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भारत बंद: एक आवारा बंद का सियासी संदेश

उपचुनावों में भाजपा की जीत भी नोटबंदी पर जनता के रुख का सियासी संदेश है.

Tarun Kumar

'भारत बंद' था लेकिन मुल्क में सब कुछ खुला है. और सबसे ज्यादा अगर कुछ खुला, उजागर या बेपर्दा दिखा तो वह था बंद पर विपक्ष का विकराल बिखराव.

वही विपक्ष जो नोटबंदी के मुद्दे पर मोदी की शख्सियत, कार्यशैली और फैसले को हिटलरशाही का जामा पहनाकर देश में इंदिरा काल से कहीं ज्यादा घनघोर आपातकाल आने का अंदेशा जता चुका है.


बंद पर प्रतिरोध की मामूली और लगभग गैर-असरदार लहरें कुछ राज्यों में महसूस तो की गईं, पर कोई भी पार्टी इस बंद में अपनी समर्पित भागीदारी की पुष्टि करने की जुर्रत नहीं कर पा रही है. बेचारा ‘भारत बंद’!

‘भारत बंद’ अवारा प्रतिरोध साबित हुआ

सियासी प्रतिरोध के मैदान में पहली बार ‘भारत बंद’ आवारा प्रतिरोध साबित हुआ है, जिसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कोई भी दल तैयार नहीं है! यहां तक कि प्रतिपक्ष के नेता जुबान से ‘भारत बंद’ शब्द निकालने से भी परहेज कर रहे हैं और इसे ‘जन आक्रोश दिवस’ नाम दिया जा रहा है.

यह और भी ज्यादा घनघोर फजीहत है, क्योंकि इसमें जो ‘आक्रोश’ है वह तो राजनीतिक दलों का निजी है, लेकिन इस प्रतिरोध में ‘जन’ किधर है? जिन्हें पैसे की जरूरत है वे पहले की तरह ही अनुशासित कतार का हिस्सा हैं, बाकी जन अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त हैं.

फिर किसका है यह भारत बंद?

प्रधानमंत्री मोदी के शाब्दिक प्रहारों से हलकान-परेशान कांग्रेस संसद में भले ही तेजाबी बयान बहादुरी दिखाती रही है, पर बंद की जवाबदेही लेने में उसके भी पसीने छूट रहे हैं.

मोदी पर बेलगाम और बेपनाह हमलावर ममता दी इस बंद से पहले ही पल्ला झाड़ चुकी हैं. नीतीश कुमार पहले से ही विमुद्रीकरण की मोदी राह का समर्थन कर चुके हैं.

यहां तक कि वे इस मसले पर भाजपा के सुर में बोलकर लालू, कांग्रेस और अन्य विपक्ष को असाधारण सियासी कयासबाजी के फेज में धकेल चुके हैं, सो इधर भी भारत बंद का समर्थन नहीं है.

भागीदारी से पल्ला झाड़ा

सपा, बसपा, राजद, अन्नाद्रमुक, मनसे, एनसीपी, इंडियन नेशनल लोक दल, तेलंगना राष्ट्र समिति ने भी भारत बंद में अपनी भागीदारी से पल्ला झाड़ा है, जबकि इनमें से कई दल नोटबंदी को लेकर पैदा हुई असुविधाओं और अराजकता पर मोदी सरकार को तुगलकी और हिटलरशाही का संस्करण बताने में आगे रहे.

मोदी पर आरोपों और उलहनाओं की ताबड़तोड सर्जिकल स्ट्राइक में सबसे आगे रहे अरविंद केजरीवाल भी इस बंद को अपना प्यार और समर्थन देने से पीछे हट गए. कई दल प्रेस कांफ्रेंस कर और प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देश को बता रहे हैं कि भारत बंद हमारा नहीं है.

मानो भारत बंद कोई बड़ा सियासी गुनाह है! वामदलों ने अपने प्रभाव वाले तीन राज्यों केरल, बंगाल और त्रिपुरा में बंद पर प्यार न्योछावर करने की संजीदगी तो दिखाई, पर उन्हें भी इसे भारत बंद नाम देने से परहेज है.

यह भी पढ़ें: 'भारत बंद' किसका है और इसका विरोध कौन कर रहा है?

क्यों विरोधी दलों का प्यार नहीं मिला

आखिर क्या कारण है कि इस बंद को मोदी पर हद से ज्यादा हमलावर रहे विरोधी दलों का प्यार नहीं मिला?

क्या नोटबंदी पर मुखर विपक्षी पार्टियों को इसलिए सांप सूंघ गया है कि लगभग तीन सप्ताह से बैंकों और एटीएम की कतारों में खड़े करोड़ों लोगों ने लाख परेशानियों, धक्कम-पेल और दुखदायी इंतजार के बावजूद चरम धैर्य और अनुशासन का परिचय देकर मोदी के विमुद्रीकरण पर मुहर लगा दी?

मीडिया में जिस तरह की लंबी सर्पीली कतारें और हुजूम दिखाए गए, वह किसी भी सरकार को डरावने अंदेशे से भर सकता है. लेकिन लगता है, कालाबाजारी के स्याह सच और दशकों से जारी बेलगाम भ्रष्टाचार के खिलाफ पूर्ववर्ती सरकारों के निकम्मेपन ने मोदी को एक बड़ा चांस दिया है.

अनिवार्य जुर्रत

हाल ही में पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की अनिवार्य जुर्रत दिखाकर मोदी ने जनता के बीच नेक इरादे वाले नेता की छवि जो अर्जित की है, वह यहां भी प्रभाव छोड़ रही है.

नेताओं, नौकरशाहों, सेठों, बाबुओं की काली कमाई का उनकी शाहाना जिंदगी में रिफ्लेक्शन देखने वाली जनता लाख मुसीबतें झेलकर भी मोदी को नोटबंदी और अन्य कठोर फैसले पर मौका देने को तैयार है. शायद जनता की इसी सच की नब्ज पढ़कर विरोधी दलों ने भारत बंद को ‘आवारा बंद’ के तौर पर प्रतिरोध की राजनीति में दर्ज होने के लिए छोड़ दिया है.

हाल में ही में हुए उपचुनावों में भाजपा का अपने गढ़ बचा ले जाना भी नोटबंदी पर जनता के रुख का सियासी संदेश है! मोदी विरोधी एकजुटता का समीकरण यहां फिलहाल फुस्स है! भारत बंद नहीं है!