसाब चौथ वसूली की गई. शिवाजी महिलाओं का जो सम्मान करते थे उसे किनारे रख दिया गया. पानीपत की जंग में मराठों के हारने का बड़ा कारण था कि तमाम मराठा सरदार लड़ाई के मैदान में अपने साथ पत्नियां, प्रेमिकाएं नाचने वाली लेकर गए थे. इसी क्रम में पेशवाई कानून लागू किया गया था. ये कानून कहता था कि 'अपवित्र जाति' के लोग गले में हांडी और पीछे झाड़ू बांध कर चलें. ताकि उनके थूक और पैरों के निशान से सड़क अपवित्र न हो जाए.

कुल लोक कथाएं तो ये तक बताती हैं कि दिन के समय दलितों को कई इलाकों से रेंगकर निकलना होता था. या किसी ब्राह्मण के सड़क से गुजरते समय जमीन पर लेट जाना होता था, ताकि उनकी छाया किसी 'पवित्र व्यक्ति' पर न पड़े. इन सबके बीच महारों में गुस्सा भरता चला गया. बताया जाता है कि 1 जनवरी 1818 को 500 महारों ने पेशवा की बड़ी सेना को हरा दिया था. इसी के जश्न में महार हर साल बड़ा उत्सव मनाते हैं.

कुछ समय में बढ़ा है मराठों और महारों टकराव

पिछले कुछ सालों में मराठों और दलितों (खास तौर पर महारों) के बीच की टकराव काफी बढ़ा है. इसके पीछे कई कारण हैं. जिन्हें शिवसेना और मनसे जैसी पार्टियां अपने वोटबैंक को पकड़े रहने के लिए उठाती रहती है. मसलन पहला मुद्दा शिवाजी की जाति को लेकर है. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि शिवाजी क्षत्रिय नहीं किसी पिछड़ी जाति से थे. उस दौर में क्षत्रिय ही राजा हो सकता था तो काशी के नामी ब्राह्मण गंगाभट्ट ने शिवाजी के क्षत्रिय कुल में जन्म लेने की घोषणा की. इसके चलते उनके साथ के सारे मराठा समुदाय को क्षत्रिय मान लिया गया. जबकि मराठा शब्द का मूल अर्थ है, ऐसा आदमी जो मार कर हटे या मर कर हटे.

आज के महाराष्ट्र में तीन जातीय ध्रुव प्रमुख हैं, मराठा, ब्राह्मण और दलित. दलित अपने महार आइकॉन बाबा साहेब अंबेडकर के चलते काफी मुखर हुए हैं. जबकि मराठों में कई पिछड़े समूह हैं जो आरक्षण को लेकर आंदोलन चला चुके हैं. ऐसे में महारों को लगता है कि मराठे उनका हक पर चोट करेंगे. इसके अलावा मराठा अतिवादी शिवाजी के ईश्वरीय होने को लेकर बहुत उग्र रहते हैं. दूसरी तरफ दलित चिंतक उनकी जाति पर अलग दावा कर देते हैं. साल 2016 में एक मराठा लड़की के साथ तीन दलित लड़कों के बलात्कार का मामला आया था. इसके बाद पूरे राज्य में तनाव फैल गया था.

फिलहाल 200 सालों से चली आ रही इस जातीय खींचतान में राष्ट्रवाद और हिंदू अस्मिता भी जुड़ गई है. कोरेगांव की हिंसा कुछ समय में काबू कर भी ली जाए आने वाले समय में ये टकराव बढ़ने वाला है.

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