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बीफ बैन तो बहाना है, पूरे देश को शाकाहारी बनाना है

केंद्र के निर्णय से लोगों की किचेन में बीफ का पहुंचना तकरीबन नामुमकिन हो गया है

Akshaya Mishra

सप्लाई को बंद करो तो प्लेट्स से बीफ अपने आप गायब हो जाएगा. यह कितनी चतुराई से बनाई गई रणनीति है! हकीकत में हमें इसे पहले ही समझ लेना चाहिए था. गौरक्षकों की अगुवाई में पिछले तीन साल से चल रहे हो-हल्ले के बाद सरकार ने आखिरकार निशाने पर वार कर ही दिया और यह चीज बड़ी चालाकी से की गई.

गौरक्षकों को सत्ताधारी पार्टी की सहानुभूति हासिल है. पर्यावरण मंत्रालय के ऐलान किए गए नियमों में पशु बाजारों में मवेशियों की खरीद-फरोख्त को रेगुलेट किया गया है. इसका सीधा मतलब है कि लोगों की किचेन में बीफ का पहुंचना तकरीबन नामुमकिन हो गया है.


बीफ खाने वाले इस पर खूब शोर मचा सकते हैं. लेकिन, उनके लिए बफ (बफेलो या भैंस का मांस) खाने का विकल्प भी नहीं छोड़ा गया है. नए नियमों के तहत मशेवियों की परिभाषा में न केवल गायें आती हैं, बल्कि इसमें बैल, भैंसें और अन्य जानवर भी आते हैं.

ये लोग अब वध के लिए जानवरों की खरीद सीधे फार्म्स से कर सकते हैं, लेकिन इस पर उन्हें अपने ठिकाने पर पहुंचने तक पूरे रास्ते गौरक्षकों के समूहों को तमाम तरह के स्पष्टीकरण देने होंगे. पिछले कुछ वक्त में जिस तरह की घटनाएं हुई हैं उसमें तो इन लोगों को अपनी जान जाने का भी खतरा है.

देश में सबसे ज्यादा बूचड़खाने वाले प्रदेशों की सूची में उत्तर प्रदेश का नंबर दूसरा है (फोटो: रॉयटर्स)

गौरक्षकों के चलते कारोबारी सीधे किसानों से मवेशी खरीदने से दूर हो सकते हैं

सरकार का यह कदम एक बड़े एजेंडे का हिस्सा जान पड़ता है. इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता है कि यह पूरा मसला पशुओं से क्रूरता से जुड़ा हुआ है. अगर ऐसी बात है तो चिकेन, बकरियां, सुअर और अन्य छोटे जानवरों को भी मवेशियों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था.

कुछ मवेशियों को नए रेगुलेशंस के बावजूद मारा जा सकता है. यह नोटिफिकेशन प्रीवेंशन ऑफ क्रुएलिटी टू एनिमल्स एक्ट 1960 के तहत आया है. यह एक स्मार्ट आइडिया है ताकि राज्यों को बायपास किया जा सके, जिन्हें संवैधानिक रूप से गौवध पर फैसला करने का अधिकार दिया गया है.

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तर्क यह दिया जा रहा है कि इसके पीछे बिचौलियों की भूमिका खत्म करने और किसानों और कसाइयों के बीच सीधे लेनदेन की सुविधा देने का मकसद है. लेकिन, इस तर्क में ज्यादा जान नजर नहीं आती. बिचौलियों की मांग बनी रहेगी और शायद यह डिमांड और बढ़ जाए क्योंकि कई नियमों और गौरक्षकों की निगरानी के चलते कारोबारी सीधे किसानों से मवेशी खरीदने से दूर हो सकते हैं.

एक वर्ग का यह भी कहा गया है कि इस तरह के नियम मवेशियों को पशु बाजारों के लिए मुहैया कराने और फार्म्स में और ज्यादा स्वच्छ माहौल बनाने के लिए जरूरी है. लेकिन, यह बात भी गले नहीं उतरती. स्टेकहोल्डर्स को सख्त निर्देश देकर इसकी आसानी से माइक्रो लेवल पर निगरानी की जा सकती है.

तो इसका क्या मकसद है?

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यह कदम पिछले तीन साल से बीफ और गाय को लेकर चल रहे अभियान का तार्किक चरण है. 2015 में दादरी में मोहम्मद अखलाक की भीड़ द्वारा हत्या से लेकर 2017 में पहलू खान की राजस्थान में गौरक्षकों द्वारा हत्या तक पूरे देश में बीफ और गाय को लेकर हिंसा का माहौल बना हुआ है. यह सारा काम एक एजेंडे के तहत हो रहा है.

गौरक्षकों की गतिविधियों को संघ परिवार का मूक समर्थन हासिल है. ये सभी एक ही वैचारिक छतरी के नीचे रहते हैं. मुस्लिमों और दलितों का एक वर्ग बीफ खाता है, यह तबका बीफ कारोबार से जुड़ा हुआ है और इनमें से कोई भी वैचारिक परिवार के लिए उतनी तवज्जो नहीं रखता है.

गाय की बात समझ में आती है, लेकिन भैंसों और अन्य जानवरों को इसमें क्यों शामिल किया जा रहा है? गाय की तरह से इनका कोई धार्मिक महत्व नहीं है. गायों को बचाने के मकसद में जुटे हुए लोगों के लिए भैंसें इतनी महत्वपूर्ण क्यों हो गई हैं.

सरकार शोर के बीच चुपचाप देश को शाकाहारी बनाने का गेम खेल रही है

हमने अब तक नहीं सुना कि इन जानवरों को लेकर किसी की हत्या की गई हो. क्या इसके पीछे कोई बड़ा खेल चल रहा है? यह एक अस्वाभाविक अनुमान है, लेकिन ऐसा हो सकता है कि लोग पूरे देश को शाकाहारी बनाने की कोशिश कर रहे हों. इन्हें जल्द ही मेनू से कम से कम आधिकारिक तौर पर मांसाहारी खाना हटाने में सफलता मिल सकती है. निश्चित तौर पर इन्हें ब्राह्मणवादी भीड़ का इस काम के लिए पूरा सपोर्ट मिल रहा है.

मेघालय, केरल और नगालैंड में लोग गाय खाते हैं

यह अनुमान सीधा-सरल नहीं है, लेकिन जिस तरह से लोगों की लाइफस्टाइल में दखल देने का ट्रेंड चल पड़ा है और किसी दूसरे के मत को स्वीकार नहीं करने और अपनी बात जबरदस्ती थोपने की कोशिशें हो रही हैं उससे यह अनुमान उतना गलत नहीं लगता. सरकार शोर के बीच चुपचाप देश को शाकाहारी बनाने का गेम खेल रही है.

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निश्चित तौर पर, सरकार कह रही है कि यह लोगों की संवेदना से जुड़ा हुआ मसला है, लेकिन यह ऐसे तरीके हासिल कर सकती है जिससे लोगों की प्लेट से मांसाहारी व्यंजन गायब हो जाएं.

पारंपरिक रूप से बीफ खाने वाले मेघालय, नागालैंड और केरल के लोगों के बारे में सोचिए और सोचिए जब उनसे कहा जा रहा हो कि वे अपनी सदियों पुरानी खान-पान की आदतें बदल दें. इसे देखते हुए कुछ भी नामुमकिन नहीं लग रहा है. ऐसे में यह बात कहां जाकर रुकेगी? शायद ही किसी को इसका अंदाजा हो.